भारत के पडोसी देश मालदीव में अब संकट गहराता जा रहा है और भारत चुपचाप देख रहा है। वह हाथ पर हाथ धरे बैठा है। नेपाल में वह जोर लगा रहा है तो सर्वत्र उसकी बदनामी हो रही है। नेपाल की सरकार और ज्यादा अकड़ गई है।
पहले नेपाल के विदेश मंत्री ने संयुक्तराष्ट्र के महासचिव बान की मून से भारत की शिकायत की और अब भारत को मजबूर होकर जिनीवा के मानव अधिकार आयोग में नेपाल की शिकायत करनी पड़ी है। धन्य है, हिंदू राष्ट्रवादियों की विदेश नीति! नेपाल में भारत के हाथ जल रहे हैं, शायद इसीलिए मालदीव के मामले में वह अपने हाथ जेब में डाले हुए है।
विदेश नीति का यह अनाड़ीपन सारे पडोसी देशों के साथ भारत पर भारी पड़ रहा है। क्या बर्मा, क्या बांग्लादेश, क्या श्रीलंका, क्या अफगानिस्तान और क्या पाकिस्तान सभी पडोसी देशों के साथ हमारे रिश्तों में जो गर्मजोशी पिछले साल दिखाई पड़ रही थी, वह या तो ठंडी पड़ रही है या नए तनाव पैदा होते जा रहे हैं।
नेपाल के मधेसियों के अधिकारों का समर्थन करना भारत का कर्तव्य है लेकिन उसके भी कुछ तरीके होते हैं। मोदी सरकार सोचती है कि कूटनीति की बजाय कूटने की नीति (लट्ठनीति) से काम लेना बेहतर होगा। उसके नतीजे क्या हो रहे हैं? चीन का असर नेपाल में बढ़ता जा रहा है। नेपाल ने मांग की है कि जितने भी नेपाल−चीन थल मार्ग बंद पड़े हैं, उन्हें शीघ्र खोला जाए। लगभग यही परिदृश्य हमें श्रीलंका और मालदीव में दिखाई पड़ रहा है।
मालदीव के उप−राष्ट्रपति अहमद अदीब को 24 अक्तूबर को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आरोप है कि उन्होंने राष्ट्रपति यामीन अब्दुल कय्यूम के बोट को बम से उड़ाने की साजिश की थी। पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पहले से ही जेल में बंद हैं। अब 30 दिन के लिए आपात्काल भी ठोक दिया गया है। सरकार को डर है कि सारे मालदीव में बगावत न भड़क जाए।
नशीद और अदीब के समर्थक मिलकर सरकार न उल्टा दे। मालदीव की स्थिति इतनी नाजुक होती जा रही है कि यदि वहां फौजी तख्ता−पलट हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। ऐसी स्थिति में भारत का निष्क्रिय रहना विचित्र−सा है। यदि भारत ने अभी कूटनीतिक कौशल नहीं दिखाया तो उसे कहीं शीघ्र ही कूटने की नीति (लट्ठनीति) का प्रदर्शन न करना पड़े!
लेखक:- डॉ. वेदप्रताप वैदिक