क्या विधानसभा चुनावों में किसी गठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा भारत-पाकिस्तान के भौगोलिक-धार्मिक बंटवारे से भी ज्यादा जटिल और चुनौतीपूर्ण है? यह सवाल इसलिए कि महाराष्ट्र में हिंदुत्व की बुनियाद पर टिके भाजपा-शिवसेना गठबंधन के बीच आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे को लेकर जो खींचतान और आंखमिचौली चल रही है, उसे बूझना मुश्किल है। इस मामले में भाजपा की दबंगई और झांसेबाजी से हताश सहयोगी शिवसेना के प्रवक्ता और सांसद संजय राऊत को कहना पड़ा कि दोनो दलों के बीच सीटों का समुचित वितरण भारत-पाक के विभाजन से भी ज्यादा मुश्किल लग रहा है। पता नहीं कब होगा? होगा भी या नहीं ?
गौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों के लिए 21 अक्टूबर को वोट पड़ने हैं, लेकिन इसके पहले ही भाजपा-शिवसेना युति (गठबंधन) में अविश्वास की गहरी गांठ पड़ गई है। दोनो भगवान से एक-दूसरे को सन्मति देने की प्रार्थना कर रहे हैं। भाजपा शिवसेना के साथ मिलकर लड़ना तो चाहती है, लेकिन अपनी शर्तों पर। वह शिवसेना को सीटें देना तो चाहती है पर टुंगा- टुंगा कर।
वह शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाना तो चाहती है लेकिन झिका-झिकाकर। वह शिवसेना को साथ भी रखना चाहती है तो रूला-रूलाकर। इस मामले में हिंदुत्व के लोभान का धुंआ भी कुछ खास असर नहीं कर रहा। आलम यह है कि चुनाव हेतु नामांकन में 10 दिन बचे हैं, लेकिन कौन, कितनी और किन सीटों पर लड़ेगा, यही तय नहीं है। जबकि विरोधी कांग्रेस-राकांपा ने सियासी कंगाली के बाद भी चुनावी गठबंधन कर आधी-आधी सीटों का आसानी से बंटवारा कर लिया है।
पहले जरा 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व का सीन याद करें। तब चुनाव नतीजों को लेकर भीतर से आशंकित भाजपा शिवसेना को साथ ले-लेकर घूम रही थी। सात जन्मों के साथ की दुहाई दी जा रही थी। अदा यह थी कि बस एक बार फिर दिल्ली में गृहस्थी जम जाए, बाकी सब ठीक हो जाएगा। उस वक्त यह प्रचार भी खूब हुआ कि महाराष्ट्र राज्य में 6 माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में दोनो के बीच सीटों का ‘फिफ्टीा-फ्टी फार्मूला’ लागू होगा।
भाजपा और शिवसेना 135-135 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। बाकी 18 सीटें अन्य सहयोगी दलों के लिए छोड़ी जाएंगी। लेकिन लोकसभा चुनाव में गठबंधन द्वारा राज्य की 48 में से 41 सीटों पर जीत के बाद भाजपा की निगाहें बदल गईं। विजय का पूरा श्रेय भाजपा ने मोदीजी का हेड डालकर अपने खाते में लिख लिया। इस चुनाव में भाजपा 25 और शिवसेना 23 सीटों पर लड़ी थी। इसमें भाजपा ने 23 सीटें जीतीं, जबकि शिवसेना 18 सीटें ही जीत पाई। इस चुनाव में भाजपा को 28 और शिवसेना को 23 फीसदी वोट मिले थे। ऐसे में भाजपा ने माना कि उसका पलडा भारी है और वह विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे पर कड़ी सौदेबाजी पर उतर आई।
राज्य में पांच साल गठबंधन सरकार चलाने के बाद भाजपा का मानना है कि वह अब ड्राइविंग सीट पर है। और उसके साथ रहना शिवसेना की मजबूरी है। भाजपा का मानना है कि कश्मीर में धारा 370 हटाने और आर्थिक सुधार के उपाय विधानसभा चुनाव में भी उसके मददगार होंगे। उधर शिवसेना पुरानी दोस्ती की दुहाई देते हुए जिद पकड़े है कि उसे आधी सीटें और मुख्य मंत्री पद चाहिए। जबकि सूत्रों के मुताबिक भाजपा उसे 120 सीटों से ज्यादा देने को राजी नहीं है।
बीच में यह खबर भी आई कि दोनो के बीच 162-126 फार्मूले पर सहमति बन गई हैं। लेकिन उसकी पुष्टि नहीं हुई। बहरहाल भाजपा के तेवर ये हैं कि अगर सीटों का उसका फार्मूला मंजूर नहीं तो दोनो पार्टियां 2014 के विधानभा चुनाव की तरह अलग-अलग लड़कर किस्मत आजमा लें। भाजपा की कोशिश यही रहेगी कि वह अपने दम पर ही सरकार बना ले। यह मुमकिन न हुआ तो चुनाव बाद दोनो मिलकर फिर सरकार बना लेंगे।
शिवसेना की ज्यादा सीटों की मांग के पीछे तर्क हाल के लोकसभा चुनाव में विधानसभा क्षेत्रों में मिली बढ़त है।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 122 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी, जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में जीती सीटों के बराबर ही है। जबकि शिवसेना ने कम लोकसभा सीटें जीतने के बावजूद 105 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी। जो कि पिछले विधानसभा चुनाव में जीती 63 सीटों के मुकाबले दोगुनी से कुछ कम हैं। लिहाजा उसे इस विधानसभा चुनाव में भी बराबर की सीटें चाहिए। इसी के साथ शिवसेना राज्य का मुख्यंमंत्री पद भी चाहती है ताकि महाराष्ट्र में उसकी सरकार दिखे।
लेकिन यह मांग मुख्यंमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने पहले यह कहकर ठुकरा दी है कि सीएम पद तो पहले ही रिजर्व हो चुका। जाहिर है कि फडणवीस ही दोबारा सीएम बनने के प्रबल दावेदार हैं। वैसे भी उन्हें सीएम मोदी-शाह ने बनाया है और वे फडणवीस के माध्यम से महाराष्ट्र पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहेंगे।
तो क्या सचमुच महाराष्ट्र में सीटों का बंटवारा भारत- पाक बंटवारे से कठिन है या फिर ये केवल राजनीतिक झांसेबाजी और बढ़ती महत्वाकांक्षाअो का खेल है? दरअसल भाजपा अब सभी राज्यों में अपने दम पर सत्ता पर काबिज होना चाहती है। सत्ता की रोटी में से एक कौर भी सहयोगियों को देना अब उसे भारी लगने लगा है। भाजपा का तेवर यह है कि उसकी शर्तों पर शिवसेना साथ आना चाहे तो आए, वरना अकेली लड़ जाए। क्योंकि जनमत मोदी और भाजपा के साथ है। कहने को शिवसेना का प्रतीक चिन्ह शेर है, लेकिन हालात की हकीकत ने उसकी दहाड़ को मिमियाहट में बदल दिया है।
भारत-पाक के बंटवारे में पाक ने तो कश्मीर और रिजर्व बैंक के 55 करोड़ रू. के मुददे पर भारत को ब्लैकमेल कर लिया था, शिवसेना वैसा कुछ करने की स्थिति में भी नहीं है। ज्यादा अड़ी तो सत्ता में उतना शेयर भी नहीं मिलेगा, जितना बंटवारे के बाद भारत ने अपने हिस्से का कश्मीर बचा कर ले लिया था। अगर शिवसेना अकेले लड़ी तो उतनी सीटें भी शायद न मिल पाएं, जितनी पिछले विधानसभा चुनाव में मिली थीं।
कुल मिलाकर शिव सेना के पास मिली पंजीरी को मुकद्दर समझने के अलावा कोई चारा नहीं है। भाजपा शिवसेना के बीच सांस्कृतिक बंटवारे का भी सवाल नही है। फिर भी पेंच कायम है तो इसीलिए कि राजनीतिक खेल में बंटवारे भौगोलिक बंटवारे की तुलना में कहीं ज्यादा जटिल और अबूझ होते हैं।
अजय बोकिल
लेखक भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के संपादक है