उपन्यास समीक्षा – इश़्क के कई मायने होते हैं, कुछ आंखों से उतर कर दिल में हमेशा के लिए कैद हो जाते हैं तो कुछ आंखों ही आंखों में रह जाते हैं. इश़्क हर दौर में मौजूद रहा है तो हर दौर में इश्क के मायने भी अलग-अलग होते गए है। इंदौर की वो गलियां जिनमें उपभोक्तावाद ने तेजी से अपने पैर पसारे औऱ देखते-देखते ही निमाडी और मराठी गीतों की धुनें ना कब पब, डिस्को और मॉल की रंगीनियों में लाउड हो गए किसी को पता ही नहीं चला। एक मध्यम कद काठी का शहर जब तेजी से अपने पैर फैलाता है तो वो सब आत्मसात कर लेता है। उसके चेहरे की मुस्कुराहट से लेकर आत्मा की सौंधी खुशबू सब मलीन हो जाती है। लेकिन इस दौर में भी इस शहर की एक जोडी आंखे बडी शिद्दत से इस बदलाव के बीच कुछ परिवर्तन को बडे गौर से निहार रही थी। स्वाभाविक उसका इस शहर को इस बदलना कुछ रास नहीं आ रहा था, और यही तड़प मनीषा के ये इश्क के रूप में हमारे सामने आया। इंदौर की वो गलियां जिनमें कभी शाम के धुंधलके में इश़्क की मौसिकी का असर साफ दिखाई देता था अब वहां प्रेम की नई इबारत लिखी जा रही थी।
मूलतः: यह उपन्यास भी इश़्क की इन्हीं इबारतों के इर्द-गिर्द बुना गया एक फलसफा है। इस कहानी में ना कोई नायक तो कोई नहीं है लेकिन नायिका तीन हैं। यानि की इश़्क भी तीन हिस्सों में बटा हुआ है। हालांकि कहानी को पढ़ते समय लेखिका से एक बात पर तो नाराज़ हुआ ही जा सकता है कि स्त्री को अलग-अलग रूपों में व्यक्त करने के लिए पुरुषों से थोडा वायस हो गई। कहानी का पहला हिस्सा कोई 50-55 साला बानों के रूप में हमारे सामने आता है, और ठीक वैसे ही आता है जैसे 80 के दशक की वो फिल्में जिनमें शादी के बाद शौहर ही सब कुछ होता है, लेकिन इश़्क एक हिस्सा अदनान के रूप बानों के सामने उसकी मृगमरीचिका बनकर ताउम्र उसे प्यासा रखता है।
कहते हैं जिसके जीवन में इश़्क इबादत की तरह आता है उसके लिए प्रेमी ख़ुदा हो जाता है। अदनान, बानों के जीवन का वो हिस्सा बन जाता है जिसे देखकर उसके सीने आग नहीं जलती बल्कि उसके दुखों के लिए वह कोई महताब है, जिसकी प्यास में कई महीनों तक चकोर मुहब्बत के फसाने गाता है। एक झलक भर देख लेने और इशारों ही इशारों में खैरियत से लेकर दुआ सलाम तक दिल को इस बात की तसल्ली देता है कि किसी को किसी फिकर भी है। प्रेम का एक ऐसा विशुद्ध रूप जिसके जह्न में समर्पण है, त्याग है, जो मलिन नहीं है पतित नहीं है।उसके लिए इश्क जीवन एक रंगा हुआ दुपट्टा है जहां दुपट्टा तो उड़ गया बस रंग ही टंगे रह गए हैं। कहानी का दूसरा हिस्सा इक्सवी सदी को वो प्रेम है जिसके लिए इश़्क का मतलब 250 सीसी की गाडी हाथों में कोक और बर्गर का स्वाद है। रीमा के लिए इश़्क फेसबुक की डीपी की तरह बदलता रहता है। हर नई डीपी के साथ इश़्क का नाम और पता भी बदल जाता है।
कहानी का यह वह हिस्सा है जहां इश़्क का होना कोई बडी बात नहीं बडी बात है उसका इश़्क बने रहना। मनीषा ने भरपूर कोशिश की है कि वो इक्सवी सदी के इस लव, सेक्स और धोखे को तश्तरी में उतार सके और सफल भी हुई हैं। यह आजकल रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा भी बन चुका है, इन टीनएजर्स कपल्स के लिए इश़्क महज़ लंबी दूरी की यात्रा के कुछ छोटे स्टेशन मात्र ही हैं। लेकिन इन दोनों कहानियों के बीच कहानी का एक तीसरा हिस्सा भी मौजूद है शिवानी के रूप में। जिसके लिए इश़्क में होने का मतलब इबादत भी है, समर्पण भी है और त्याग भी है। वह नई और पुरानी उन दो पीढ़ियों के बीच को वो हिस्सा है जिसके लिए इश़्क को रोना भी पड़ता है और आंसुओं कोआंखों के समंदर में कैद भी रहना पड़ता है। शिवानी आज के लिए उस पीढ़ी का आधार है जिसके लिए प्रेम अब भी सम्मान है, मर्यादा है। शायद इसलिए मनीषा ने कहानी को वहीं लाकर छोडा जहां से वो इक और दुनिया का ताना बाना बुन सके जहां से वह कहानी का वो हिस्सा लिख सके जहां आकर ये इश़्क किसी रूमानियत में बदल सके।
समीक्षक- केशव पटेल
लेखिका- डॉ मनीषा शर्मा
उपन्यास- ये इश्क
प्रकाशक -नालंदा प्रकाशन
मूल्य- 149