प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गत् 8 नवंबर को एक हज़ार व पांच सौ रुपये की भारतीय मुद्रा बंद किए जाने की घोषणा को दो सप्ताह से अधिक का समय बीत चुका है। परंतु अभी भी पूरे देश में आम लोगों को पैसों की लेन-देन के लिए काफी दिक्कतों को सामना करना पड़ रहा है। इस नोटबंदी का प्रभाव काला धन को समाप्त करने या उसे कम करने पर कितना पड़ेगा इसका सही अंदाज़ा तो कुछ समय बाद ही पता चल सकेगा। परंतु इतना तो ज़रूर है कि सरकार द्वारा नोटबंदी की घोषणा किए जाने से पहले इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सका कि इस घोषणा के बाद जनता के सामने आने वाली परेशानियों से किस प्रकार निपटा जाना है इसे लेकर सरकार के फैसले की आलोचना ज़रूर हो रही है। इसमें कोई शक नहीं कि इस फैसले के समर्थक तथा आलोचक भारत में पक्ष-विपक्ष की राजनीति की अपनी मजबूरियों के तहत दो ख़ेमों में बंटे हुए हैं भले ही वे अर्थशास्त्र संबंधी ज्ञान रखते हों या न रखते हों। परंतु यदि कोई अर्थशास्त्री इस विषय पर तर्कों के साथ अपनी दलील पेश करे या सत्तापक्ष के किसी जि़म्मेदार व अर्थशास्त्री की ओर से आलोचना के स्वर उठाए जाएं तो क्या इसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया जाना चाहिए?
भारत के पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम, भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन सहित कई अर्थशास्त्री सरकार द्वारा बिना किसी पूर्व तैयारी के उठाए गए इतने बड़े कदम की आलोचना करते देखे जा रहे हैं। इनके अलावा भी देश के अर्थशास्त्र के कई बड़े हस्ताक्षर इस नीति का विरोध कर रहे हैं। नोटबंदी सही है या गलत इससे कहीं अधिक विरोध इस बात का हो रहा है कि नोटबंदी के चलते आम जनता को जितनी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है उसका जि़म्मेदार आखिर कौन है? अब तो भाजपा के राज्यसभा सांसद एवं अर्थशास्त्री सुब्रमण््यम स्वामी भी इस विषय पर काफी मुख्रित हो चुके हैं। उन्होंने तो साफ शब्दों में यह कह दिया है कि इस अफरातफरी के लिए वित्तमंत्री,वित्त सचिव तथा वित्त सलाहकार जि़म्मेदार हैं। स्वामी ने इन सभी का नाम लेकर यह कहा कि देश में लोगों को हो रही परेशानियों की जि़म्मेदारी से यह लोग बच नहीं सकते। ऐसे में यदि बाबा रामदेव जैसे व्यवसायी जो कल तक सिर्फ काला धन व भ्रष्टाचार की लड़ाई लडऩे वाले नायक बने बैठे थे और आज देश के प्रमुख व्यवसायी बन चुके हैं उनका यह कहना कि नोटबंदी का विरोध करना देशद्रोह के समान है,यह बयान कितना तर्कसंगत है? महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस भी नोटबंदी के फैसले की आलोचना को देशहित में नहीं मानते।
सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र अब उस दौर में प्रवेश कर चुका है कि विरोधियों या आलोचकों को तर्कों के साथ भी अपनी बात कहने का कोई अधिकार नहीं है? स्वतंत्रता से लेकर अब तक भारत ने अर्थजगत से लेकर उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में जितनी उन्नति की है क्या साठ वर्षों का यह स$फर बिना किसी राजनैतिक अनुभव या ज्ञान के पूरा किया गया? बाबा रामदेव जैसे सरकार के पक्षधर क्या स्वयं यह बता सकते हैं कि उनका उत्पाद $खरीदने वाले ग्राहकों को क्या उनके खुदरा दुकानदारों द्वारा उनके हर उत्पाद को बेचने की पक्की रसीद दी जा रही है? योग विद्या तथा काला धन व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस के विरोध तथा राष्ट्रीय स्वयं संघ के समर्थन का लाभ उठाकर बाबा ने बहती गंगा में हाथ धोने का काम तो ज़रूर कर लिया। आज सरकार का समर्थन इस स्तर तक जाकर करना कि सरकार के किसी फैसले का विरोध करने वाला उन्हें देशद्रोही जैसा नज़र आने लगे यह अब उनकी मजबूरी बन चुकी है क्योंकि अब वे अन्य उद्योगपतियों की ही तरह एक व्यवसायी की कतार में खड़े हो चुके हैं। इसलिए सत्ता का दामन थाम कर रखना और सत्ता की जी हुज़ूरी करना उनकी मजबूरी बन चुकी है।
केंद्र सरकार की नज़र-ए-इनायत का ही परिणाम है कि न केवल उनकी औद्योगिक पूंजी गत् दो वर्षों में दिन दूनी रात चौगुनी की दर से बढ़ती जा रही है बल्कि देश के विभिन्न भाजपा शासित राज्यों में वे आए दिन नई ज़मीनें अपने उद्योग के विस्तार हेतु कब्ज़ा करते जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों मध्यप्रदेश में ग्लोबल इनवेस्टर्स मीट में बाबा रामदेव को भी आमंत्रित किया गया था। इसमें उन्होंने स्वयं यह बताया कि 45 एकड़ ज़मीन मध्यप्रदेश सरकार ने $फूड प्रोसेसिंग प्लांट हेतु उन्हें आबंटित की है। हालांकि यह ज़मीन उनके लिए कम है यह उन्होंने इस ढंग से कहा कि-‘पैंतालीस एकड़ ज़मीन में तो वे कबड्डी खेलते हैं। इसी कार्यक्रम में उन्होंने यह भी घोषित किया कि वे कपड़ा उद्योग में भी कदम रखने जा रहे हैं। समझा जा रहा है कि देश-विदेश में बढ़ती जा रही जीन्स के कपड़ों की खपत के मद्देनज़र संभवत: वे जींस का उत्पादन कर सकते हैं। भारतीय उद्योग के इतिहास में किसी भी संपन्न व खानदानी व्यवसायी ने भी इतनी तेज़ी से अपनी पूंजी में इतना इज़ाफा नहीं किया। ज़ाहिर है यह सरकार की मेहरबानी व उसकी नज़र-ए-इनायत का ही करिश्मा है। ऐसे में बाबा रामदेव का नोटबंदी के विरोधियों को देशद्रोही ठहराने जैसा अविवेकपूर्ण बयान दिया जाना सरकार के नमक का हक अदा करने के सिवा और क्या कहा जा सकता है?
देश का कोई एक नागरिक भी ऐसा नहीं मिलेगा जो काला धन जमा करने वालों या भ्रष्टाचारियों के समर्थन में खड़ा दिखाई दे। आज भी सरकार के नोटबंदी के फैसले का विरोध जो भी नेता कर रहे हैं चाहे वे ममता बैनर्जी हो या अरविंद केजरीवाल जैसे अपने-अपने प्रदेशों के सत्ता प्रमुख। इन नेताओं को भी आज तक इनका कोई विरोधी भ्रष्टाचार का पोषक या समर्थक साबित नहीं कर सका। आज अरविंद केजरीवाल व ममता बैनर्जी के रहन-सहन व उनकी पोशाकों की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पोशाकों से की जाए तो यह बात अपने-आप समझ में आ जाएगी कि देश के बहुसंख्य साधारण लोगों का वास्तविक प्रतिनिधि कौन नज़र आता है? शान-ो-शौकत के मंहगे लिबास पहनना तो पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी खूब आता था कहा जाता है कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आया करते थे। परंतु उन्होंने अपने बेश$कीमती लिबासों की होली जलाकर महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर आम भारतीयों की तरह खादी का सादा लिबास पहनने का फैसला किया। लिहाज़ा आज यदि अरविंद केजरीवाल व ममता बैनर्जी तथा देश की संसद में विपक्षी सांसद सरकार के नोटबंदी के फैसले या उसे लागू किए जाने के तरीके का विरोध कर रहे हैं तो उन्हें देशद्रोही की कतार में खड़ा करना आकहां का न्याय है?
बाबा रामदेव को वास्तव में अपने व्यवसाय के दूरगामी हितों के मद्देनज़र सरकार की खुशामद में इस प्रकार का वक्तव्य देने के बजाए देशभर में फैले अपने खुदरा और थोक व्यापारियों को यह निर्देश देना चाहिए कि वे पूरे देश में बैंक की कतारों में लगे हुए लोगों की परेशानियों को दूरे करें तथा उनकी सहायता के लिए आगे आएं। उन्हें अपने दुकानदारों को यह भी निर्देशित करना चाहिए था कि मुद्रा बंदी जैसे हवन में अपना योगदान देते हुए वे पतांजलि के उत्पाद के द्वारा उन लोगों की सहायता करें जो वर्तमान समय में मुद्रा के संकट या आर्थिक कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे लोगों को आटा,दाल,चावल,मसाले आदि से लेकर दवाईयां तक कम से कम मुफ्त नहीं तो उधार तो ज़रूर बंटवाना चाहिए था। ऐसा करने के बजाए इस फैसले का विरोध या आलोचना करने वालों को देशद्रोही कऱार देना तो हरगिज़ मुनासिब नहीं।
निर्मल रानी
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