इंदौर की पत्रकार पूजा तिवारी की संदिग्ध मौत को लेकर सैकड़ो सवाल उठ रहे है लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल को सभी ने अनदेखा किया कि एक तेज़-तरार्र पत्रकार जिससे नामी-गिरामी नेता, मंत्री या आला अफ़सर भी चमकते होंगे , कई सीनियर आईएएस या आईपीएस अफ़सर भी उसे तवज्जो देते होंगे आखिर उसकी क्या मज़बूरी थी जो एक मामूली इंस्पेक्टर से अक्सर पिटने के बाद भी खामोश रही ?
मैं ना तो पूजा तिवारी को जानता हूँ और ना ही इन्स्पेक्टर अमित वशिष्ठ को लेकिन उन हालात को बखूबी जानता हूँ जो साहसी पत्रकारों को भी कमजोर बनाये हुए है वह है उसकी आर्थिक विषमता। दरअसल हर पत्रकार वह चाहे छोटे गाँव का हो या राजधानी का उसकी त्रासदी एक सी है कि उसका सोशल स्टेटस जितना ऊँचा है उतना ही नीचा है उसका फायनेंशियल स्टेटस। इस विसंगति में संतुलन साध पाना पहले भी आसान नहीं था और अब तो और भी मुश्किल है।
फर्क इतना है कि पहले के पत्रकारों को अपने सम्मान की चिंता ज्यादा सताती थी और अभी के नए पत्रकारों को अपनी सुख-सुविधाओं की। मैं यह भी नहीं जानता कि पूजा तिवारी किस मीडिया संस्थान में काम करती थी और उसकी तनख्वाह क्या थी ? पर इतना अंदाज़ जरुर लगा सकता हूँ कि उसका खर्च उसकी तनख्वाह से कहीं ज्यादा रहा होगा। इसी कारण उसकी निर्भरता एक इंस्पेक्टर पर बढ़ी और वह उसका आसान शिकार हो गई।
दरअसल पत्रकारिता की यह बड़ी त्रासदी है ,खास तौर पर हिंदी पत्रकारिता की जिसमे अख़बार मालिको को लगता है कि उन्हें पत्रकारों को तनख्वाह देने की जरुरत ही नहीं है , वे अपने दम पर पैसा जुटाने में सक्षम है। कुछ बड़े मीडिया घरानों और बड़े पत्रकारों की बात छोड़ दे तो ओवरऑल सीन यही है। इसी का नतीज़ा है कि पत्रकारों पर ब्लेकमेलिंग के आरोप लगने लगे. कुछ ने आरटीआई को कमाई का धंधा बना लिया तो कुछ तोड़ीबाज़ हो गए। अब समाज भी उन्हें इसी रूप में देखने का अभ्यस्त भी हो गया है।
ईमानदारी से कहूँ तो मीडिया हॉउस जितनी तनख्वाह अपने पत्रकारों को देता है उससे वे बस घरखर्च ही निकाल सकता है लेकिन अब कई पत्रकारों के पास 20-20 लाख रुपयों से ज्यादा की लक्ज़री गाड़ियाँ,महंगे आईफोन,ब्रांडेड चश्मे, जूते, ब्रांडेड कपडे और वह सब है जिसकी भी वह ख्वाहिश रखता है।
जिनका इस पर भी मन नहीं भरा उन्होंने सोने की मोटी-मोटी चेन या कड़े पहनकर अपनी संपत्ति (या कुंठा) का फूहड़ प्रदर्शन करने लगे। इसका हश्र क्या हुआ सभी को बेहतर पता है। इन्दौर में पत्रकारिता पिछले दिनों जिस कदर ज़लील हुई की अब हमें पत्रकार कहलाने में भी शर्म आने लगी।
सवाल यह नहीं कि पत्रकारों को ये सारे सुख नहीं मिलने चाहिए जिसका वह हक़दार है। पर यह सब मिलना चाहिए मीडिया संस्थानों से और वो भी एक नंबर में। आज किसी भी क्षेत्र में नौकरियों में जितने बड़े पैकेज मिल रहे है क्या वो संभावनाएं मीडिया में है ? कुछ अपवाद छोड़ दीजिये। पत्रकारों के टेलेंट ,उनकी मेहनत पर कोई संदेह नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि दूसरों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले अपने ही शोषण पर चुप क्यों है ? जब तक पत्रकारों को आर्थिक रूप से मजबूती नहीं मिलेगी तब तक ऐसे घटनाक्रम नहीं थमेंगे।
यह लेख वरिष्ट पत्रकार जय नागड़ा की फेसबुक वॉल से लिया गया है
लेखक – जय नागड़ा
लेखक मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार है फिलहाल इंडिया टुडे ग्रुप में अपनी सेवाएं दे रहे है