नवरात्रि उपासना का महापर्व है। नवरात्रि में की गयी उपासना अनेक लाभ देती है। उपासना अर्थ है-समीप बैठना। सामीप्य अथवा उपसंग। जिसके समीप उपस्थित रहा जाएगा, उसकी विशेषता अपने में आ जाना स्वाभाविक ही होता है। जिस तरह बर्फ की पहाड़ियों के बीच बैठने से ऊष्णता प्राप्त होती है और आग के पास जाने से गर्मी।
फूलों की निकटता हमें सुगंधित होने का अहसास कराती है, तो वहीं गंदे नालों के पास दुर्गंध के कारण जाने से हिचकिचाहट होना स्वभाविक है। संपर्क अथवा उपस्थिति को गुण-दोषों की ग्राह्यता का बहुत बड़ा कारण माना गया है।
नवरात्रि साधना भगवान के निकट बैठकर उनके सामीप्य का लाभ लेने का सुनहरा अवसर है।
असंख्य लोग पूजा पाठ करते दिखलाई पड़ते हैं। वे ऐसा भी समझते हैं कि उपासना कर रहे हैं। बहुत से दूसरे लोग भी उन्हें उपासक मान बैठते हैं, पर उनकी यह उपासना वांछित फल के साथ सफल नहीं होती।
न तो उन्हें श्रेष्ठता मिलती है और न आत्म शांति। वे पूजा पाठ करने के बाद भी झूठ बोलते हैं और कई तरह के कुकर्म करते हैं। जिसके फलस्वरूप मन में न तो शीतलता और न ही संतोष की अनुभूति होती है।
उपासना में रहने वाला व्यक्ति परमात्मा के समीप ही रहता है और उसके परिणामस्वरूप उसकी विशेषताएं ग्रहण करता रहता है। परमात्मा सारी श्रेष्ठताओं और उत्कृष्टताओं का विधान है।
इसलिए वे गुण उस उपासक में भी आने और बसने लगता है। जो भी उपासना द्वारा परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करेगा, उसके समीप बना रहेगा, उसमें परमात्मा का गुण श्रेष्ठता का स्थानांतरण होना स्वाभाविक और निश्चित ही है।
आत्मा की श्रेष्ठता परमात्मा की उपासना से प्राप्त होती है। नास्तिक अथवा आध्यात्मिक व्यक्ति संसार का कोई भी वैभव, पदार्थ, भोग क्यों न प्राप्त कर लें, पर उसे सच्ची आत्मोत्कृष्टि नहीं मिल सकती है। इस संसार में जो कुछ शुभ, श्रेष्ठ, मंगलमय है वह सब उस परमपिता की विभूति है। उसी से सम्पन्न होती है और उसी में आश्रित है।
संसार की सारी श्रेष्ठताओं को परमात्मा का आभास ही माना गया है। आत्मा की श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए संसार के साधना की ओर न जाकर परमात्मा की उपासना करनी चाहिए।
सच्ची उपासना आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है। ऐसा करने पर, जिस प्रकार किसी प्रणाली द्वारा भरे जलाशय से खाली जलाशय का सम्पर्क हो जाने से वह उसके समान हो जाता है।
उसी प्रकार आत्मा द्वारा परमात्मा से संबंध बना लेने से परमात्मा की श्रेष्ठताएं मनुष्य में भी प्रवाहित हो जाती हैं, किन्तु इस माध्यम के बीच कोई व्यवधान रख दिया जाए, तो प्रवाह रुक जाएगा। जलाशय को जल और मनुष्य को श्रेष्ठता प्राप्त नहीं होगी।
जिस अनुपात में साधना के मर्म अंतस की गहराई में उतरती है, उसी अनुपात में वैयक्तिक प्रखरता और सामूहिक समर्थता की अभिवृद्धि होती है। सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। चेतना में उत्कृष्टता का स्तर बढ़ने लगता है।
साधना से ही अध्यात्म तत्वज्ञान और साधना विधान की व्यावहारिक गरिमा प्रकट होती है। यह प्रतिफल ऐसे हैं जिन्हें अपनाए जाने पर मनुष्य में देवत्व का उदय होना सुनिश्चित है। जहां सज्जनता बढ़ेगी वहां अपनी इसी धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण चहुंओर दिखाई देगा।