देश मे इस समय पंचायत चुनावो का दौर चल रहा हैं । वही पंचायत चुनाव जिसे लोकतन्त्र की सबसे निचली कडी के रुप मे जनता से सीधा जुडाव का साधन माना जाता हैं । कहा जाता हैं कि परिवर्तन समाज का नियम हैं शायद इस बात को हमारी चुनाव व्यवस्था ने कुछ ज्यादा ही अच्छे से समझ लिया हैं तभी तो अब पंचायत चुनाव तक में बडा परिवर्तन देखने को मिल रहा हैं और परिवर्तन भी ज्यादा अच्छे रुप मे नहीं हो रहा हैं ,भष्ट्राचार के रुप मे सामने आ रहा हैं । अगर इस परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य को देखेगे तो यह परिवर्तन किसी भी तरह से समाज के अनुकूल नहीं लग रहा हैं ।
पंचायत चुनाव की स्थिती पंचायत चुनाव जैसी न होकर लोकसभा या राज्सभा चुनाव जैसी होती जा रही हैं । सबसे निचली ईकाई के होने वाले चुनाव भी अब भष्ट्राचार की चपेट मे आ गए हैं । भष्ट्राचार भी ऐसा वैसा नही , ऐसे-ऐसे हैं जो हमारे समाज को अचम्भित कर देते हैं ।पंचायत चुनाव के समय गांव के हालात ऐसे हो जाते हैं कि लगता हैं कि मानो गांव का हर घर दीवाली मना रहा हैं ।
पंचायत चुनाव मे जिस तरह पैसो का लेन-देन सार्वाजनिक रुप से प्रयोग बठता जा रहा हैं और प्रशासन आंख बंद करके इसे नजर अन्दाज कर देती हैं ,वे चिन्ता की बात हैं । पंचायत चुनाव के उम्मीदवार द्वारा जिस तरह गांवो मे हर घर मे पैसा बांटा जाता हैं उससे तो गांव मे कुछ समय के लिये तो हर घर दीवाली जैसी खुशियां मनाता दिख जाता हैं लेकिन बाद मे गांव आगे बठने के स्थान पर पीछे बठने लगता हैं ।पैसो के इस बंटवारे के लिये केवल उम्मीदवार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता हैं क्योकि इसमे बहुत हद तक स्थानीय जनता भी जिम्मेदार हैं।
जब तक जनता पैसा ही नही लेगी और पैसो के बल पर वोट ही नही देगी तब तक ये लोग आखिर क्यो जनता के वोट को पैसो से खरीदने का प्रयास करेगे । जनता वोट के बदले पैसा लेकर लोकतन्त्र को को हर बार ठेंगा दिखाती हैं और फिर अगले चुनाव तक के लिये रोना –रोना शुरु कर देती हैं कि गांव का विकास नहीं हो रहा हैं । जनता को इस बात को समझना होगा कि पैसा लेकर वे चार दिन की चान्दनी का मजा तो ले सकती हैं लेकिन उसे फिर से उसी अन्धेरी रात मे रहना हैं जिस मे वे लम्बे समय तक रहती आ रहीं हैं ।
पंचायत चुनाव मे जिस तरह महिलाओ का प्रयोग अपना स्वार्थ साधने के लिये किया जाता हैं और उनका प्रयोग केवल उम्मीदवार के भर किया जाता रहा हैं। और चुनाव जीतने के बाद उन महिलाओ की स्थिती ऐसी हो जाती हैं कि वे अपने क्षेत्र का क्या अपना ही विकास नही कर पाती हैं । सरकार द्वारा महिला उम्मीदवारो की सींट सुरक्षित कर देने से भर से सरकार को यह सोचकर निश्चित नही बैठना चाहिये कि महिलाएं भी लोकतन्त्र मे अपनी भागीदारी दे रही हैं । सरकार को जमीनी स्तर पर भी सोचना होगा कि आदेश का कहाँ तक पालन हो रहा हैं ? या आदेश को केवल ठेंगा दिखाने का काम किया जा रहा हैं ।
गांव की जनता को समझना चाहिए कि अगर वे वाकई मे गांव का निकास चाहते हैं तो सांसद व विधायक से उम्मीद लगाने से रहले वे अपने पंचायत के उम्मीदवार से उम्मीद लगाये जिसका वाकई मे गांव के विकास मे बहुत बङा योगदान हो सकता हैं । पंचायत चुनाव तो अब बस नाममात्र के चुनाव जैसे होने लगे हैं क्योकि वोट तो पहले से ही सुनिश्चित कर लिये जाते हैं कि कौन किसको वोट देंगा और कौन किसको ? जेल से निकल कर आया हुआ अपराधी भी बङी-बङी ईमानदारी की बाते करने लगता हैं और ईमानदारी को भी बदनाम करने लगता हैं और तो और जनता को ईमानदारी का ऐसा पाठ पठाने लगता हैं कि जनता भी आंख पर पट्टी बांधकर वोट देने चली जाती हैं । जिस तरह चुनावो मे शराब का प्रयोग होता हैं ,उससे ठोकोदारो को होने वाले लाभ और जनता को होने वाली हानि पर कोई कुछ नहीं बोलता हैं ।
इतनी धांधली होने पर भी आखिर ये चुनाव कैसे पूरे हो जाते है ? इस पर सब सवाल उठते आ रहे हैं और आखिर उठाये भी क्यो न जिस चुनाव की निगरानी की पूरी जिम्मेदारी जिन लोगो पर होती हैं वे ही पूरे चुनाव मे धांधली मे सहयोग करते हैं । आखिर धन की जो बात ठहरी । धन देश ,समाज से ऊपर उठता जा रहा हैं और लोकतन्त्र की कमान थाम रहा हैं । पंचायत चुनाव मे होने वाला यह भष्ट्राचार और अधिकारियों की लापरवाही से बठती धांधली कोई नई बात नहीं हैं पर जनता को भी अब समझना होगा कि केवल चुनाव के वक्त मिलने वाले पैसो से वोट देकर वे उम्मीद की चान्दनी तो खरीद सकते हैं पर बाकी पूरे समय के लिये वे अपने गांव के विकास और अपने भविष्य को अन्धेरे मे ठकेल रहे हैं । इसिलीये इस बार वे अपना वोट पैसा देकर न बल्कि उम्मीदवार की योग्यता देखकर दे । -DEMO -PIC
लेखिका – सुप्रिया सिंह
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