शोषण के विरोध के नाम पर सामंतों, नवाबों और राजघरानों को पालते रहने वाली कांग्रेस अब काल के गाल में समा रही है। पूंजीवादी बयार ने कांग्रेस को मटियामेट कर दिया है और भारतीय जनता पार्टी को अपने सर आंखों पर बिठा लिया है। जो भाजपा कभी एकात्म मानवतावाद की पुरजोर वकालत करती थी वो आज सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के आर्थिक हितों की वकालत कर रही है। वह सत्ता की बागडोर देश के करोड़ों पूंजी निर्माताओं के हाथों थमा रही है। भाजपा के यही सत्प्रयास कांग्रेस को धूल धूसरित कर रहे हैं।
स्वाधीनता संग्राम के दौर में शोषित पीड़ित देशवासियों का दिल जीतने के लिए कांग्रेस ने सामंतवाद के खिलाफ शंखनाद किया था। वह आज भी उसी घिसे पिटे रिकार्ड को बजा रही है। जिन शोषकों को वह गरीबी हटाओ के नारे के शोर में संरक्षण देती रही आज वे भी कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। इसकी वजह ये है कि पूंजीवाद की आंधी ने उनमें अधिक मुनाफे की होड़ जगा दी है। जो मुनाफा उन्हें कांग्रेस की दुहरे चरित्र वाली नीतियों के बीच मिलना संभव नहीं था।
इधर भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक खुद आश्चर्यचकित हैं कि आखिर ये हो क्या रहा है। वे जिस मिट्टी को उठाते हैं वह सोना क्यों बन जाती है। कुछ इस बदलाव के लिए खुद अपनी पीठ ठोक रहे हैं तो कुछ इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व को शाबासी दे रहे हैं। रूस में जिस गोर्वाच्योव ने ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोईका का शंखनाद किया था वही बाद में बोरिस येल्तसिन के हाथों सत्ताच्युत हुए। इसकी वजह थी मुनाफे की वह होड़ जिसका स्वाद बरसों तक बंदिशों में रहने वाले रूस के उद्योगपति और कारोबारी चख चुके थे। कमोबेश हिंदुस्तान में भी यही कहानी दुहराई जा रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के कार्यकाल में वर्ष 1991 में जब वित्तमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने देश को पूंजीवाद के मार्ग पर अग्रसर किया था तब लोगों ने उनके प्रयासों की निंदा की थी। बरसों तक नेहरू युग की कुंठित नीतियों के आदी हो चले हिंदुस्तानियों को आजाद ख्याल पूंजीवाद के नाम से डर लगता था। लेकिन आज उस बदलाव के लगभग पच्चीस साल होने पर हालात बदल गए हैं। देश के पूंजी निर्माताओं को महसूस होने लगा है कि कांग्रेस की नीतियों ने उन्हें कितने लंबे समय तक बेड़ियों में जकड़कर रखा। जिस मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए देश में पूंजीवाद के तमाम रास्ते तैयार किए वे स्वयं कांग्रेस की कुंठित नीतियों के कारण खुद को असहाय महसूस करते रहे। जाहिर था कि देश के सामने सिर्फ एक विकल्प था कि देश को पहले कांग्रेस मुक्त बनाया जाए।
जब तक देश की जनता कांग्रेसी नीतियों के जाल में फंसी रहेगी तब तक इस मुल्क की कायापलट संभव नहीं है। अपने कार्यकाल के अंतिम दौर तक डाक्टर मनमोहन सिंह भी समझ चुके थे कि कांग्रेस के बोए जातिवादी आरक्षण, अक्षम सरकारीकरण, कोटा परमिट लाईसेंसी राज, इंस्पेक्टर राज, लालफीताशाही, और प्रगति पर ब्रेक लगाने वाले तंत्र के रहते देश पूंजी निर्माण के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता है।
जाहिर था कि नीतिगत रूप से कांग्रेस के भीतर से ही कांग्रेस के खिलाफ विद्रोह के स्वर फूट पड़े। आज राहुल सोनिया अलग थलग पड़ गए हैं। कांग्रेसी ही उनके खिलाफ खड़े हैं, या कहा जाए कि वे बेमन से हाईकमान का साथ दे रहे हैं। जाहिर है कि इन हालात में भाजपा का अश्वमेघ यज्ञ निर्विघ्न चल रहा है।
मध्यप्रदेश में नगरीय निकायों के चुनावों में शहरी इलाकों में भाजपा ने जिस तरह जीत का परचम फहराया उससे तो प्रदेश पर कांग्रेस मुक्त राज्य होने का ठप्पा लग गया है। सभी चौदह नगर निगमों में भाजपा का परचम फहरा रहा है। अब अगले चरण में होने वाले पंचायतों के चुनावों में भी जिस तरह कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने के आसार दिख रहे हैं उससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कांग्रेस मुक्त देश का आव्हान सफलता पाता नजर आने लगा है। दरअसल मध्यप्रदेश में अभी इस मोर्चे पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कांग्रेस की सरकारों ने स्वतंत्र विचारों पर अंकुश लगाने के लिए भोपाल में एक ब्रेकिंग तंत्र बना रखा था। आम जनता को गरीब बताकर उन्हें मुक्ति दिलाने की आशा जगाने का प्रयास करने वाली कांग्रेस ने पत्रकारों को मजदूर बताकर उन्हें वाजिब मुनाफा दिलाने का स्वप्न दिखाया।
आज आजादी के 67सालों बाद भी मजदूर पत्रकारों को उनका हक नहीं मिल सका तो उसकी वजह केवल कांग्रेसी नीतियां ही रहीं हैं। भाजपा की सरकारों ने उन नीतियों को ताक पर रखकर पत्रकारों की दशा सुधारने के प्रयास जरूर किए लेकिन उन्होंने भी कांग्रेसियों के कुचक्र तंत्र का वध नहीं किया। इसकी वजह थी कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कथित राजनैतिक मार्गदर्शक सुंदरलाल पटवा उन्हीं कांग्रेसी नीतियों से जीवन पाते रहे थे जिनसे कांग्रेसी अपने विरोधियों को पटखनी देते रहे हैं।
सुंदरलाल पटवा जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उन्हें जनता से ज्यादा कांग्रेस के नेताओं का समर्थन प्राप्त था। जाहिर था कि जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता संभाली तो पटवा जी ने उन्हीं कांग्रेसियों और उनकी नीतियों को बरकरार रखने में ही अपनी सरकार की खैरियत समझी।मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सत्तासीन होने के तुरंत बाद जब श्री पटवा से कहा गया कि अब तो आपकी सरकार आ गई है। पत्रकार भवन से षड़यंत्रकारियों को हटाकर यहां स्वस्थ पत्रकारिता की अलख जगाई जाए तो उन्होंने जवाब दिया कि हम अपनी सरकार चलाएं कि इस पचड़े में जाकर फंसें। जाहिर था वे इस गंदगी को साफ करने से साफ इंकार कर रहे थे।
कांग्रेस ने स्वतंत्र विचारों का गला घोंटने के लिए पत्रकार भवन में जिन सत्ता के दलालों को बिठा रखा था उनके पिछवाड़े डंडा कुदाने में आज भी भाजपा की सरकार संकोच कर रही है। सत्ता के वे दलाल आज खुद को पाक साफ बताने के लिए तरह तरह के षड़यंत्र रच रहे हैं। मध्यप्रदेश की पत्रकारिता को असहाय बनाने वाले इस आपराधिक तंत्र के खिलाफ सबसे सफल शंखनाद अपराध पत्रकारिता करने वाले अमर शहीद पत्रकार अनिल साधक ने किया था।
उन्होंने पत्रकारों से गद्दारी करने वाले षड़यंत्रकारियों को न केवल बेनकाब किया बल्कि उन्हें उसकी औकात भी दिखाई। ये दुर्भाग्य ही था कि इसी तनाव के बीच उनका असामयिक निधन हो गया। तब उनके समर्थन की दुहाई देने वाली भाजपा की सरकारें पिछले ग्यारह सालों से पत्रकारों के खिलाफ षड़यंत्र रचने वाले इस तंत्र को मटियामेट करने का फैसला नहीं ले पाई हैं। सरकार की इसी झिझक की आड़ लेकर एक कुचक्री ने तो अपने छर्रों के माध्यम से अपने बेटे को स्व. अनिल साधक स्मृति अपराध पत्रकारिता का पुरस्कार भी दिलवा दिया। ये काम वैसा ही है जैसे महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोड़से के वंशजों को महात्मा गांधी शांति पुरस्कार दे दिया जाए।
गद्दारी की गोद में पलने वाले जिस शख्स ने कभी सामाजिक अपराधों के खिलाफ लड़ाई न लड़ी हो उसे आखिर अनिल साधक स्मृति पुरस्कार कैसे दिया जा सकता है। दिया भी जाए तो उसका क्या औचित्य होगा। इस तरह के पुरस्कारों पर सरकार और उसकी पुलिस खामोश रहे तो ये एक तरह से अपराध तंत्र को सुविधाजनक पैसेज देना ही कहलाएगा।
पत्रकार भवन समिति के वर्तमान पदाधिकारियों ने पत्रकार भवन की लीज लौटाकर सरकार को एक सुनहरा अवसर प्रदान किया है कि वह पत्रकारों और स्वस्थ संवाद के पक्ष में कोई फैसला करे। सर्वश्री अवधेश भार्गव, राधावल्लभ शारदा, पत्रकार भवन समिति के अध्यक्ष एनपी अग्रवाल जैसे पदाधिकारियों ने साहस के साथ स्वस्थ पत्रकारिता का परचम फहराने का सराहनीय कार्य किया है।
विगत 30 जनवरी को भोपाल के दशम व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 2श्री विपेन्द्र सिंह यादव ने स्थगन आदेश पारित किया जिसमें कहा कि पत्रकार भवन समिति के कामकाज में हस्तक्षेप से उसे अपूरणीय क्षति हो सकती है इसलिए न्यायालय के कोई और आदेश होने तक कोई भी पक्ष इसके कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। अब समिति के अध्यक्ष एनपी अग्रवाल ने सरकार को भवन की लीज लौटाकर उस स्थान पर नया पत्रकार भवन बनाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। सरकार चाहे तो नया ट्रस्ट बनाकर मध्यप्रदेश की पत्रकारिता को परिणाम मूलक और जनोपयोगी बनाने का नया इतिहास लिख सकती है।
पत्रकारों के कई संगठन और वरिष्ठ पत्रकार बरसों से प्रयास कर रहे हैं कि ये भवन आम पत्रकारों की गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जाए। वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा ने तो विभिन्न पत्रकार संगठनों और सरकार के बीच चर्चा का मार्ग प्रशस्त करके गुत्थी सुलझाने की पहल भी की। पर अब वक्त आ गया है जब कांग्रेस की शोषणकारी नीतियों का अंत हो। कल्याणकारी पूंजीवाद को बुलंद करने वाली शैली का सूत्रपात हो। भारत माता का वैभव अमर बनाने के लिए भोपाल में ऐसा संगठन स्थापित किया जाए जो गांव गांव और शहर शहर में विकासवादी नीतियों को लेकर जन शिक्षण करे।
मध्यप्रदेश के साढ़े छह करोड़ लोग यदि कृषि उत्पादन के नए कीर्तिमान बना सकते हैं तो वे क्या पूंजी निर्माण का जनांदोलन नहीं खड़ा सकते। निश्चित तौर पर इस दिशा में किए जाने वाले प्रयास पूंजी उत्पादक तो साबित ही होंगे बल्कि इसे संरक्षण देने वाली सरकार की शान भी बढ़ाएंगे। जरूरत है कि मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार अपने सुधारात्मक प्रयासों को गति दे और प्रदेश में नए जनसंवाद की इबारत लिखे।
लेखक –आलोक सिंघई-
लेखक जन न्याय दल के मध्य प्रदेश प्रवक्ता भी हैं