हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के परिणामों ने यूं तो सारे विरोधी दलों को हताशा की स्थिति में पंहुचा दिया है,लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस को जो सदमा लगा है ,उससे उभरने में पार्टी को कितना समय लगेगा, यह कोई नहीं बता सकता। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी स्वयं भी अपनी परंपरागत अमेठी सीट से चुनाव हार गए है। अमेठी में शायद उन्होंने अपनी पराजय का अनुमान पहले से ही लगा लिया था, इसलिए वे दक्षिण के राज्य केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़ने का फैसला करने को विवश हो गए। निःसंदेह यह राजनीतिक रूप से बुद्दिमत्ता वाला फैसला था, अन्यथा वे सत्रहवीं लोकसभा में प्रवेश करने से भी वंचित रह जाते। अमेठी से हारकर उन्होंने जो प्रतिष्ठा धूमिल की है उसकी भरपाई वह कैसे व कब पाएंगे यह कहना मुश्किल है।
इस चुनाव में कांग्रेस के नौ पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी अपनी किस्मत आजमाई थी ,लेकिन उनमे से किसी को सफलता नहीं मिली। इनमे शीला दीक्षित, दिग्विजय सिंह ,सुशील कुमार शिंदे ,हरीश रावत एवं वीरप्पा मोइली का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। दिग्विजय सिंह ने जिस भोपाल सीट से चुनाव लड़ा था ,वह तो सारे देश में सुर्ख़ियों में रही थी। उनके सामने लड़ने वाली भाजपा प्रत्याशी प्रज्ञा भारती ने शुरू से ही इस चुनाव को धर्मयुद्ध माना था, जिसमे वह विजयी हुई है । लेकिन पुरे चुनाव के दौरान उनके बयानों ने खासा विवाद पैदा किया। उनके शौर्य चक्र प्राप्त शहीद हेमंत करकरे एवं नाथूराम गोडसे के महिमा मंडन के बयान ने तो भाजपा को भी बचाव की मुद्रा में ला दिया। गोडसे को देशभक्त बताने वाले बयान के बाद तो पीएम मोदी ने भी उन्हें माफ़ नहीं करने की बात कहकर लताड़ तक लगाईं।
हालांकि उन्होंने बाद में माफ़ी जरूर मांग ली लेकिन प्रज्ञा भारती के विवादस्पद बयानों के बाद भी यदि जनता ने उन्हें पसंद किया है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से ,न की उनकी वजह से। हालांकि उनके हिंदुत्व के चेहरे के कारण ही दिग्विजय सिंह को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। दिग्विजय सिंह ने अपने सॉफ्ट हिंदुत्व की विचारधारा को जनता के सामने रखने का भरसक प्रयास किया ,लेकिन वे प्रज्ञा को चुनौती नहीं दे सके। इधर मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जिस उम्मीदवार की हार ने सबसे ज्यादा चौकाया है ,वह है पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ,जो गुना में ऐसे प्रत्याशी से हारे है जो कभी उनका प्रतिनिधि हुआ करता था। सवा लाख वोटो से हुई यह हार अप्रत्याशित है जिसने प्रदेश कांग्रेस को गहरा झटका दिया है। सिंधिया तो अपनी हार से स्तब्ध रह गए है। कांग्रेस की लाज केवल छिंदवाड़ा में बची है ,जहां मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ ने जीत दर्ज की है। यदि कांग्रेस ने नकुल के स्थान पर किसी और को यहाँ से उतारा होता तो हो सकता था यहां भी परिणाम कांग्रेस की उम्मीद के विपरीत हो जाते ।
गत लोकसभा चुनाव में सदन की कुल सदस्य संख्या का एक दशांक भी नहीं जीत पाने के कारण कांग्रेस को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से वंचित रह जाना पड़ा था। ताजे परिणामों के आधार पर भी कांग्रेस वही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का सामना करने को मजबूर हो गई है। उसके बड़े-बड़े दिग्गज चुनाव हार गए है। अब ऐसे में यह सवाल उठ रहे है कि क्या कांग्रेस सदन के अंदर अपनी सीमित शक्ति के बावजूद आक्रामक विपक्षी दल की भूमिका को निभाने में समर्थ हो पाएगी। जिन विपक्षी दलों ने लोक सभा चुनाव में उससे गठबंधन करने से इंकार कर दिया था क्या वे कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकारेंगे। यहां यह बात याद रखने वाली है कि समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह याद ने तो गत लोकसभा की अंतिम बैठक में पीएम मोदी को पुनः प्रधानमंत्री बनने की शुभकामनाएं दे दी थी। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सपा व् बसपा का लोकसभा में रुख क्या होगा। फिर चुनाव के दौरान कांग्रेस एवं सपा बसपा के गठबंधन ने एक दूसरे पर अनेक तीखे आरोप लगाए थे। इससे जो कटुता पैदा हुई है वह आसानी से भुलाई नहीं जा सकती। अब इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस लोकसभा में भी अलग थलग दिखाई दे।
पिछले साल तीन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत से पार्टी फूली नहीं समा रही थी। उसे लग रहा था कि अब लोकसभा चुनाव में भी वह भाजपा को नाको चने चबाने के लिए विवश कर देगी परन्तु कर्नाटक सहित इन तीनों राज्यों में पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। केवल पंजाब ऐसा राज्य रहा जहां उसने अपनी प्रतिष्ठा को काफी हद तक बरकरार रखा ,परन्तु पंजाब सरकार के एक बड़बोले मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के कारण केवल पंजाब में ही नहीं बल्कि देश के उन हिस्सों में भी पार्टी को असहज स्थिति का सामना करने के लिए विवश होना पड़ा, जहां वह प्रचार के लिए गए थे। भाजपा को मिली प्रचंड जीत के बाद जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारे है और जहां पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है उन सरकारों को अब अस्थिर करने की कोशिशे तेज होना स्वभाविक है। अब देखना यह है कि उन राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी सरकारों को कैसे स्थिर रख पाते है।
खैर पार्टी की करारी हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की थी ,लेकिन हुआ वही जिसकी पूरी सम्भावना थी। पार्टी ने एकमत से उनके इस्तीफे को अस्वीकार कर दिया और उन्हें संगठन में बड़े फेरबदल तक के लिए उन्हें अधिकृत कर दिया। दूसरी और यह भी कहा जाए कि उनका इस्तीफा यदि मंजूर कर लिया जाता तो इस डूबते जहाज की कप्तानी करने का साहस कौन दिखाएगा। अब सवाल यहां यह भी उठ रहा है कि यदि राहुल गांधी के हाथों कांग्रेस की बागडौर आगे भी जारी रही तो पार्टी को क्या इससे बुरे दिन देखने पड़ेंगे। वैसे इस्तीफे के लिए राहुल के बयान की बात करे तो उन्होंने कहा कि अब किसी गैर गांधी को अध्यक्ष बनाया जाए तो फिर सवाल उठता है कि गांधी परिवार के इतर यदि किसी को अध्यक्ष बना भी दिया जाए तो वह परिवार से बड़ा तो हो नहीं सकता। वह अध्यक्ष बनेगा भी तो गांधी परिवार के आशीर्वाद से ही। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि किसी गैर गांधी अध्यक्ष का नेतृत्व आज की स्थिति में कांग्रेस के दिग्गज स्वीकार कर पाएंगे। अमरिंदर सिंह क्या गुलाब नबी आजाद की बात सुनेंगे? दिग्विजय सिंह या कमलनाथ कैप्टन या चिदंबरम को स्वीकार करेंगे? ऐसे नेताओं की सूची लंबी है ,जो एक दूसरे का नेतृत्व स्वीकार करने से परहेज करेंगे ,लेकिन ये सारे दिग्गज गांधी परिवार आगे कुछ नहीं कहेंगे। इसलिए फिलहाल तो अब गांधी परिवार और कांग्रेस को एक दूसरे का पूरक मानने में कांग्रेस सहित देश को हिचक नहीं होनी चाहिए।
इधर हार के बाद राज्यों के कांग्रेस संगठनों पर भी सवाल उठना लाजिमी है। इसे देखते हुए विभिन्न प्रदेशों के अध्यक्षों को हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश करनी चाहिए ,परन्तु सवाल यह उठता है कि वे पेशकश किसके सामने करे। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो स्वयं इस्तीफे की पेशकश कर चुके है। दरअसल कांग्रेस का मनोबल इतना गिर चुका है कि उसे वापस लाने का सामर्थ्य अभी किसी नेता में दिखाई नहीं दे रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि का मुकाबला करने की क्षमता जब राहुल गांधी में ही दिखाई नहीं दे रही है तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है। वैसे फिलहाल मोदी के करिश्मे के आगे सभी दलों में भी शून्यता ही दिखाई दे रही है। विरोधी दलों के जिन अध्यक्षों को अपने करिश्माई राजनेता होने की खुशफहमी है, वे भी केवल अपने राज्य तक ही सीमित है। इधर मोदी को लोकप्रियता में 2014 से ज्यादा बढ़ोतरी हो चुकी है।
पार्टी को मिली 300 से ऊपर सीटें इस बात का प्रमाण है। अतः अब कांग्रेस को पहले तो हार के सदमे से उभरना होगा और केवल मोदी पर हमले की नीति को उसे छोड़ना होगा। राहुल ने यदि मोदी पर हमले की बजाय संगठन के लिए देशभर में जमीन तैयार करने की कोशिश की होती तो ज्यादा बेहतर होता। सैम पित्रोदा व मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं के बयानों से भी नुकसान हुआ है। कांग्रेस को इतनी बत्तर स्थिति में पहुंचाने के जिम्मेदार ऐसे ही बयान है, जिस पर राहुल ने लगाम लगाने की कोशिश ही नहीं की। सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्टाएक पर जो सवाल उठाए गए ,उसने तो कांग्रेस और जनता के बीच की दुरी को बढ़ाने का ही काम किया। किसानों की कर्ज माफ़ी के मुद्दे को कांग्रेस ने भुनाना चाहा, लेकिन वह भी काम नहीं आया। इसने तो किसानों में और असंतोष को बड़ा दिया। भाजपा ने इसे छल के रूप के रूप में खूब प्रचारित किया और वह इसमें सफल भी रही। चुनावों के दौरान न्याय योजना से युवाओं को आकर्षित करना चाहा ,लेकिन वह यह बताने में असफल रही कि वह इसके लिए पैसा कहा से जुटाएगी।
कुल मिलकर कांग्रेस के सामने अगले पांच साल और अधिक कठिन हो इसकी संभावना ज्यादा है। कांग्रेस इन पांच सालों में यदि ऐसा कोई करिश्माई नेतृत्व पैदा कर सके जो प्रधानमंत्री मोदी को सही सही निशाना बनाने के साथ साथ संगठन को मजबूत करने में सफल हो सके तो वह हार के सदमे से उभर सकती है। खैर जैसा कि उल्लेख किया जा चूका है कि कांग्रेस गांधी परिवार की छत्रछाया से उभरने साहस नहीं दिखा सकती है। तो ऐसे में अब प्रियंका गांधी वाड्रा को कमान सौपने की मांग उठने लगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता है परन्तु प्रियका इसके लिए तैयार होगी इसमें संदेह है। दरअसल प्रियंका गांधी ने सक्रीय राजनीति में उतरने में बहुत विलम्ब कर दिया है और जब वह इसमें आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर भी उम्मीदों का एकमात्र केंद्र वही है। अब देखना यह है कि वह क्या निर्णय लेती है।
कृष्णमोहन झा
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)