उत्तराखण्ड में सुप्रीम कोर्ट ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया हैं। राज्य में राष्ट्रपति शासन हट चुका है और विधानसभा में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुए मतदान में हरीश रावत की विजय ने उन्हें पुन: मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का अधिकारी बना दिया है। कथित अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकाप्टर सौदे को लेकर कांग्रेस और उसके वरिष्ठ नेताओं को घेरने की कोशिश में जुटी मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी अब खुद बचाव की मुद्रा में नजर आ रही हैं परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि भाजपा उत्तराखण्ड विधानसभा में अपनी पराजय को स्वीकार कर लेने का साहस नहीं दिखा पा रही है।
दरअसल भाजपा का उत्तराखण्ड में सत्ता पर काबिज होने का सपना टूट गया है इसलिए वह खीज उठी है। अगर कांग्रेस पार्टी के 9 बागी विधायकों को सदस्यता से अयोग्य करार दिए जाने का स्पीकर का फैसला कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया जाता और उन्हें विधानसभा में विश्वास मत पर मतदान करने का अधिकार मिल गया होता तो हरीश रावत की मुख्यमंत्री पद पर बहाली की संभावनाएं धूमिल हो सकती थी परन्तु विधानसभा में कांग्रेस के 9 बागी विधायकों को मतदान की पात्रता न मिल पाने से भाजपा को विपक्ष में ही बैठने की मजबूरी का सामना करना पड़ेगा।
भाजपा कांग्रेस के इन्हीं 9 बागी विधायकों के समर्थन से राज्य में सत्ता पर काबिज होने का स्वप्न संजोए बैठी थी। उसे उम्मीद थी कि अरूणाचल की भांति उत्तराखण्ड में भी कांग्रेस पार्टी में फूट का लाभ लेकर वह अपना यह सपना साकार कर लेने में कामयाब हो जाएगी परन्तु उत्तराखण्ड में कांग्रेस की कानूनी लड़ाई में मिली सफलता में वह बचाव की मुद्रा में आ चुकी है।
भाजपा अब राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के पक्ष में यह दलील दे रही है कि अतीत में जब केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारें काम कर रही थीं तो उसने विभिन्न राज्यों में संविधान के अनुच्छेद 356 का 100 से अधिकार दुरूपयोग करते हुए राष्ट्रपति शासन लगाया था इसलिए उसे उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगाने के मोदी सरकार के फैसले का विरोध करने का उसे कोई नैतिक अधिकार नहीं है परन्तु भाजपा इस तथ्य को जानबूझकर नजरअंदाज कर रही है कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस पार्टी ने कानूनी लड़ाई लडक़र ही फिर हासिल की है।
दूसरी बात यह है कि अगर अतीत में केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नीत सरकार ने अनुच्छेद 356 का अनेेकों बार दुरूपयोग किया तो उसको गलत ठहरा कर भाजपा अपनी केंद्र सरकार के गलत कदम को कैसे ठहरा सकती है। दरअसल जिस तरह केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकारें राज्यों में दूसरी पार्टी की सरकारों को अस्थिर करने में दिलचस्पी लेने लगती है उस परिपाटी से ही परहेज किए जाने की आवश्यकता हैै। दरअसल निर्वाचित सरकारों को अस्थिर किए जाने से राज्य में प्रशासन जिस तरह पंगु हो जाता है उसका सर्वाधिक नुकसान जनता को उठाना पड़ता है। दलबदल कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर सामुहिक दलबदल की जो गलत परिपाटी चल पड़ी है उसको प्रोत्साहन देकर बागी विधायकों की मदद से सत्ता पर काबिज होने की कोशिश से परहेज किया जाना चााहिए।
उत्तराखण्ड में अपनी हार से खीजी भाजपा अब यह आरोप भी लगा रही है कि उत्तराखण्ड में कांग्रेस ने बहुमत खरीद कर अपनी सरकार बचाने मेें कामयाबी हासिल कर ली हो परन्तु उसने जनता का विश्वास खो दिया है। परन्तु कांग्रेस पर आरोप लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी से यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि जिन विधायकों को कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना था उन विधायकों ने विधानसभा के पांच वर्षीय कार्यकाल के बीच में ही दलबदल करके क्या अपने अपने क्षेत्रों के मतदाताओं के साथ विश्वास घात नहीं किया है।
दरअसल स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि बागी विधायकों को दलबदल करने से पूर्व जनता से राय लेना चाहिए थी जिसका सर्वोत्तम तरीका तो यही हो सकता था कि वे अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर पुन: अपने क्षेत्र के मतदाताओं का सामना करने का साहस जुटाते। उत्तराखण्ड में बागी विधायकों की मदद से सत्ता पर काबिज होने की कोशिशों में असफल हो चुकी भाजपा अगर कांग्रेस और मुख्यमंत्री हरीश रावत पर यह आरोप लगा रही है कि उन्होंने विधायकों की खरीद फरोख्त के जरिए अपना बहुमत सिद्ध किया है तो उसे यह प्रश्न भी परेशान करने के लिए काफी है कि बागी विधायकों ने आखिर किस प्रलोभन में आकार भाजपा का साथ देने का मन बना लिया था।
केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अब कोई भी तर्क क्यों न दे परन्तु सुप्रीम कोर्ट के फैसले से तो यही संदेश मिलता है कि उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगाने का केन्द्र सरकार का फैसला गलत था। केंन्द्र सरकार के इस विवादास्पद फैसले के कारण ही नैनीताल हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की कि राष्ट्रपति का फैसला कोई राजा का फैसला नहीं है जिसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। नि:संदेह केन्द्र सरकार को भी इस बात पर तो खेद होना ही चाहिए उसकी सिफारिश ने राष्ट्रपति की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर दिए।
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पद पर पुन: काबिज होने के बाद हरीश रावत के चेहरे पर विजेता की जो मुस्कान दिखाई दे रही है वह स्वाभाविक है और हरीश रावत इसके अधिकारी भी है। कांग्रेस पार्टी का उल्लास भी देखते ही बनता है वह केंद्र सरकार से संसद में माफी मांगने की मांग कर रही है जो नामुमकिन है लेकिन अगस्ता वेस्टलेण्ड हेलीकाप्टर सौदे को लेकर शर्मसार दिखाई दे रही कांग्रेस पार्टी को उत्तराखण्ड में अपनी जीत से मानों नई संजीवनी मिल गई है और अब उसे मोदी सरकार और भाजपा पर प्रहार करने का हथियार मिल गया है। निश्चित रूप से वह इस मौके का लाभ उठाने से नहीं चूकेगी। आगे और दिलचस्प लड़ाई देखने को मिल सकती है किंतु इस सब के बीच यह प्रश्न अनुतरित नहीं रहना चाहिए कि क्या अनुच्छेद 356 के दुरूपयोग को रोकने के लिए सभी दलों को कोई पहल नहीं की जानी चाहिए।
उत्तराखण्ड विधानसभा में अपनी जीत से फूले नहीं समा रहे मुख्यमंत्री हरीश रावत को भी अब अपनी उस कार्यशैली में बदलाव लाने पर विचार करना चाहिए जिसकी वजह से कांग्रेस विधायक दल में बगावत की स्थिति बनी। इसमें दो राय नहीं कि हर विधायक की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं की जा सकती परंतु इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सत्ता के मुखिया की सफलता इसी कसौटी पर परखी जाती है कि अपने दल के सभी सदस्यों को साथ में लेकर चलने की उसमें कितनी प्रतिभा है। नेतृत्व का यही गुण किसी मुख्यमंत्री के स्थायित्व की गारंटी दे सकता है। मुख्यमंत्री रावत ने सदन में विश्वासमत जीतने में जो कामयाबी हासिल की है उसमें उत्तराखण्ड क्रांति दल और बहुजन समाज पार्टी का भी योगदान है। मुख्यमंत्री को अब सबको साथ लेकर चलना हैै। उम्मीद की जा सकती है कि वे उन परिस्थितियों को हल करें जिनकी वजह से राज्य में संवैधानिक संकट के नाम पर केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने का बहाना मिला।