उत्तरप्रदेश में पिछले दिनों काफी सांप्रदायिक तनाव रहा लेकिन उसी के शहर आगरा में सांप्रदायिक सदभाव का अनुपम उदाहरण सामने आया है। आगरा की संजय नगर कालोनी में एक 18 साल की हिंदू लड़की रोज शाम को 35 मुस्लिम बच्चों को कुरान पढ़ाती है। इस लड़की का नाम है- पूजा कुशवाहा! पूजा खुद छात्रा है, 12 वीं कक्षा की। दिन में वह खुद पढ़ने जाती है और शाम को वह कुरान पढ़ाती है।
पूजा का अरबी शब्दों का उच्चारण शुद्ध होता है और वह कुरान की शिक्षाओं को इतने अच्छे ढंग से समझाती है कि उन बच्चों के माता-पिता कहते हैं कि हमारा ध्यान इस बात पर जाता ही नहीं है कि पूजा हिंदू है या मुसलमान! पूजा उन बच्चों को पढ़ाने की कोई फीस नहीं लेती। वह कहती है कि इन बच्चों के माता-पिता गरीब हैं। वे फीस नहीं दे सकते। मुझे भी पैसों की जरुरत नहीं है। पूजा पहले इन मुस्लिम बच्चों को अपने घर मे ही पढ़ाती थी लेकिन जब उनकी संख्या बढ़ गई तो मोहल्ले के कुछ बुजुर्ग लोगों ने पूजा को एक मंदिर का प्रांगण दे दिया।
अब पूजा इन बच्चों को मंदिर में बैठकर कुरान पढ़ाती है। है न, कितने कमाल की बात! न मुसलमानों को एतराज कि एक हिंदू लड़की उनके बच्चों को कुरान पढ़ाती है और न हिंदुओं को एतराज कि उनके मंदिर का इस्तेमाल कुरान पढ़ाने के लिए हो रहा है।
इस घटना से हम क्या नतीजा निकालते है? क्या यह नहीं कि परमात्मा यदि एक है तो फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि उसे कौन किस भाषा में भजता है? हां, धर्म के नाम पर जिन्हें पाखंड फैलाना है, अपनी रोटियां सेकना है, वे लोग सांप्रदायिकता की दीवारें खड़ी कर लेते हैं। वे यही सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि तेरे ईश्वर से मेरा ईश्वर श्रेष्ठ है।
तेरे धर्मग्रंथ से मेरा धर्मग्रंथ श्रेष्ठ है। जो सच्चे धार्मिक लोग होते हैं, उनकी पहली पहचान यही होती है कि वे सांप्रदायिक नहीं होते, संकीर्ण नहीं होते। भारत में तो यह माना ही जाता है कि ‘एकम् सदविप्रा बहुधा वदंति’। याने ईश्वर एक ही है लेकिन अच्छे लोग उसे तरह-तरह से जानते और मानते हैं।
लेखक – डा. वेद प्रताप वैदिक