कश्मीर को धारा 370 का कवच अब नहीं मिलेगा। केंद्र सरकार के इस फ़ैसले का शायद ही कोई विरोध करेगा।दशकों से कश्मीर इस कारण ख़ोल से बाहर नहीं निकल रहा था और इन्ही बंद दरवाज़ों के चलते विकास की बयार वहाँ नहीं पहुँच रही थी। इस बात को समझने में अभी समय लगेगा कि दरअसल इस धारा के चलते कश्मीर के लोगों ने अपना बहुत नुक़सान भी किया है। कश्मीर के नाम पर केंद्रीय मदद और स्थानीय सियासत के दाँव पेंचों में उलझे वहाँ के लोग दो पाटों के बीच पिस रहे थे।
इसका भरपूर फ़ायदा पाकिस्तान ने उठाया है। विडंबना है कि कश्मीर के दलों को छोड़कर कमोबेश सारे राजनीतिक दल अंदरख़ाने इस संवैधानिक प्रावधान के विरोध में थे ,लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का साहस कोई नहीं जुटा पाया। भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अगर यह निर्णय लिया है तो इसका राजनीतिक लाभ उसे क्यों नहीं मिलना चाहिए ? अगर आयरन लेडी इंदिरा गांधी के बैंक राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स समापन , बांग्लादेश निर्माण ,सिक्किम का विलय और पंजाब में आतंकवाद के ख़ात्मे का फ़ायदा कांग्रेस को मिला है तो मोदी सरकार भी इसकी हक़दार है।
अक्सर यह कहा जाता है कि 1947 में कश्मीर विलय के समय इस धारा के ज़रिए घाटी को जोड़ने का फ़ैसला ग़लत था। सियासत में काल खंड के हिसाब से स्थितियाँ बदलती रहती हैं। जब बारह अगस्त 1947 को कश्मीर के राजा हरिसिंह हिंदुस्तान और पाकिस्तान से कह चुके थे कि वे अपनी रियासत का विलय न पाकिस्तान में करेंगे और न हिंदुस्तान में तो भी हमने स्वीकार कर लिया था। अलबत्ता पाकिस्तान के मन में कपट पहले दिन से था। कबाइली हमले के पीछे पाकिस्तान की मंशा भी यही थी कि हिंदुस्तान के कश्मीर से अलग होने का लाभ उठाकर वह बलूचिस्तान की तरह कश्मीर पर भी क़ब्ज़ा कर सकता है।
अगर उसकी मंशा पूरी हो जाती तो कल्पना करिए कि एक तरह से भारत की गरदन पर उसका क़ब्ज़ा हो जाता। फिर दिल्ली उसके लिए कितनी दूर रह जाती। दूरगामी ख़तरे को भाँपते हुए तत्कालीन सरकार ने अगर कश्मीरियत की पहचान के नाम पर इस धारा को जोड़ा तो इसमें अनुचित कुछ नहीं था। उस समय भी कश्मीर के प्रतिनिधियों को कुछ शंकाएँ थीं। जब 370 का प्रावधान हुआ तो वे शंकाएँ समाप्त हो गईं। इसी कारण संविधान में इस धारा की शुरुआत में ही इसे अस्थाई बताया गया था।
इस हक़ीक़त से कौन इनकार कर सकता है कि देश – निर्माण के समय जितनी रियासतों के साथ विलीनीकरण समझौते किए गए ,वे वास्तव में सौ फ़ीसदी अमल में कभी आने वाले नहीं थे। वे विलीनीकरण के अस्थाई तंतु थे ,जो दुर्घटना के बाद लगे टाँकों के धागों की तरह भारत की देह में घुल मिल गए। कश्मीर में ऐसा नहीं हो सका क्योंकि 13000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र पाकिस्तान ने हड़प लिया था और उस हिस्से में किसी घुलनशील धागे से टांका नहीं लगाया जा सका था। रह रह कर दर्द का उठना और मवाद का रिसना कश्मीर की नियति बनी रही।
बहरहाल ! इस ऐतिहासिक क़दम के बाद भी भारत की राह आसान नहीं है। नए ढाँचे में अब कश्मीर की पूरी ज़िम्मेदारी केंद्र पर आ गई है। इसलिए उसकी कामयाबी की गारंटी भी उसे ही देनी पड़ेगी। इसके लिए उसे अनेक स्तरों पर काम करना होगा। सबसे पहले पाकिस्तान के प्रोपेगंडा और आतंकवादी घटनाओं पर पूरी तरह अंकुश लगाना आवश्यक है।
सीमा पार से किसी भी क़ीमत पर उग्रवाद रोकना ही होगा। अगर यह संक्रामक वाइरस फैलता रहा तो कश्मीर के लोगों का दिल जीतना कठिन हो जाएगा। दूसरा काम तेज़ गति से बुनियादी ढाँचे के विकास का है। नौजवानों को कश्मीर में ही सौ फ़ीसदी रोज़गार देना पड़ेगा।
विकास का होना जितना ज़रूरी है ,उससे अधिक आवश्यक है विकास का दिखना। इससे इस सचाई को स्थापित करने में सहूलियत होगी कि असल में 370 कश्मीरी अवाम के हित में नहीं थी। हर हाथ को काम और भरपूर दाम इस ख़ूबसूरत इलाक़े में शांति का सबूत है। इसके बाद कश्मीरी पंडितों की घर वापसी भी अत्यंत अनिवार्य है।
अब उनके पुश्तैनी घर तो रहे नहीं। लिहाज़ा उनके अपने शहर,गाँव और क़स्बे में एक नई टाउन शिप बनाना और उसके बाद ही बसाने का काम प्राथमिकताओं की सूची में सर्वोच्च स्थान पर होना चाहिए। कश्मीर के कुटीर उद्योग दशकों तक वहां की अर्थ व्यवस्था का आधार रहे हैं।
उन्हें फिर ज़िंदा करना होगा। अन्य राज्यों के नौजवानों की तरह कश्मीर का युवा भी इसी सोच का है। अगर अपने घर में उसे दस हज़ार रुपये महीने की नौकरी मिलेगी तो वह पच्चीस हज़ार के लिए बाहर नहीं जाएगा। इस मन्त्र को हुकूमत समझे तो बेहतर। ध्यान देने की बात है कि अगर हम कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग कहते हैं तो उसे अभिन्न अंग बनाना भी पड़ेगा। यह ज़िम्मेदारी पाकिस्तान की नहीं है।
वरिष्ट पत्रकार राजेश बादल के फेसबुक से