कृषि सुधारों के विरोध की जडे भी पंजाब और हरियाणा से जुड़ी है जहां केंद्र सरकार एमएसपी पर गेहूं और धान की भारी खरीद करती है। इसमें आढ़तियों को लुभावने एमएसपी पर 2.5 प्रतिशत की आमदनी तय है। केवल पंजाब में ही यह 1600 करोड़ों रुपए के करीब है। आढ़तियों के अतिरिक्त पंजाब सरकार भी एमएसपी का 3 फ़ीसदी मंडी शुल्क और 3 फ़ीसदी ग्रामीण विकास शुल्क लेती है। इससे पंजाब को पिछले वित्त वर्ष में 3642 करोड़ों रुपए की आमदनी हुई। इसका पूरा भार केंद्र सरकार के खजाने पर ही पड़ता है। यही कारण है कि पंजाब सरकार और आढ़तियों के उकसावे पर इन सुधारों का किसानों के एक वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा है।
1991 में हुए आर्थिक सुधारों से पहले तक देसी उद्योग जगत लाइसेंस, परमिट राज की व्यवस्था में ही काम करता था। तब सरकार ही तय करती थी कि उद्यमी किस उत्पाद को कितनी मात्रा में किस स्थान से उत्पादित कर सकते हैं। विदेश से कच्चा माल आयात करने पर भी सरकारी नियंत्रण था। कुछ मामलों में तो सरकार न केवल उत्पाद का मूल्य तय करती, बल्कि यह भी निर्धारित करती थी कि उसे कितनी मात्रा में बेचा जा सकता है।
30 साल पहले हुए आर्थिक सुधारों में कृषि की अनदेखी हुई थी। मोदी सरकार ने नए कृषि कानूनों के जरिए उस भूल को भूल को सुधारने का काम किया है।
किसान सरकार की वाजिब बात सुनने को तैयार नहीं। एक भी किसान नेता, एक भी पेशेवर प्रदर्शनकारी और एक भी विपक्षी नेता, तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ कोई कारगर दलील नहीं दे पाया।
किसानों के प्रति किस की सहानुभूति नहीं होगी जिस तरह आंदोलनकारियों ने जिद पकड़ी हुई है। जबरन टोल मुक्त करने से लेकर मार्गों को बाधित कर रहे हैं, उसमें बीच का रास्ता निकल ही नहीं सकता। इसी कारण प्रदर्शनकारियों ने सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाले पैनल के साथ इन कानूनों के एक-एक प्रावधान पर चर्चा करने से इंकार कर दिया, आखिर इससे उनका एजेंडा उजागर हो जाता।
लंबी बातचीत के बाद सरकार की ओर से 22 पन्नों का जो 10 सूत्रीय प्रस्ताव आया उसमें शंकाओं का समाधान तथा मांगो को समायोजित करने की पूरी कोशिश की गई। मगर जिस तरह आंदोलन कर रहे किसानों ने सरकार का प्रस्ताव खारिज किया, उससे ऐसा लगा जैसे पहले से मन बना लिया गया था, कि हमें प्रस्ताव मानना ही नहीं है। आम धारणा तो यही है कि सरकारें खुले मन से सामने आए, तो किसी आंदोलन का अंत समझौते के साथ हो सकता है। अगर राजनीति को परे रखकर निष्पक्षता से देखें तो मोदी सरकार खुले मन से सामने आई, जिसने भी सरकार के प्रस्तावों को देखा है। वह स्वीकार करेंगे कि इसके बाद आंदोलन समाप्त हो जाना चाहिए।
न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी पर प्रस्ताव में साफ कहा गया है, कि सरकार लिखित भरोसा देने को तैयार है। एमएसपी पर फसल बेचने के विकल्प भी बरकरार है। जाहिर है, इस आंदोलन के साथ राजनीति हो रही है।शरद पवार ने कृषि मंत्री रहते मुख्यमंत्रियों को इसके लिए पत्र लिखा, और अब विरोध कर रहे हैं।
कृषि कानूनों का विरोध का रहे विरोधी तर्क दे रहे हैं, कि इनसे देश में खेती किसानी बर्बाद हो जाएगी, और किसान अपनी जमीनों से वंचित हो जाएंगे। साथ ही एमएसपी के रूप में किसानों को प्राप्त समर्थन मूल्य का सहारा भी खत्म हो जाएगा। जबकि सच्चाई यह है कि इन तीनों में से किसी भी कानून में यह नहीं लिखा है कि इन के लागू होने से 23 प्रकार की फसलों के लिए जारी होने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। बल्कि सरकार की तरफ से बार-बार यह स्पष्ट किया गया है, कि सरकारी मंडी की व्यवस्था पहले की तरह बनी रहेगी। अगर सरकार की मंशा एमएसपी को बनाए रखने की ना होती तो बीते 05- 06 वर्षों में विभिन्न फसलों की एमएसपी में इतनी वृद्धि ना हुई होती क्योंकि एमएसपी पर गेहूं और धान की सर्वाधिक खरीद पंजाब और हरियाणा में होती है। इसलिए इन राज्यों के किसानों में इसकी आशंका भी अधिक है। उनकी इसी आशंका को भाजपा के राजनीतिक विरोधी हवा दे रहे हैं। तकरीबन यही स्थिति मंडी कानून में हुए बदलाव को लेकर भी है, मंडी कानून में बदलाव कर सरकार की मंशा किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए अधिक विकल्प प्रदान करना है। ताकि किसान अपनी फसलों की बिक्री के लिए केवल मंडी के आढ़तियों पर आश्रित ना रहे, इसे किसान ना केवल अपनी फसलों के लिए बेहतर मूल्य हासिल कर सकेंगे, बल्कि अपनी शर्तों पर सौदा करने में सक्षम भी होंगे।
खुद कांग्रेस ने 2004 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद मंडी कानून में बदलाव पर चर्चा शुरू की और इसे कानून के लिए फायदेमंद बताया था। आज इस मुद्दे पर केंद्र सरकार पर निशाना साधने वाले शरद पवार का राज्यों के सीएम को लिखा हुआ पत्र, इस बात का गवाह है कि उस वक्त की कांग्रेस की सरकार मंडी कानून, यानी कृषि उत्पादन वितरण समिति एक्ट में बदलाव के लिए राज्य सरकारों पर दबाव बना रही थी। केंद्र की तत्कालीन सरकार कांग्रेस सरकार ने उस वक्त इस आशय का एक मॉडल कानून भी राज्यों को भेजा था। विभिन्न संगठनों समेत इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा की प्रक्रिया भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने शुरू की थी। इसी तरह विपक्षी दल कांटेक्ट फॉर्म को लेकर ही किसानों को भड़का रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि इस प्रावधान के तहत किसानों को अपनी पैदावार का सौदा ही कंपनियों के साथ करना है, जमीन का नहीं। ऐसे में उनकी जमीन छीनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
जहां तक किसानों के लिए मौजूदा सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का प्रश्न है। तो पीएम मोदी के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार के कृषि बजट से ही स्पष्ट हो जाता है कि केंद्र का कृषि बजट 05 साल में 12000 करोड़ से से बढ़कर ₹1,34,000 को पार कर गया है। सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का नहीं बल्कि कृषि के बजट को भी उसके अनुरूप बनाया है। कांग्रेस को यह पता होना चाहिए कि भाजपा शासित राज्यों में किसानों के लिए किस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने गन्ना किसानों के बकाए का पूर्ण भुगतान किया है। वह भी पेराई सीजन शुरू होने से 02 महीने पहले। इसके अतिरिक्त किसानों को ₹3,00,000 तक और स्वयं सहायता समूह को 5,00,000 का ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। इस योजना के तहत किसानों समूह को 2062 करोड को ऋण वितरित किया जा चुका है।
दरअसल कृषि कानूनों के विरोध का पूरा सच पंजाब में कांग्रेस सरकार की विफलताओं में छिपा है। पंजाब में अमरिंदर सिंह की सरकार के खिलाफ बनते माहौल से ध्यान भटकाने के लिए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को भड़काया जा रहाा है।
लेखक : शाश्वत तिवारी
लेखक तेज़ न्यूज़ डॉट कॉम के उत्तरप्रदेश प्रभारी हैं