2 अक्टूबर को देश विदेश में गांधी जयंती के रूप में मनाने की परिपार्टी वर्षो से चली आ रही है। उस दिन देश के कर्णधार, नेता और नागरिक गांधी समाधि पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और जगह-जगह पर गांधी जी का गुणानुवाद किया जाता है। यह सब कुछ औपचारिक रूप से होता है सिर्फ लकीरें ही पीटी जाती है। हममें से कितने हैं जो सोचते है। कि गाँधी व्यक्ति नहीं थे उन मूल्यों के प्रतीक थे जिन्होनें मानव और मानत जाति को जीने की कला सिखाई और मनुष्य को सादगी से रहना आडम्बर से दूर रहना और दूसरों की भलाई को अपनी भलाई मानकर सत्कर्म करना चाहिये।
उन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि का अपने जीवन में और अपने आश्रम में पालन करवाया। राजनीतिक का उनके लिए केवल इतना महत्व था कि वह राष्ट्रीय जीवनका एक अनिवार्य अंग था पर उन्होंने कहा कि व्यक्ति को और राष्ट्र को इसलिए स्वतंत्र होना चाहिए जिससे वह दूसरे के स्वेच्छा से अपने प्राणों का विसर्जन कर सके। स्वराज्य, अर्थात् आत्मसंयम की संज्ञा दी और सत्ता के ऊपर उन्होंने सेवा को आसीन किया। वह जानते थे कि सत्ता एक ऐसा नशा है जो व्यक्ति को मदहोश बना देता है सेवा आदमी को विनम्र और कर्तव्यनिष्ठ तथा धर्मनिष्ठ बनाती है। इसी से उन्होंने सेवाको सबसे ऊँचा स्थान दिया।
गांधी जयंती इस सबकी याद दिलाने को आती है। हम सब उनके संदेश को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने के आदी हो गए। आजादी के बाद इतने वर्षो में हमने जितना पाया है उससे अधिक खोया है। इंसान वह नहीं रहा अब वह भौतिक उपलब्धियां का मूल बन गया है।
गांधी जी से जब किसी व्यक्ति ने संदेश मांगा तो उन्होंने कहा कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। उनका यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके कहने का अभिप्राय यह था कि अपने जीवन को इस तरह ढालना चाहिए अर्थात् मनुष्य को कथनी, करनी और बोलने में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए।
आज की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि आदमी कहता कुछ है, करता कुछ है और बोलता कुछ है। इसी से वर्तमान विकृतियाँ उत्पन्न हुई है।
गांधी जी भारत की आत्मा के प्रतिनिधि थे। वह चाहते थे कि उनका देश नीति निष्ठावान बने और अपने आचरण से विश्व के सम्मुख एक उदाहरण प्रस्तुत करें किन्तु उनका मार्ग साधन का मार्ग था और इस साधन का मार्ग बड़ा कठिन होता है। देश उस मार्ग पर नहीं चल सका और बड़ी तेजी से गांधी मार्ग से दूर होता गया।
गांधी जी ने सादगी अपनाने की प्रेरणा दी थी, देश आडम्बर में लिप्त हो गया। गांधी जी ने सात्विकता पर जोर दिया था, देश अब भोगों में लीन हो गया। गांधी जी ने एक विशाल परिवार की कल्पना दी थी। आज छोटे-छोटे परिवार दायरों और संकीर्ण स्वार्थों में डूब गये हैं।
गांधी जी ने अपनी चादर के अनुसार पैर फैलाने को कहा था।
इस अवनी पर हुए राम, घनश्याम तथागत,
इस अवनी से किया व्यास तुलसी का स्वागत शंकर शिवा प्रताप, सुकुतरत जिस अवनी पर गांधी ने भी धन्य बनाया उसको आकर सोरठ में विख्यात पोरबंदर की धरती प्रथित सुदामापुरी-दर्शकों के मन हरती हुए श्याम के भक्त सुदामा किसी काल में गांधी जी अवतरे वही इसी काल में विक्रम शत पंच विशति संवत्सर दो अक्टूबर साल अठारह सौ उनहत्तर द्वादश अश्विन कृष्ण हुआ दिन पगलदाता पुत्र रत्न पा धन्य हो गयी पुतली माता करम चन्द दीवान वैश्व कुल के भूषण थे आस्पद गांधी रहा चरित्र बल के भूषण थे साक्षरता थी स्वल्प व्यावहारिकता भारी जन्में मोहनदास उन्हीं के सुत अवतारी।