गत वर्ष मई माह में कर्नाटक में कांग्रेस एवं जेडीएस के गठजोड़ से बनी कुमारस्वामी की सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में जब देश के 20 से अधिक भाजपा विरोधी दलों ने एक मंच सांझा किया था ,तब यह कयास लगने लगे थे कि इन दलों की यह मैत्री लोकसभा के चुनाव आते आते इतनी मजबूत हो जाएगी कि भाजपा के लिए राह मुश्किल हो जाएगी, लेकिन आज के हालात बिलकुल विपरीत कहानी कह रहे है। सभी दल अलग अलग राह पर है ,इससे मुश्किल प्रतीत होने जा रही भाजपा की राह अब आसान प्रतीत हो गई है। अब तो राजनीतिक विश्लेषक भी यह मानने लगे है कि भाजपा को पहले के मुकाबले बेहतर परिणाम मिलने की संभावना बढ़ गई है। एक तरह से कहे तो इन दलों की आपसी वैमनस्यता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में और इजाफा कर दिया है।
इधर चुनाव के नजदीक आते -आते भाजपा ने अपने सभी सहयोगियों को मनाकर अपने घर को व्यवस्थित कर लिया है। अब ऐस लगता है कि भाजपा उत्तरप्रदेश में सपा ,बसपा व रालोद के, महाराष्ट्र में एनसीपी व कांग्रेस तथा बिहार में राजद ,कांग्रेस ,हम एवं लोसपा की मैत्री से बहुत ज्यादा चिंतित नहीं है। इसके आलावा तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक से मैत्री एवं पश्चिम बंगाल में उसके धमाकेदार प्रवेश की संभावनाओं ने उसके मनोबल को काफी बड़ा दिया है। भाजपा के बुलंद हौसलों ने विपक्षी दलों को अब नए सिरे से रणनीति बनाने के लिए विवश कर दिया है। इसमें भी वे भ्रम का शिकार हो रहे है।
उधर कांग्रेस को अभी तक केवल महाराष्ट्र ,बिहार, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में ही भाजपा विरोधी दलों को साधने में सफलता मिली है। इसमें भी बिहार में कांग्रेस को राजद की शर्तें मानने के लिए विवश होना पड़ा है, वही उत्तरप्रदेश में गठबंधन का हिस्सा नहीं होने का भी उसे मलाल हो रहा है। उत्तरप्रदेश में गठबंधन के इन दलों ने कांग्रेस से इतनी दुरी बना ली है कि वह कांग्रेस द्वारा महागठबंधन के लिए छोड़ी गई 7 सीटों का अहसान लेने को भी तैयार नहीं है। महागठबंधन ने भी कांग्रेस को सम्मान देने के लिए सिर्फ उसके शीर्ष दो नेताओं राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी की अमेठी एवं रायबरेली की सीट छोड़ी है। कांग्रेस दिल्ली में भी सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी से गठबंधन करने को लेकर भ्रम का शिकार है। कांग्रेस के कुछ नेताओं को लगता है कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन कर वह उसे ही फायदा पहुंचाएगी। ऐसे में संगठन में समझौते को लेकर एकराय नहीं बन पाई । हालांकि उत्तरप्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका वाड्रा गांधी को महासचिव नियुक्त कर विशेष रूप से पूर्वी उत्तरप्रदेश की जिम्मेदारी सौपी है ,लेकिन प्रियंका शुरूआती दौर में अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा करने में जरूर सफल रही है किन्तु फिलहाल अब उनसे किसी भी तरह के करिश्मे की उम्मीद करना सही नहीं होगा। अतः शीर्ष नेतृत्व को अब इस कड़वी हकीकत का अंदाजा हो गया है कि उसके लिए 2019 में नहीं बल्कि 2024 में सत्ता में वापसी की संभावनाओं को तलाशना ज्यादा बेहतर होगा।
मौजूदा चुनाव में उत्तरप्रदेश में जो त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बनी है उसने भाजपा को जरूर गदगद कर दिया है। सपा ,बसपा गठबंधन में यदि कांग्रेस भी शामिल हो गई होती तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई होती। इसलिए भाजपा इस गठबंधन में कांग्रेस के शामिल नहीं होने को लेकर गदगद है। उत्तरप्रदेश में तो स्थिति है कि विरोधी दल अब भाजपा को नहीं ,बल्कि एक दूसरे को चुनौती दे रहे है। दक्षिण के राज्य आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस एकला चलों की नीति पर चलने को विवश है। तमिलनाडु में द्रमुक के साथ उसके समझौते से कोई चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पश्चिम बंगाल में तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कांग्रेस से इतना परहेज है कि उन्होंने तृणमूल के आगे से कांग्रेस शब्द ही हटा लिया है। ममता महागठबंधन को लीड करने के लिए इतनी आतुर है कि उन्होंने विपक्षी दलों की एक रैली का भी आयोजन कर लिया था, लेकिन इसमें शामिल 21 दलों के नेताओं ने उन्हें नेता मानने से इंकार कर दिया था। इधर बंगाल में मुकाबलें को चतुष्कोणीय बनाने के लिए भाजपा पहले से ही तैयार है। चतुष्कोणीय मुकाबले ने भाजपा को बंगाल में लगभग आठ सीटों पर जीतने की स्थिति में ला दिया है। बिहार में भाजपा को नीतीश कुमार एवं रामविलास पासवान को साधने के लिए कुछ त्याग अवश्य करना पड़ा, लेकिन इससे राजग को ही मजबूती मिली है। महाराष्ट्र में शिवसेना को मनाने में भाजपा को मिली सफलता भाजपा के साथ साथ शिवसेना के लिए भी फायदे का सौदा साबित होगी।
कुल मिलाकर चुनावी मुद्दे तय कर पाने में असफल विपक्ष अब यह मानने लगा है कि उसके लिए दिल्ली अभी दूर है। पुलवामा हमले के बाद वायुसेना की कार्यवाही पर सवाल उठाने से भी विपक्ष असहज स्तिथि में है। राफेल सौदे की धार भी अब कुंद पड़ चुकी है। मोदी सरकार ने इस साल पेश बजट में लगभग सभी वर्गों को संतुष्ट करने की जो चतुराई दिखाई है, उसका लाभ भी राजग को मिलना तय माना जा रहा है। इन सभी बातों के साथ विरोधी दलों ने एक सशक्त महागठबंधन नहीं बनाने में जो अरुचि दिखाई है ,उससे तो यही लगता है कि मानों ये दल भाजपा को 2014 से भी बड़ी जीत उपहार में देने का मन बना चुके है।
:-कृष्णमोहन झा
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)