CIO, PGIM इंडिया म्यूचुअल फंड
“यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे बुरा समय था” –
चार्ल्स डिकेंस के अ टेल ऑफ टू सिटीज की यह शुरुआती पंक्ति है और यह संभवत: बाजार के मौजूदा परिदृश्य को सटीक तरीके से बताती है. हमारे सामने तरक्की का लंबा रास्ता है, लेकिन वैश्विक सुस्ती, भू-राजनीतिक मसलों, ऊंची ब्याज दरों जैसे तमाम मसलों का शोर भी है. भारतीय बाजारों में करीब 18 महीने तक की तेजी के बाद पिछले एक साल में मिलाजुला रुख देखा गया.
बाजार उतार-चढ़ाव वाला रहा है, लेकिन इसके लिए यह कोई असामान्य बात नहीं है. एक एसेट क्लास के रूप में देखें तो इक्विटीज यानी शेयरों में ऊंचा जोखिम रहता है और इसलिए उतार-चढ़ाव तो इक्विटी निवेश का एक हिस्सा है. लेकिन इसमें एक अच्छी बात यह है कि जितनी लंबी अवधि तक निवेश बनाए रहें, उतार-चढ़ाव का तत्व सीमित होता जाता है. इसलिए दीर्घकालिक रूप में इक्विटी सर्वश्रेष्ठ एसेट क्लास हैं और लॉन्ग टर्म के लिए हम भारतीय बाजारों के लिए सकारात्मक बने हुए हैं.
यह सिर्फ इसकी वजह से नहीं है कि एक लंबे समय अवधि में उतार-चढ़ाव का असर सीमित हो जाता है, बल्कि इससे भी ज्यादा इस वजह से है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और यहां के कॉरपोरेट में तरक्की की बेहतरीन संभावनाएं हैं, स्थायी-मजबूत सरकार और नीतियों का दौर है तथा वैश्विक मंच पर पहले से काफी बेहतर स्थिति (जीडीपी के % में निर्यात सात साल के ऊंचे स्तर पर) है. इसके अलावा, हम जबरदस्त टैक्स कलेक्शन, बचत दर में सुधार और भारतीय कंपनियों के बहीखातों में सुधार देख रहे हैं. इन सबकी वजह से निवेश और खर्च की दर भी सुधरती है और अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर भी.
करीब पांच साल के अंतराल के बाद क्षमता इस्तेमाल 75 फीसद तक पहुंच गई है, जिसकी वजह से हम मध्यम अवधि में पूंजीगत व्यय में सुधार की जमीन तैयार होते देख रहे हैं.
अब इस पर बहस की जा सकती है कि खासकर विकसित देशों में मंदी या सुस्ती का असर कम रहेगा या व्यापक रहेगा, या महंगाई टिकने वाला होगा या कुछ समय के लिए. लेकिन कमोडिटीज और एनर्जी की कीमतों (ऊर्जा आयात का हिस्सा जीडीपी के 4 फीसद तक होता है) में कमी आई है जो कुछ राहत की बात है. हम पूरे भरोसे से यह नहीं कह सकते कि मार्जिन का दबाव कम हुआ है, लेकिन यह जरूर कह सकते हैं कि अब चीजें सही दिशा में जा रही हैं, कम से कम कमोडिटी उपभोग के मामले में.
हालांकि, कई ऐसे जोखिम हैं जिनका हमें ध्यान रखना होगा. पहला, अनिश्चित भू-राजनीतिक परिदृश्य और सप्लाई चेन की निरंतरता के मसले लंबे समय तक बने रहने वाले हैं. दूसरा, अब करीब एक दशक के कम ब्याज दरों और आसान नकदी के माहौल से ऊंची ब्याज दरों और नकदी में सख्ती वाले माहौल की तरफ बढ़ा जा रहा है. पहले जोखिम की वजह से महंगाई न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता है और हमने यह देखा है कि केंद्रीय बैंक सख्त मौद्रिक नीतियों से इस पर अंकुश के लिए कोशिश में लगे हुए हैं.
भारत में हमें कुछ और समस्याओं के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं- विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट आ रही है, व्यापार घाटा ऊंचाई पर है और रुपए में काफी कमजोरी है. महंगाई लगातार ऊंचाई पर बनी हुई है और पिछले करीब तीन तिमाहियों से यह रिजर्व बैंक के 6% के सुविधाजनक स्तर से ऊपर है. कई दूसरे देशों के मुकाबले हमने बेहतर प्रदर्शन किया है और हमारी ग्रोथ रेट भी बहुत अच्छी है, लेकिन अर्थव्यवस्था की इस अलग राह या बेहतरीन प्रदर्शन से जरूरी नहीं कि बाजार एक-दूसरे से जुड़े नहीं हों, भले ही प्रदर्शन कितना ही बढ़िया हो. इसलिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शॉर्ट टर्म में हमारे बाजार भी दूसरे बाजारों के साथ ही चलेंगे.
वैश्विक तरक्की में मौजूदा अनिश्चिचता के माहौल को देखते हुए बाजारों के लिए मौजूदा साल काफी चुनौतियों वाला हो सकता है. वैश्विक स्तर पर और भारत में ऊंची ब्याज दरों की वजह से शेयरों के वैल्युएशन में उस बढ़त पर जोखिम आ सकता है, जिसका हाल में भारतीय बाजारों को फायदा मिला है. इसके अलावा भारत के कई राज्यों में मानसून अनियमित रहने की वजह से खाद्य महंगाई भी ऊंचाई पर रहने की आशंका है.
किसी फंड हाउस में हर फंड मैनेजर अपने उत्पाद के मैंडेट के मुताबिक निवेश का तरीका अपनाता है. इसी तरह देखें तो हम आमतौर पर वित्तीय, औद्योगिक और कंज्यूमर डिस्क्रेशनेरी (जिसका नेतृत्व ऑटो करता है) सेगमेंट के लिए सकारात्मक नजरिया रखते हैं। वित्तीय सेगमेंट (खासकर बैंक) अब ऐसी स्थिति में हैं जहां कर्ज की मांग और उसकी उठाव बढ़ रही है।