राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे देश के स्तंभ पुरुषों की जन्मस्थली गुजरात राज्य में पिछले दिनों राज्य की चौदहवीं विधानसभा हेतु मतदान संपन्न हुए। भारतीय राजनीति में गांधी जी व सरदार पटेल का क्या मरतबा था तथा पूरा विश्व उन्हें तथा उनकी राजनैतिक शैली को कितने आदर व स मान के साथ देखता है यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है।
गुजरात के विषय में इतना ही कहना काफी है कि गांधी व पटेल की वजह से ही गुजरात राज्य पूरे विश्व में अपनी स मानपूर्ण पहचान रखता है। परंतु पिछले दिनों 9 तथा 14 दिसंबर को दो चरणों में हुए विधानसभा चुनाव से पूर्व चुनाव में सक्रिय राजनैतिक दलों खसतौर पर भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस के शीर्ष नेताओं द्वारा मतदाताओं को अपने पक्ष में लुभाने के लिए कौन-कौन से हथकंडे अपनाए गए तथा चुनाव प्रचार को किस प्रकार नि नतम स्तर तक ले जाया गया यह निश्चित रूप से गुजरात की धरती के लिए किसी बदनुमा दा$ग से कम नहीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वप्रथम 7 अक्तूबर 2001 को गुजरात के मुख्यमंत्री पद का कार्यभार संभाला था। 22 मई 2014 तक अर्थात् लगभग 13 वर्षों के लंबे अर्से तक वे इस पद पर सुशोभित रहे। मोदी के पहली बार मु यमंत्री बनने के मात्र पांच महीने बाद ही 27 $फरवरी 2002 को राज्य के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में सवार कारसेवकों पर हुए हमले में 58 कारसेवक जि़ंदा जला दिए गए। इसके पश्चात राज्य के बड़े क्षेत्र में सांप्रदायिक हिंसा भडक़ उठी।
लंबे समय तक चली इस अनियंत्रित हिंसा में हज़ारों लोग मारे गए। धार्मिक उन्माद पर आधारित यह हिंसा पूरे विश्व में गुजरात ही नहीं बल्कि पूरे देश की बदनामी का एक बड़ा कारण बनी। चूंकि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के समय राज्य की सत्ता नरेंद्र मोदी के ही हाथ में थी इसलिए गोधरा हादसे से लेकर अनियंत्रित सांप्रदायिक हिंसा तक पर $काबू न पाने की जि़ मेदारी नरेंद्र मोदी पर ही डालने की कोशिश की गई। मोदी ने इस विवादित छवि से उबरने का यह रास्ता निकाला कि उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा और धार्मिक उन्माद के धब्बों को विकास की इबारत से छुपाने की कोशिश की। वैसे तो स्वतंत्रता के बाद से ही देश के हरियाणा,पंजाब,महाराष्ट्र गुजरात,कर्नाटक जैसे राज्यों को देश के विकसित राज्यों में गिना जाता रहा है।
परंतु किसी भी राज्य ने अपने विकास का ढिंढोरा एक खास अंदाज़ में कभी नहीं पीटा। जबकि मोदी ने वाईब्रेंट गुजरात के नाम से पूरी मुहिम शुरु कर दी। और इसके प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय उद्योगपतियों से लेकर अप्रवासी भारतीयों यहां तक कि इसके लिए विदेशी कंपनियों तक का सहारा लिया।
सरकारी फंड से जारी किए जाने वाले अरबों रुपये के विज्ञापन तथा मीडिया तंत्र के सहारे से वाईब्रेंट गुजरात की मुहिम को कुछ इस तरह पेश किया गया गोया गुजरात देश में सबसे तेज़ तरक्की करने वाला पहला राज्य है और यह पूरा करिश्मा नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में संभव हो सका है। अपने इसी ‘वाईब्रेंट’ गुजरात के रथ पर सवार होकर लगभग 13 वर्षों तक राजय के मु यमंत्री बने रहने के बाद वे प्रधानमंत्री पद की अपनी मंजि़ल तक जा पहुंचे। पिछले दिनों राज्य में हुए विधानसभा चनुाव मु यमंत्री के रूप में उनकी गैर मौजूदगी में 13 वर्षों के बाद होने वाले पहले चुनाव थे। इन चुनावों में मु य विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी द्वारा राज्य की भाजपा सरकार व नरेंद्र मोदी के गत् साढ़े तीन वर्ष की केंद्र सरकार के कामकाज का हिसाब मांगा जा रहा था।
निश्चित रूप से नैतिकता व न्यायसंगत चुनाव प्रचार का तकाज़ा तो यही था कि भारतीय जनता पार्टी अपने ‘वाइ्रब्रेंट‘ गुजरात का गत् 13 वर्षों का जनता को हिसाब देती तथा केंद्र द्वारा साढ़े तीन वर्षों में जनता हेतु शुरु की गई योजनाओं के बारे में बताकर जनता से वोट मांगने की कोशिश करती। परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। और इस बार का गुजरात चुनाव देश में स्वतंत्रता से लेकर अब तक हुए सभी चुनाव प्रचारों में नि नतम स्तर तक पहुंचने वाला चुनाव साबित हुआ।
राज्य में जहां पाटीदार आंदोलन सडक़ों पर अपना रोष व्यक्त कर रहा है,ऊना में कथित गौरक्षकों द्वारा दलितों पर किए गए हमले के बाद दलितों का सरकार से मोह भंग हो चुका है,बेरोज़गारी अपने चरम पर है,विकास नाम की चीज़ केवल राजमार्गों,उच्च घराने के लोगों,विशिष्ट व अति विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित है,किसानों को उचित मूल्य पर उनकी खेती की ज़रूरत के सामान नहीं मिल रहे हैं तथा उनकी फसल सही कीमत पर नहीं बिक पा रही है, राज्य में किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने की खबरें आती रहती हैं, बिजली-पानी,शिक्षा,स्वास्थय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखा जा रहा है।
परंतु दु:ख का विषय है कि गुजरात का चुनाव इन मुद्दों से भटका कर ऐसे गैर ज़रूरी मुद्दों की ओर ले जाने की कोशिश की गई जिसका आम जनता की रोज़मर्रा की ज़रूरतों से तो कोई लेना-देना नहीं परंतृु यह मुद्दे मतदाताओं की भावनाओं को ज़रूर प्रभावित करने वाले थे। ज़रा सोचिए कि राहुल गांधी के मंदिर जाने या न जाने से राज्य का क्या भला या बुरा हो सकता है?
ज़रा सोचिए कि पाकिस्तान जैसा अस्थिर व कमज़ोर देश क्या इतनी औकात या हैसियत रखता है कि वह गुजरात में मु यमंत्री कौन बने और किसकी सरकार बने,यह तय कर सके? ज़रा सोचिए कि क्या मणिशंकर अय्यर जैसा भारतीय विदेश सेवा का पूर्व वरिष्ठ अधिकारी,पूर्व केंद्रीय मंत्री व पूर्व राजनयिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने की सुपारी पाकिस्तान को दे सकता है?
क्या पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी तथा देश के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर जैसे लोग किसी पाकिस्तानी पूर्व राजनयिक के साथ गुप्त बैठक कर मोदी खिलाफ साजि़श रच सकते हैं? परंतु इस प्रकार का दुष्प्रचार चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्तर पर किया गया।
चुनाव प्रचार में सांप्रदायिकता का ज़हर घोलने के लिए राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उन्हें मुगल राज की परंपरा का वाहक बताया गया। हद तो यह है कि राहुल गांधी के मंदिर जाने पर उनके धर्म पर ही सवाल खड़ा कर दिया गया। उधर राहुल गांधी भी भाजपा के इस जाल में फंसकर यह साबित करने लगे कि वे हिंदू ही नहीं बल्कि एक ब्राह्मण हिंदू हैं और जनेऊधारी हिंदू हैं जबकि उन्हें इस प्रकार की स$फाई देने की कोई ज़रूरत भी नहीं थी।
इसी गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा प्रवक्ता सांबित पात्रा तथा जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के मध्य एक बेहद गर्मागर्म डिबेट एक टीवी चैनल द्वारा प्रसारित की गई। इस डिबेट में संबित पात्रा गुजरात चुनाव प्रचार के गिरते स्तर की ही तरह अपने पक्ष में दिए जाने वाले तर्कों में अब तक के सबसे निचले स्तर तक पहुंचते हुए नरेंद्र मोदी को ‘देश का बाप’ तक बता बैठे। चुनाव प्रचार के दौरान जनता से संवाद का स्तर इतना गिर सकता है ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था।
वैसे भी चुनाव जीतने के लिए जनता से झूठ बोलना,मतदाताओं को गुमराह करना तथा जनता को अपने फायदे के लिए झांसा देना लगता है भारतीय जनता पार्टी की खुली नीति में शामिल हो चुका है। पिछले दिनों कर्नाटक के पूर्व उपमु यमंत्री केएस ईश्वरप्पा ने पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्हें साफतौर पर यह निर्देश दिया कि वे भाजपा की केंद्र सरकार की उपलब्धियों को बताने के लिए जनता से झूठ बोलें व उन्हें झांसा दें। ऐसे प्रयास यह साबित कर रहे हैं कि भविष्य में होने वाले चुनाव संभवत: गुजरात चुनाव प्रचार से भी निचले स्तर तक जा सकते हैं।
लेखक:- निर्मल रानी
निर्मल रानी
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