कमलनाथ अब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनकी पहली प्राथिमकता पार्टी को सत्ता में लाने की थी। उनके लिए यह चुनौती कतई आसान नही थी। संगठन में नेतृत्व के स्तर पर व्याप्त गुटबाजी समाप्त कर सबको एक करने के लिए उनके पास समय भी बहुत कम था।15 वर्षों से जो पार्टी सत्ता से बाहर रही हो उसके कार्यकर्ताओं का खोया हुआ मनोबल भी वापस लौटाना मुश्किल काम था ,परंतु कमलनाथ ने अपनी चिर- परिचित कार्यशैली के बल पर सारी चुनौतियों से पार पा ही लिया। कांग्रेस का सत्ता से डेढ़ दशक का निर्वासन समाप्त करने में कमलनाथ ने अहम भूमिका निभाई थी ,इसलिए मुख्यमंत्री का पद तो उन्हें मिलना ही था।
दरअसल जिस दिन उन्हें अध्यक्ष पद की बागडौर मिली थी ,उसी दिन राजनीतिक पंडितों को यह अहसास हो गया था कि आगामी चुनावों के बाद न केवल सत्ता परिवर्तन सुनिश्चित होगा बल्कि उनके लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी कमलनाथ को मिलने की भविष्यवाणी करना भी कठिन नही था। कमलनाथ के नेतृत्व में जब कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी तब 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज भाजपा को यह भरोसा था कि राज्य में एंटीएनकम्बेंसी फेक्टर कितना भी प्रभावी क्यों न हो परंतु वह राज्य में चौथी बार भी भाजपा के सत्तारूढ़ होने की संभावना को धूमिल नही कर सकता, परंतु अदभुद क्षमता के धनी कमलनाथ जब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता की वापसी का संकल्प लेकर आगे बढे तो लोग जुड़ते गए एवं कारवां बनता गया।
अबकी बार दो सौ पार का अतिरंजित नारा देने वाली भाजपा चुनाव परिणामों के बाद सकते में आ गई ,परंतु कमलनाथ को तो परिणामों का भरोसा उसी दिन हो गया था जिस दिन उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद की बागडौर संभाली थी। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ के राजनैतिक केरियर का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ है। कांग्रेस को सत्ता की दहलीज पर पहुचाने की जितनी चुनौती थी अब उससे भी अधिक कठिन चुनौतियां उनके सामने है। कमलनाथ को करीब से जानने वालों को यह बात अच्छी तरह मालूम है कि चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करना उनका स्वभाव है। अपनी कार्यशैली के बल पर वे उस चुनौती से भी पार पाने में सक्षम है। मुख्यमंत्री बनते ही कमलनाथ अब एक्शन मोड में आ गए है। मंत्रिमंडल गठन के पूर्व ही उन्होंने जिस तरह ताबड़तोड़ फैसले लिए है ,उससे यह तो साबित होता है कि वे जनता के धैर्य की परीक्षा लेने में दिलचस्पी नही लेंगे।
कमलनाथ के सामने अब सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती यह है कि उन्हें 6 माह के अंदर ही ऐसी लोकप्रिय सरकार देना है जिसके प्रदर्शन के आधार पर कांग्रेस पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में जनता का समर्थन मांग सके। फिलहाल तो कमलनाथ ने जिस अंदाज में अपना काम शुरू किया है ,उसे अच्छी शुरुआत माना जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जिस तरह गुटबाजी पर विजय पाकर सभी को एकजुट करने में सफलता पाई थी उसे लोकसभा चुनाव तक बरकरार रखना उनकी पहली प्राथमिकता है। उन्हें प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में निर्मित वातावरण को औऱ मजबूत बनाना है। वे इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ है कि चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को मिले वोट प्रतिशत एवं सीटों में इतना अंतर नही है कि वे निश्चिंत होकर बैठ जाए। औऱ यह भी सच है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देना कांग्रेस के लिए आसान नही है। देश मे अभी भी यह मानने वालों की भरमार है जो यह मानते है कि प्रधानमंत्री पद को संभालने में अभी सबसे उपयुक्त व्यक्ति नरेंद्र मोदी ही है। इधर कमलनाथ भी राष्ट्रीय स्तर के नेता है। लोकसभा चुनाव में उनकी भूमिका प्रदेश की सीमाओं तक ही सीमित नही होगी। उन्हें लोकसभा चुनाव में भी राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में कांग्रेस की संभावनाओं को बलवती बनाने में अहम भूमिका निभानी होगी। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि राजस्थान मध्यप्रदेश औऱ छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हाइकमान ने जो मुख्यमंत्री मनोनीत किए है उनमें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष से सबसे अधिक निकटता कमलनाथ की ही मानी जाती है ,इसलिए लोकसभा चुनाव में पार्टी को उनसे ही सबसे ज्यादा आशाएं है।
प्रदेश में जहां तक विपक्षी दल के रूप में भाजपा से मिलने वाली चुनौतियों का सवाल है तो निश्चित रूप से यह सरकार के लिए आसान नही है। भाजपा सरकार के लिए चुनौती पेश करने में पीछे नही रहेगी। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो सरकार को यह संदेश दे दिया है कि टाइगर अभी जिंदा है इसका मतलब साफ है कि वे आराम की मुद्रा में बैठने वालों में से नही है। शिवराज सिंह केंद्र की राजनीति में जाने के इक्छुक नही है। वे विधानसभा में भी आक्रामक रुख अपनाने से पीछे नही हटेंगे । इसलिए कमलनाथ को अपनी सरकार के कामकाज को इतना दुरुस्त रखना होगा कि सरकार विपक्ष के हमलों को निष्प्रभावी करने में सफल हो सके। नई विधानसभा में कांग्रेस के 114 वही विपक्षी भाजपा के 109 विधायक जीतकर पहुचें है । इस तरह दोनो दलों के संख्या बल में ज्यादा अंतर नही है कि कमलनाथ निश्चिन्त होकर पांच साल गुुुजार सके।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह कह भी चुके है पांच साल पहले भी सत्ता में वापसी कर सकते है। कमलनाथ सरकार के लिए यह संतोष की बात हो सकती है कि 15 वर्षों से सत्ता के बाहर रहने के कारण विपक्षी भाजपा के पास उनके विरुद्ध बोलने के लिए कोई खास मुद्दे नही है। कमलनाथ के पास अब मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी आने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद की बागडौर किसी औऱ को सौंपना होगी। वे निश्चित रूप से यही चाहेंगे कि नए अध्यक्ष के साथ उनका सामंजस्य इतना अच्छा हो कि आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ता और संगठन मिलकर बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद को बलवती बना सके। कमलनाथ यह कभी नही चाहेंगे कि प्रदेश में सत्ता के दो केंद्र बने इसलिए अपनी पसंद के प्रदेश अध्यक्ष का चयन उनके लिए बेहद जरूरी होगा।
प्रदेश में भाजपा की पराजय के लिए किसानों की नाराजगी की भी बड़ी भूमिका रही है। किसानों के उस असंतोष का चुनावी लाभ लेने के लिए कांग्रेस ने सत्ता में आते ही कर्ज माफी का एलान किया था। राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यह ऐलान कर रखा था कि यदि दस दिनों में कर्ज माफी नही हुई तो वे मुख्यमंत्री बदल देंगे। कमलनाथ ने उस वादे पर तत्काल अमल कर शपथ ग्रहण करते ही कर्ज माफी के आदेश जारी कर दिया। इससे यह तो साबित होता है कि कमलनाथ अपने वादों को पूरा करने में कोई कसर नही छोड़ेंगे। हालांकि कर्ज माफी से किसानों के असंतोष पर विजय पाने का तात्कालीन उपाय तो हो सकता है,लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि उनके कदम से असंतुष्ट किसानों का एक नया वर्ग तो तैयार नही हो रहा है। किसानों की औऱ भी कई समस्याएं है जिसकी औऱ कमलनाथ को ध्यान देना होगा। सरकार के अस्तित्व में आते ही उसे यूरिया संकट से जूझना पड़ा। कमलनाथ ने कहा कि हम यूरिया संकट पर राजनीति नही करना चाहते ,परन्तु भाजपा इसके लिए हमे जिम्मेदार ठहराती है तो तो हमे किसानों को उनकी भी असलियत बतानी पड़ेगी । पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज ने कहा कि कमलनाथ को किसानों को पूरा कर्जा माफ करना चाहिए। जाहिर सी बात है कि अब भाजपा ,सरकार के विरुद किसानों के असंतोष को हवा देने में कोई कोर कसर नही छोड़ेगी।यूरिया संकट को लेकर जिस तरह से भाजपा कार्यकर्तों ने ग्रुप में प्रदर्शन किया उससे इस बात का संकेत मिलता है कि कमलनाथ को पूरे समय सजग रहना होगा।
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ ने प्रदेश में महिला अपराधों की रोकथाम में असफलता के लिए शिवराज सरकार की कटु आलोचना की थी। उन्होंने तो प्रदेश को दुष्कर्म प्रदेश का तमगा तक दे डाला था।अब सत्ता की बागडौर उनके हाथों मे है उन्हें अब इस कलंक का टीका मिटाना ही होगा। भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल में प्रदेश में बेटी बचाओ अभियान प्रारम्भ किया गया था और कन्या एवं महिलाओ के लिए विभिन्न योजनाए भी शुरू की थी। इन योजनाओं की चमक धीरे -धीरे कम होती गई । कई योजनाओ का क्रियान्वयन वास्तविक हितग्राहियो तक समुचित रूप से नही पहुचा । अब देखना यह है कि कमलनाथ सरकार इन योजनाओ को किस रूप में लागू करती है। कमलनाथ स्वयं भी उद्योगपति रहे है और पूर्व की केंद्र यूपीए सरकार में उद्योगमंत्री के पद की जिम्मेदारी कुशलतापूर्वक संभाल चुके है । इधर प्रदेश की उद्योगिक प्रगति के लिए देश -विदेश के बड़े औद्योगिक घरानों को प्रदेश में निवेश करने के लिए पिछली शिवराज सरकार ने 12 ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आयोजित की थी। कमलनाथ सरकार अब उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए क्या कदम उठाती है यह देखना भी दिलचस्प है ।
शिवराज सरकार के कार्यकाल के दौरान प्रदेश के बच्चो के कुपोषण की दर में व्रद्धि के लिए भी सरकार को आलोचना का शिकार होना पड़ा था। वर्तमान सरकार के सामने यह चुनौती कठिन है कि प्रदेश को इस अभिसाप से कैसे मुक्त कराये। गौरतलब है कि शिवराज सरकार के दौरान एक मंत्री ने तो अपनी ही सरकार को इस मामले में कठघरे में खड़ा किया था। ये सभी मामले ऐसे है जिससे पार पाकर ही कांग्रेस सरकार आगामी लोकसभा में भाजपा पर बढ़त बनाने में कामयाब हो सकती है। सरकार को पिछली सरकार के प्रति द्वेष भावना से प्रेरित होकर कोई कदम उठाने से भी परहेज करना होगा। लोकसभा चुनाव में सफलता के लिए कांग्रेस को अपने कार्यों के बल पर यह साबित करना होगा कि उसमे पिछली सरकार से भी बड़ी लाइन खींचने की क्षमता और सामर्थ्य दोनों है। गौरतलब है कि तीन राज्यों में चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह कहा कि वह पीएम मोदी व अमित शाह की तरह भाजपा मुक्त देश करने की बात नहीं कहेंगे। वैसे भी प्रदेश में भाजपा के पास जितना संख्याबल है उससे यह कल्पना ही बेमानी है ,परन्तु द्वेष में उठाया गया कोई भी कदम भाजपा के लिए अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने का कारण बन सकता है। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने वैसे तो स्पष्ट कहा कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नही करेगी ,परंतु पिछली सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए सरकार यदि अपने वादे अनुसार जन आयोग बनाती है तो वे इस आयोग के माध्यम से इस भावना पर कितना संयम रखती है यह भी उत्सुकता का विषय रहेगी।
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है))