भारतीय सिनेमा जगत को अनेक यादगार गीतों व नग़मों से आभूषित करने वाली मशहूर गायिका मुबारक बेगम का पिछले दिनों 80 वर्ष की आयु में मुंबई में निधन हो गया।
उन्होंने भारतीय फिल्म जगत को कभी तन्हाईयों में भी हमारी याद आएगी, नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वाले, मुझको अपने गले लगा लो, मेरे आंसुओं पे न मुस्करा तथा सांवरिया तेरी याद में जैसे दर्जनों यादगार नग़मे दिए जो रहती दुनिया तक गीत-संगीत प्रेमियों द्वारा गुनगुनाए जाते रहेंगे।
परंतु मुबारक बेगम जैसी बेमिसाल गायिका अपने जीवन के अंतिम काल में जिस दौर से गुज़री हैं उसे सुनकर एक बार फिर यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि वास्तव में भारत में कला,संगीत, खेल-कूद अथवा साहित्य जैसे क्षेत्रों में अपना लोहा मनवाने वाली प्रतिभाओं का इतना भयावह अंत क्यों होता है?
प्राप्त समाचारों के अनुसार मुबारक बेगम ने अपने आखिरी दिन बेहद मुफलिसी में गुज़ारे। यहां तक कि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी भी नहीं थी कि वे अपनी बीमारी का खर्च तक उठा पातीं।
मुबारक बेगम की आर्थिक स्थिति जब महाराष्ट्र के शिक्षा व संस्कृति मंत्री विनोद ताबड़े के संज्ञान में लाई गई उस समय उन्होंने सरकार की ओर से उनकी सहायता किए जाने का आश्वासन तो ज़रूर दिया था परंतु अफसोस की बात यह है कि मुबारक बेगम इस संसार से रुखसत हो गईं परंतु उन तक कोई सरकारी मदद नहीं पहुंच सकी।
हालांकि मशहूर गायिका लता मंगेशकर के कार्यालय से मुबारक बेगम को कुछ समय तक आर्थिक सहायता ज़रूर भेजी गई थी। परंतु उनके अंतिम समय तक सलमान खान की तरफ से प्रत्येक माह उनकी दवाईयों हेतु पैसे अवश्य पहुंचते रहे।
भारत की मशहूर गायिका मुबारक बेगम हमारे देश की ऐसी पहली प्रतिभावान शिख्सयत नहीं थीं जिन्होंने गरीबी व मुफलिसी के दौर में अपने जीवन की अंतिम सांस ली हो। हमारे देश में हॉकी के जादूगार कहे जाने वाले तथा पूरे विश्व में अपने आकर्षक हॉकी खेल का लोहा मनवाने वाले मेजर ध्यान चंद जैसे महान खिलाड़ी को भी अपनी जि़ंदिगी के आखिरी दौर में कुछ ऐसी ही आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
खेल जगत में ऐसा ही एक दूसरा नाम है भारत की मशहूर महिला कबड्डी खिलाड़ी शांति देवी का। बिहार राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली शांति देवी ने 25वें राष्ट्रीय कबड्डी चैंपियनशिप में भाग लिया था। उन्होंने लगभग दस राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में बिहार का प्रतिनिधित्व किया। 1983-84 में वे भारतीय टीम की कप्तान भी रहीं।
परंतु इसी महान खिलाड़ी को जमशेदपुर के स्थानीय सब्ज़ी मार्किट में अपने सिर पर सब्ज़ी की टोकरी रखकर सब्ज़ी बेचते हुए देखा गया। बावजूद इसके कि कई शांतिदेवी के विषय में मीडिया द्वारा उनकी आर्थिक तंगी के विषय में प्रकाशित करने पर राजनीतिज्ञों ने उन्हें सरकारी नौकरी व सरकारी सहायता दिए जाने का आश्वासन भी दिया। परंतु इन आश्वासनों का कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका।
रश्मिता पात्रा एक ऐसी ही महिला फुटबाल खिलाड़ी का नाम है जिसने 2008 में कुआलांलमपुर में एशियन फुटटबाल कंफडरेशन में भारतीय अंडर-16 महिला फुटबाल टीम का प्रतिनिधित्व किया। इसके अतिरिक्त भी वे कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल मैचों में अपनी शानदार प्रतिभा का परिचय देती रहीं। परंतु आज वही रश्मिता पात्रा पान बेचकर अपना व अपने परिवार का गुज़र-बसर कर रही हैं।
110 मीटर की बाधा दौड़ में 1954 के एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाले सरवन सिंह को अपने जीवन का अंतिम समय बुढ़ापे में टैक्सी चलाकर बिताना पड़ा। 2011 के एथेंस ओलंपिक के 200 मीटर तथा 1600 मीटर की दौड़ में भारत के लिए तीसरा स्थान अर्जित करने वाली सीता साहू को मध्यप्रदेश के रीवां जि़ले में अपनी मां के साथ रेहड़ी पर खड़े होकर गोल गप्पे बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा।
देश के लिए कई मेडल जीतने वाली मशहूर धाविका आशा राय को सब्ज़ी बेचकर अपना जीवन बसर करना पड़ा। हमारे देश में विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाओं के इसी प्रकार दम तोडऩे या आर्थिक तंगी के दौर से गुज़रने के हज़ारों उदाहरण देखने व सुनने को मिल सकते हैं।
इस प्रकार के विचलित कर देने वाले समाचार उस समय और भी तकलीफ पहुंचाते हैं जब यह सुनने को मिलता है कि नेताओं द्वारा समय-समय पर देश की संसद से लेकर विधानसभाओं तक में वे जब चाहें अपनी मासिक आय अथवा अपना भत्ता अपनी मनमर्जी से बढ़ाते रहते हैं तथा अपने भविष्य को सुरक्षित करने हेतु अपनी पेंशन की व्यवस्था भी स्वयं ही कर लेते हैं।
हमारे यह नेता देश दुनिया तथा समाज में अपनी कैसी छवि बना चुके हैं और समाज इनसे कितनी उम्मीदें रखता है यह भी किसी से छुपा नहीं है। हमारे देश में इसी प्रकार अनेक लेखकेां,साहित्यकारों तथा पत्रकारों को भी मुफलिसी के आलम में दम तोड़ते देखा गया है।
अफसोस की बात तो यह है कि मुबारक बेगम की तरह ऐसी सभी प्रतिभाओं के मरणोपरांत नेताओं से लेकर बुद्धिजीवियों तक तथा कला,गीत-संगीत, खेल अथवा साहित्य क्षेत्र के लोगों द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि देकर अपने फजऱ् की इतिश्री समझ ली जाती है। इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह भी है कि आज के दौर में केवल क्रिकेट जैसे खेल को विभिन्न आर्थिक आयामों से जोडऩे के बाद इसे इतना अधिक बढ़ावा दे दिया गया है कि दूसरे खेलों व इनसे जुड़े खिलाडिय़ों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने का अवसर ही नहीं मिल पाता।
पिछले दिनों राजस्थान से एक पत्रकार ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि किस प्रकार भारतीय पारंपरिक व प्राचीन कला का एक बेहतरीन नमूना समझी जाने वाली कठपुतली के खेल जैसी मनोरंजक कला अब अपना अस्तित्व खो रही है। इसका कारण क्या है।
जब सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त खेलों के प्रतिभाशाली खिलाड़ी,दुनिया को अपनी मधुर आवाज़ व गीत-संगीत से मदहोश कर देने वाले कलाकार बड़े-बड़े लेखक व साहित्यकार देश व दुनिया में अपना व अपने देश का नाम ऊंचा करने के बाद स्वयं को आर्थिक रूप से सुरक्षित नहीं कर सके ऐसे में कठपुतली जैसा खेल दिखाकर लोगों को ठहाके मारने के लिए मजबूर कर देने वाले कलाकार अपने भविष्य को कैसे सुरक्षित कर सकते हैं?
और जब यह कठपुतली के कलाकार स्वयं अपने भविष्य को लेकर आशान्वित नहीं हैं ऐसे में यह समाज अपने बच्चों को कठपुतली के खेल क्योंकर सिखाने लगा? ऐसे में इस भारतीय कला का विलुप्त हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस प्रकार के अनेक ऐसे मनोरंजक खेल व कलाएं हैं जो समय के साथ-साथ केवल इसीलिए समाप्त होती जा रही हैं क्योंकि इससे जुड़े लोग अपने भविष्य को सुरक्षित नहीं समझते।
यही हालात ऐसे हैं जो देश के तमाम प्रतिभावान लोगों को यहां तक कि शिक्षा व तकनीकी शिक्षा तक से जुड़े लोगों को देश से पलायन करने तक को मजबूर करते हैं। देश की विभिन्न क्षेत्रों की तमाम प्रतिभाएं आज विदेशों में जाकर न केवल नाम तथा धन कमा रही हैं बल्कि स्वयं को आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस करते हुए वहीं की होकर रह भी जाती हैं।
जबकि हमारे देश में इनकी कितनी कद्र है यह उपरोक्त उदाहरणों से ही साफ ज़ाहिर होता है। इस प्रकार के समाचार हमारे देश का रौशन भविष्य समझी जाने वाली प्रतिभाओं पर बुरा असर डालते हैं। ऐसे में यह हमारे देश की केंद्र सरकार तथा विभिन्न राज्य सरकारों की जि़म्मेदारी है कि वे सभी क्षेत्रों की ऐसी प्रतिभाओं के लिए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था अवश्य करें जो उनके शेष जीवन को सुरक्षित कर सके तथा उन्हें अपने अंतिम समय में दवा-इलाज अथवा दो वक्त की रोटी के लिए किसी का मोहताज न होना पड़े।
जो सरकारें आपातकाल के दौरान जेल में भेजे गए मीसा बंदियों की पेंशन के लिए सिर्फ इसलिए चिंतित दिखाई देती हैं क्योंकि उसकी नेता बिरादरी इमरजेंसी में प्रभावित हुई थी वही लोग आखिर देश की उन प्रतिभाओं की परवाह क्यों नहीं करते या उनके लिए पेंशन अथवा आर्थिक सहायता या उनके लिए नि:शुल्क दवा-इलाज जैसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं करते?
हमारे देश के नेताओं को ऐसी प्रतिभाओं के मरणोपरांत उनकी शान में कसीदा पढऩे या छाती पीटकर विलाप करने अथवा इनकी स्मृति में कोई आयोजन कर वोटों की राजनीति करने के बजाए इनके सुरक्षित भविष्य हेतु कुछ ऐसे धरातलीय उपाय करने चाहिए ताकि इन्हें मोहताजगी अथवा अपमानजनक जीवन बिताने के लिए मजबूर न होना पड़े।
कल का स्वर्ण पदक विजेता या मुबारक बेगम की तरह अपने सुर संगीत के माध्यम से आम लोगों के दिलों पर राज करने वाली कोई शिख्सयत यदि फुटपाथ पर सब्ज़ी बेचते,गेालगप्पा बेचते या दवा-इलाज के अभाव में दम तोड़ते दिखाई दे तो यह उन प्रतिभाओं के लिए नहीं बल्कि यह पूरे देश के लिए अपमान का विषय है।
लेखक:- निर्मल रानी
निर्मल रानी
1618/11, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।
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