लगभग 2 वर्ष पहले मुझे पटना में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के एक सम्मेलन को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन का आयोजन ‘‘तहरीक-ए-पसमांदा मुस्लिम समाज ‘‘ ने किया था। सम्मेलन में लगभग 400 लोग उपस्थित थे। हर वक्ता को केवल तीन-चार मिनट बोलने के लिए कहा गया और संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अधिकारी को छोड़कर, अन्य सभी के मामले में इस नियम का पालन हुआ। सम्मेलन 11 बजे सुबह शुरू हुआ और चाय या भोजन अवकाश के बिना 5 बजे तक चलता रहा। इस प्रकार, लगभग 150 लोगों ने सम्मेलन में भाषण दिया, जिसमें से केवल पांच हिन्दू दलित थे और एक दलितों के बीच काम करने वाला ईसाई सामाजिक कार्यकर्ता था। वक्ताओं ने मुस्लिम नेतृत्व को कोसने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे मैं यहां दोहरा नहीं सकता।
उन्होंने कहा कि उनके नेताओं को उनकी बदहाली की कोई परवाह नहीं है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि सभी पार्टियों के मुस्लिम नेता, समुदाय को केवल भावनात्मक मुद्दों पर भड़काने का काम करते आ रहे हैं। इनमें शामिल हैं बाबरी मस्जिद, मुस्लिम पर्सनल लॉ, शाहबानो व सेटेनिक वर्सेस पर प्रतिबंध जैसे मसले। उनका कहना था कि मुस्लिम पिछड़े वर्गों की हालत, हिन्दू दलितों से भी बदतर है। उन्हें न केवल समाज अछूत मानता है वरन् उनके समुदाय के सदस्य भी उनके साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते। वक्ताओं में हलालखोर समाज के प्रतिनिधि शामिल थे। इस समाज के सदस्य, सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं।
मुस्लिम अशरफ, अपवित्रता और पवित्रता की अवधारणाओं में उतना ही विश्वास करते हैं जितना कि हिन्दू उच्च जाति के लोग। हलालखोरों को भी मस्जिदों में प्रवेश करने से हतोत्साहित किया जाता है और अगर इस समुदाय का कोई सदस्य, परिणामों की परवाह किए बगैर, मस्जिद में घुस भी जाता है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह नमाजियों की सब से आखिर की पंक्ति में खड़ा हो।
पिछड़े मुसलमानों की हालत, हिन्दू दलितों से भी खराब है क्योंकि हिन्दू दलितों को कम से कम अनुसूचित जाति के बतौर, संवैधानिक और कानूनी लाभ प्राप्त हैं जबकि सन् 1950 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार, किसी गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख या गैर-बौद्ध को अनुसूचित जाति के तौर पर अधिसूचित करने पर प्रतिबंध है। इस तरह, वे शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और संसद व विधानसभाओं में आरक्षण के लाभ से वंचित हैं।
इसी तरह, उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है। एक वक्ता, जो सारी मुसीबतों से जूझकर शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो गया था, को तब भी अशरफ समुदाय में सम्मान प्राप्त नहीं था। केवल उसकी हलालखोर बिरादरी के सदस्य उस पर गर्व महसूस करते थे। एक हिन्दू नाम का उपयोग कर वह सरकारी नौकरी पाने में सफल भी हो गया था। इस्लाम में अपनी आस्था को उसे अपने दिल के एक कोने में छुपाकर रखना पड़ता था और उसके परिवार का सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन अलग-अलग था।
सम्मेलन में दलित हिन्दू वक्ताओं ने दलित मुसलमानों की हालत पर चिंता और दुःख व्यक्त किया और यह मांग की कि गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख और गैर-बौद्ध दलितों को भी अनुसूचित जाति में शामिल किया जाना चाहिए। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अन्य समुदायों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से आरक्षण के लाभ और बंट जायेंगे परंतु फिर भी हिन्दू दलित, अपने मुसलमान साथियों की खातिर यह त्याग करने को तैयार थे।
इस सम्मेलन से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि मुस्लिम ‘समुदाय’, दरअसल, समुदाय है ही नहीं। इसमें कई अलग-अलग बिरादरियां हैं जैसे हलालखोर, खटीक, तेली, तंबोली, जुलाहा, बागवान, पठान, सैय्यद, शेख इत्यादि। इन मुस्लिम बिरादरियों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-अशरफ (श्रेष्ठी वर्ग, हिन्दू उच्च जातियों के समकक्ष), अजलफ (ओबीसी के समकक्ष कारीगर वर्ग) व अरज़ल (दलित हिन्दुओं के समकक्ष वे मुस्लिम बिरादरियां जो ‘अपवित्र काम’ करती हैं)। अशरफ, अजलफ और अरज़ल शब्द किसी भारतीय भाषा के शब्द नहीं हैं। ये अरबी के शब्द हैं और इनका इस्तेमाल सल्तनत काल से होता आ रहा है। तब भी इस्लाम के मानने वालों में इतना भेदभाव था कि पिछड़े वर्गों से मुसलमान बनने वालों पर शरियत कानून लागू नहीं होते थे।
मदरसे केवल अशरफ और अजलफ मुसलमानों के लिए थे और अरजल बिरादरियों के बच्चों को केवल सूफी संतों और उनकी दरगाहों का सहारा था-वे दरगाहें जहां सबका स्वागत था-हिन्दुओं और मुसलमानों का, दलितों और उच्च जातियों का, महिलाओं और पुरूषों का। जब इस्लाम और ईसाई धर्म, दक्षिण एशिया पहुंचे तब उनका सामना भारत में सदियों से स्थापित जाति व्यवस्था से हुआ। जहां तक ऊँची जातियों की बात है उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि शूद्र कौन सा धर्म, परंपराएं या कर्मकांड अपनाते हैं। उन्होंने वैसे भी शूद्रों को अपने समुदाय और समाज से बाहर कर रखा था। अतः उन्हें शूद्रों के इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था।
राज्य का मूल चरित्र सामंती था और वह हिन्दू और मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग के हितों का रक्षक था। वह ऊँचनीच और जन्म-आधारित भेदभाव को बनाए रखना चाहता था। आज भी मुस्लिम बिरादरियों की वफादारी, उनकी बिरादरी से जुड़े संगठनों (कुछ-कुछ जाति पंचायतों की तरह) के प्रति होती है। पारिवारिक विवादों के मामले में दारूलउलूम या मुस्लिम विधिशास्त्रीय संस्थाओं की बजाए बिरादरी से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया जाता है। शैक्षणिक संस्थाएं और वजीफे आदि देने वाले संगठन भी मुख्यतः अपनी-अपनी बिरादरी के सदस्यों के लिए ही होते हैं। बिरादरियों में आपस में ही विवाह होते हैं और बिरादरी से बाहर विवाह बहुत ही कम मामलों में स्वीकार किये जाते हैं। विभिन्न बिरादरियों के बीच रोटी का व्यवहार तो शायद होता भी हो परंतु बेटी का नहीं होता।
मुस्लिम समुदाय इसलिए पिछड़ा है क्योंकि उसकी अधिकांश बिरादरियां सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हैं। परंतु अशरफ बिरादरियों की समाज में अच्छी पकड़ है क्योंकि उनमें से कई गुजरे जमाने में नवाब और जमींदार थे। उसी तरह, गुजरात की तीन व्यवसायी बिरादरियों-बोहरा, कच्छी मेमन व खोजा-भी शिक्षा व रोजगार की दृष्टि से काफी अच्छी स्थिति में हैं। यद्यपि उन्हें भी मुसलमानों के दानवीकरण के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है परंतु फिर भी अपनी शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक ताकत के कारण, उन्हें इस भेदभाव से बहुत नुकसान नहीं होने पाता। आधुनिक शिक्षा देने वाली मुसलमानों के जो चंद शैक्षणिक संस्थान हैं, उन पर अशरफों का नियंत्रण है।
पहली से चौदहवीं लोकसभा तक केवल पांच पिछड़े मुसलमान सदन के सदस्य बन सके। यही हालत राज्यसभा और विधानसभाओं की भी है। यद्यपि वर्तमान राज्यसभा में कई मुस्लिम सदस्य हैं परंतु उनमें से एक भी पिछड़े वर्ग का नहीं है। राजनैतिक पार्टियों में भी पिछड़े मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है जबकि पिछड़े मुसलमान, कुल मुस्लिम आबादी के 90 प्रतिशत से भी अधिक हैं।
इसके बावजूद, समुदाय का नेतृत्व अशरफों के हाथों में हैं जो पूरे समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं और समुदाय के सदस्यों को सेटेनिक वर्सेस, डच कार्टून, बाबरी मस्जिद और शाहबानो जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों में उलझाये रखते हैं। इसके विपरीत, पिछड़े मुसलमानों के अधिवेशन में एक भी वक्ता ने इन मुद्दों की चर्चा नहीं की। वे बेशक इस्लाम से प्यार करते हैं परंतु उनके लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक न्याय, शिक्षा इत्यादि सबसे महत्वपूर्ण हैं।
इस्लाम उनके लिए एक निजी मामला है जिसके नियमों का पालन वे अपने घर की चहारदीवारी में करते हैं। इस्लाम उनके लिए आस्था का प्रश्न है, राजनैतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए भीड़ जुटाने का हथियार नहीं। वे अशरफ मुसलमानों की तुलना में स्वयं को हिन्दू दलितों के अधिक करीब पाते हैं और वे उन लोगों से प्रभावित हैं, जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं। उनके लिए उनकी प्राथमिक पहचान ‘दलित’ है, ‘मुसलमान’ नहीं। अन्य मुसलमानों और स्वयं में वे जो चीज एक सी पाते हैं वह है आराधना करने का तरीका और धर्म।
इसके अलावा कुछ भी नहीं। अन्य मामलों में वे मुसलमानों की बजाए दलितों के अधिक नजदीक हैं। हाल के आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के एक निर्णय पर हो रही बहस को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। क्या मुस्लिम ‘समुदाय’ शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ वर्ग है? मेरे विचार में, भारत के मुसलमान न तो कोई समुदाय हैं और न कोई वर्ग। काका कालेलकर आयोग और उसके बाद मंडल आयोग ने मुस्लिम पिछड़े वर्गों को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया था।
हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है और पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देना, धर्म के आधार पर भेदभाव करना होगा। मुसलमानों को आरक्षण देने में कानूनी बाधाएं तो हैं ही परंतु मेरी यह राय है कि ऐसा करना वांछनीय भी नहीं है क्योंकि इससे मुख्यतः वे अशरफ बिरादरियां लाभान्वित होंगी जो पहले से ही सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक दृष्टि से आगे हैं और जिन्हें आरक्षण की कतई आवश्यकता नहीं है। बोहरा, मेमन और खोजा समुदाय में एक बड़ा शिक्षित मध्यम वर्ग है। ये तीनों समुदाय गुजरात के हैं और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में बंबई में बंदरगाह बनने के बाद, पश्चिमी भारत में हुए विकास से लाभांवित हुए हैं।
इन समुदायों की युवा पीढ़ी आरक्षण के बिना भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद यद्यपि उनमें से कुछ डाक्टर, इंजीनियर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट आदि बतौर काम करते हैं परंतु कुछ अपने पारिवारिक व्यवसाय को चलाना ही बेहतर समझते हैं। मस्जिदों और मदरसों के अलावा, इस समुदाय के सदस्यों ने देशभर में कई शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों व अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की स्थापना भी की है। भारत के सभी समुदायों में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों का प्रतिशत 26 है।
इसके मुकाबले, 17 प्रतिशत मुसलमान मैट्रिक्यूलेट हैं। परंतु इनमें भी अशरफों, जिनमें बोहरा, खोजा और मेमन शामिल हैं, की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी तरह, जो 3.6 प्रतिशत मुसलमान स्नातक परीक्षा पास हैं और 0.4 प्रतिशत, जिन्होंने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है, उनमें भी अशरफों की बहुलता है यद्यपि वे कुल मुस्लिम आबादी का केवल 10 प्रतिशत हैं। ऐसी स्थिति में अगर सरकार मुसलमानों की भलाई के लिए कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो उसके सभी लाभों पर अशरफ कब्जा कर लेंगे।
इसका कारण यह है कि वे पहले से ही शिक्षित हैं और आरक्षण का लाभ उठाना उनके लिए कहीं आसान होगा। इसके विपरीत, पहले से ही पिछड़े अजलफ और अरजल पिछड़े ही बने रहेंगे। बेहतर यह होगा कि सभी मुसलमानों को आरक्षण देने की बजाए, विशिष्ट मुस्लिम समूहों या बिरादरियों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया जाए ताकि लाभ उन तक पहुंचे जिन्हें उसकी जरूरत है। ऐसा करके हम इस सच्चाई को भी स्वीकार करेंगे कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं है।
सत्ता में आने के बाद, आंध्रप्रदेश की वाय.एस. राजशेखर रेड्डी सरकार ने कानून बनाकर मुसलमानों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया। इस नये कानून को आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और न्यायालय ने उसे असंवैधानिक व समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया। अपने निर्णय में उच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण का लाभ केवल सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को दिया जा सकता है, किसी धार्मिक समुदाय को नहीं। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि आंध्रप्रदेश सरकार के पास ऐसे कोई आंकड़े या तथ्य उपलब्ध नहीं हैं जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंच सके कि पूरा मुस्लिम समुदाय पिछड़ा हुआ है।
उच्चतम न्यायालय ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराया। इसके बाद, आंध्रप्रदेश सरकार ने मुसलमानों के पिछड़े वर्गों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। इस बार ऐसा करने के पहले उसने मुसलमानों के उन वर्गों के सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के संबंध में आंकड़े इकट्ठे किये। सरकार ने आंध्रप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग से यह कहा कि वह मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति का अध्ययन करे। इसके बाद सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची में एक नया ‘ई‘ समूह शामिल किया, जिसमें ‘मुसलमानों के सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदाय‘ रखे गए। परंतु आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस कानून को भी रद्द कर दिया।
न्यायालय ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी प्रासंगिक कारकों का संज्ञान नहीं लिया गया है और कई अप्रासंगिक कारकों का संज्ञान लिया गया है। उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम पिछड़ों के लिए आरक्षण इसलिए भी अवैध है क्योंकि इससे उच्चतम न्यायालय द्वारा कुल आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन होता है।
अब समय आ गया है कि हम पिछड़ों को समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण को एकमात्र सकारात्मक कदम मानना छोड़ें। राजनेताओं के लिए आरक्षण देना सबसे आसान होता है क्योंकि इसके लिए उन्हें कोई अतिरिक्त संसाधन नहीं जुटाने होते। केवल एक कानून बनाकर किसी भी वर्ग को आरक्षण दे दो और उसके वोट बटोरो। मुस्लिम पिछड़ों का एक छोटा सा हिस्सा अपनी मेहनत से और निर्यात में हुई वृद्धि के कारण आर्थिक रूप से संपन्न बन गया है।
इनमें शामिल हैं वाराणसी के साड़ी बुनकर, मुरादाबाद के पीतल कारीगर और अलीगढ़ के ताला उद्योग व मेरठ के कैंची उद्योग के कुछ व्यवसायी। आरक्षण की बजाए मुस्लिम समुदाय के पिछड़े तबकों को आगे बढ़ने के मौके उपलब्ध कराने के लिए बेहतर यह होगा कि सरकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए कड़े कानूनी प्रावधान करे, कारीगरों को कौशल विकास के मौके उपलब्ध कराए और उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज दिलवाने की व्यवस्था करे। परंतु इसके लिए यह जरूरी होगा कि संसाधनों का इस्तेमाल कुबेरपतियों के उद्योगों को अनुदान देने की बजाए गरीबों की भलाई के लिए किया जाए। ऐसा सिर्फ एक दूरदृष्टा व उदार नेता ही कर सकता है-वे बौने नहीं जो इस समय हमारे राजनैतिक परिदृश्य पर छाए हुए हैं।
इरफान इंजीनियर
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)