फतेहपुर- गरीब, किसान, मजदूर व फुटपाथ पर अपना जीवन बिताने वाले लोगो के पास शायद इतना ज्यादा पैसा नहीं है कि ये लोग अपने बच्चो का अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करा सके।
यह सब सोचकर लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चे को पढाते है, कि शायद यहाँ से पढ़ लिख कर उनके बच्चें अपना भविष्य बना सके । लेकिन लोगो को क्या पता कि 30 से 40 हजार रुपए प्रातिमाह वेतन पाने वाले सरकारी अध्यापक कितनी इमानदारी से अपनी जिम्मेदारी को निभा रहे है, या फिर सरकारी कुर्सी पर बैठकर मटर गस्ती कर रहे है।
हम बात कर रहे है ऐरायाँ ब्लॉक के प्राथमिक स्कूलों की (सरकारी स्कूल ) । यहाँ पर ज्यादातार ऐसे सरकारी स्कूल है जहाँ पर पढ़ने वाले बच्चे अंग्रेजी में अपना नाम तक नहीं लिख पाते है। हिंदी की किताब नहीं पढ़ पाते है। 2 से 10 तक का पहाड़ा नहीं लिख पाते है । यहाँ तक की कुछ ऐसे बच्चे है जिनको ये पता नहीं कि उत्तर प्रदेश की राजधानी का क्या नाम है ?
प्रदेश के मुख्यमंत्री व राज्यपाल का क्या नाम है ? अब सवाल यह उठता है की इन सब चीजो का जिम्मेदार कौन है स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे या फिर पढ़ाने वाले अध्यापक ।
हालाकि आज से 15 साल पहले सरकारी स्कूलों में अच्छी पढाई हुआ करती थी । इन्ही स्कूलों से बच्चे आईएएस व पीसीएस बन कर निकलते थे । आज इसे सौभाग्य कहें या फिर दुर्भाग्य कि अधिकतर स्कूलों के बच्चों को क से ज्ञ में कितने शब्द होते है, ऐ टू जेड में कितने अक्षर होते है, 2 से 10 तक का पहाड़ा नहीं पता। तो ऐसे में क्या उम्मीद लेकर चले की आज प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा अपने भविष्य को कैसे सवार पायेगा ।
इसका जिम्मेदार सिर्फ बच्चें व इनके माता पिता को नहीं ठहराया जा सकता है बल्कि इन सबका सबसे ज्यादा जिम्मेदारी बच्चों को पढ़ाने वाले अध्यापको की बनती है।
शिक्षा विभाग पर सरकार द्वारा अरबो रुपैय खर्च किये जाने के बावजूद भी प्राथमिक स्कूलो की शिक्षा व्यावस्था में कोइ खास बदलाव नहीं हुआ बल्कि प्रतिदिन हालात बिगड़ते जा रहे है। सरकार अध्यापको को 30 हजार से 40 हजार वेतन दे रही है।
इसके बाबत अध्यापक अपनी जिम्मेदारी को पूरी इमानदारी से नहीं निभा रहे है । यही वजह है की सही तरीके से पठन पाठन का कार्य न होने व अध्यापको के रवैया को देखते हुए अभिभावको ने अपने अपने बच्चों का सरकारी स्कूलों में दाखला न करवाकर मान्यता प्राप्त स्कूलों में दाखला करवा रहे है।
रिपोर्ट:- सरवरे आलम