होम्यो चिकित्सकों को निम्नलिखित निर्देशों का पालन करना चाहिए-
(1) औषधि का चुनाव खूब सोच-समझकर करना चाहिए।
(2) औषधि का निर्वाचन करने से पूर्व रोगी की भलीभांति परीक्षा करना आवश्यक है।
(3) औषधि की शक्ति का चुनाव सावधानीपूर्वक करना चाहिए। सामान्यतः 30 क्रम की औषधि लाभदायक रहती है। तरहृण रोग में निम्न तथा मध्यम क्रम एवं जीर्ण रोग में उच्च क्रम वाली औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।
(4) जल्दी-जल्दी अस्थायी उपचार के लिए निम्नक्रम तथा धीरे-धीरे स्थायी उपचार के लिए उच्च क्रम की औषधियों का व्यवहार किया जाता है।
(5) रोग के लक्षण के साथ औषधि के लक्षण भलीभांति मिल जाने पर उच्च क्रम तथा रोग एवं औषधि के लक्षणों के परस्पर पूरी तरह न मिलने पर निम्नक्रम का व्यवहार करना चाहिए।
(6) पहले औषधि की एक मात्रा देकर रोगी की अवस्था पर ध्यान देना चाहिए। यदि दी हुई औषधि उपयुक्त समय के भीतर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त न करे तो उसी औषधि की एक मात्रा और देकर देखना चाहिए। यदि दूसरी बार भी कोई प्रतिक्रिया प्रकट न हो तो एक मात्रा एंटीसोरिक’ (सल्फर, सोरिनम आदि) देकर फिर से उसी चुनी हुई औषधि की एक मात्रा और देनी चाहिए। यदि तब भी कोई प्रतिक्रिया न हो तो क्रम का निर्वाचन ठीक से नहीं हुआ है’ यह समझकर रोग के लक्षणों को पुनः मिलाते हुए उसी औषधि को किसी अन्य क्रम में बदलकर देना चाहिए।
फिर यदि यह दिखाई दे कि उस औषधि से कोई लाभ नहीं हो रहा है तो कुछ समय के लिए औषधि देना बंद करके पूर्ण प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करनी चाहिए, तत्पश्चात उसी औषधि को उसी परिवर्तित क्रम में पुनः देना चाहिए, परन्तु यदि यह अनुभव हो कि परिवर्तित क्रम में भी औषधि ने कोई लाभ नहीं किया है, तो उसी औषधि की मात्रा और देकर देखना चाहिए। यदि उसके बाद भी कोई लाभ न हो तो रोग तथा औषधि के लक्षणों को पुनः नए सिरे से मिलाकर कोई अन्य औषधि बदल कर देनी चाहिए।
(7) तीव्र (संक्रामक) किस्म के नवीन रोग में निर्वाचित औषधि का बार-बार प्रयोग तभी तक किया जाता है, जब तक कि उसकी कोई क्रिया दिखाई न दे। औषधि की क्रिया निम्नलिखित दो प्रकार से प्रकट होती है-
(क) रोग का बढ़ जाना
(ख) रोग का घट जाना
(8) यदि किसी औषधि की एक मात्रा देने पर कुछ समय तक लाभ दिखाई दे, परन्तु फिर वह लाभ अलक्षित हो जाए तो उसी औषधि की एक मात्रा और देकर देखना चाहिए। यदि दूसरी मात्रा देने पर लाभ होने की बजाय रोग और अधिक बढ़ जाए तो ृवह औषधि रोग को दूर नहीं कर सकेगी’ यह समझकर किसी अन्य उपयुक्त औषधि का निर्वाचन करना चाहिए।
(9) जीवन शक्ति की उत्तेजना रहने पर निम्न क्रम वाली तथा अवसाद होने पर उच्च क्रम वाली औषधि का प्रयोग करना चाहिए।
(10) यदि समलक्षण वाली औषधि के मिल जाने पर एक क्रम से लाभ न हो तो उसी औषधि को दूसरे क्रम में प्रयोग करके देखना चाहिए।
(11) यदि औषधि का निर्वाचन ठीक हुआ होगा तो नवीन रोग निश्चित रूप से केवल एक मात्रा देने पर ही दूर हो जाएगा, परन्तु यदि रोगी पहले किसी अन्य चिकित्सा पद्धति की औषधियों का सेवन कर चुका होगा तो उस स्थिति में उसे बार-बार औषधि देने की आवश्यकता पड़ सकती है, क्योंकि विपरीत विधान की औषधियां रोग को मजबूती से दबाए रखती हैं, जिनका मूलोन्मूलन करने हेतु ही होम्योपैथी औषधि बारंबार देने की आवश्यकता पड़ती है।
(12) किस रोग के रोगी को कितनी औषधि देकर उसकी क्रिया की जांच के लिए कितने समय तक प्रतीक्षा करनी होगी, इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि जिस रोग में जितनी शीघ्र जीवन हानि होने की आशंका रहती है, उसमें औषधि की क्रिया भी उतनी ही शीघ्रता से प्रकट होती है। उदाहरण के लिए हैजा आदि रोगों में औषधि की क्रिया 10-20 मिनट के भीतर ही प्रकट हो जाती है।
(13) औषधि की क्रिया (प्रभाव) प्रकट होते ही नियमानुसार औषधि देना बंद कर देना चाहिए, परन्तु सन्निपातिक ज्वर आदि कठिन एवं भयंकर रोगों में 2-3 घंटे के भीतर ही औषधि का पुनः प्रयोग किया जा सकता है। एग्जिमा आदि चर्मरोगों में शीघ्र मृत्यु का भय नहीं होता है, अतः उनमें औषधि की क्रिया भी विलंब से ही प्रकट होती है। ऐसे रोगों में औषधि की एक मात्रा देने के बाद उसकी क्रिया (प्रभाव) को देखने के लिए एक-दो महीने की अवधि तक भी प्रतीक्षा की जा सकती है।
(14) जिस रोग में जितनी कम अथवा अधिक पीड़ा होती है, उसी अनुपात में औषधि की क्रिया भी शीघ्र प्रकट होती है। असाध्य तीव्र वेदना में औषधि की क्रिया जितनी जल्दी प्रकट होती है, सामान्यतः वेदना में वैसा नहीं होता। अस्तु, तीव्र वेदना में औषधि की दूसरी मात्रा को जितनी जल्दी दिया जा सकता है, उतनी जल्दी समान्य वेदना में नहीं दिया जा सकता।
(15) जो शिशु स्तनपान करते हों, उनकी चिकित्सा करते समय उनकी माता को भी औषधि देना आवश्यक है।
(16) बहुत कठिन स्थितियों के अतिरिक्त स्त्रियों को ऋतुकाल (मासिक धर्म) के दिनों में सोरिक आदि धातु दोष नाशक औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिए। यदि रोग अत्यंत कठिन न हो तो ऋतुकाल की अविध में उस औषधि को देना बंद कर देना चाहिए, जो उसे पहले से दी जा रही है।
(17) रोग के कारण शारीरिक पीड़ा में वृद्धि तथा औषधि के कारण पीड़ा में वृद्धि के बीच यह अंतर होता है कि औषधि प्रयोग के कारण हुई पीड़ा वृद्धि अचानक होती है, जब कि रोगजनित पीड़ा वृद्धि धीरे-धीरे होती है। रोगजनित पीड़ा वृद्धि में नाड़ी की गति तीव्र हो जाती है, जबकि औषधिजनित पीड़ा वृद्धि में नाड़ी की गति तेज नहीं होती है। रोगजनित पीड़ा वृद्धि के पूर्व हल्का सा आराम दिखाई देता है, जबकि औषधिजन्य पीड़ा वृद्धि में ऐसा नहीं होता।
(18) होम्योपैथी में किसी रोग’ के नाम के आधार पर चिकित्सा नहीं की जाती। इसमें तो ृव्याधि’ के लक्षणों के आधार पर सदृश लक्षणों वाली औषधि का प्रयोग किया जाता है। लक्षणों में भिन्नता के कारण औषधियों में भी भिन्नता आ जाती है, इसलिए होम्योपैथी में प्रत्येक व्याधि के लक्षणों में अंतर होने पर अलग-अलग औषधियों का प्रयोग करने का निर्देश है। यही कारण है कि होम्योपैथी में किसी रोग विशेष के लिए किसी एक विशेष औषधि का ही प्रयोग नहीं किया जाता।
(19) प्रत्येक होम्योपैथिक चिकित्सक को शरीर संरचना एवं काया विज्ञान, होम्योपैथिक औषधियों के गुण-धर्म तथा रोग परीक्षा सिद्धांत आदि विषयों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इनके अतिरिक्त पथ्यापथ्य, स्वास्थ्य एवं रोगी की सुश्रूषा संबंधी नियमों की जानकारी भी होनी चाहिए। अतः उनका सावधानीपूर्वक अध्ययन करना तथा स्मरण रखना आवश्यक है।
(20) होम्योपैथी में चिकित्सा से पूर्व रोगी तथा उसके वंश संबंधी इतिहास की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। इनके अतिरिक्त रोगी की आजीविका के साधन, रहन-सहन, खान-पान, स्वभाव, रहृचि आदि से संबंधित बातों की भी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। इन सबके बाद रोगी के शरीर परीक्षण तथा रोग लक्षणों पर ध्यान देना आवश्यक है। ये सभी बातें रोगी के लिए उचित तथा सदृश औषधि के चुनाव में सहायक होती हैं।