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Friday, November 22, 2024

कश्मीर में अधिकारी, पुलिस या डॉक्टर नहीं बेटा, बाप या पति ही बचे हैं !!

पहली बार बच्चे ने “क” से लिखा कश्मीर

पानी में डूबे कश्मीर को संभाले कौन। श्रीनगर के बीचो बीच पीरबाग में पुलिस हेडक्वार्टर में अब भी पानी है। और श्रीनगर के करीब सभी 25 पुलिस थाने। वाटामालू, हरवन,कारानगर, खानयार कोठीबाग, करालखुर्द,लालबाजार,मैसूमा, निशात,पंथा चौक, नौहट्टा, राजबाग, सदर, सफाकदल, नौकाम पुलिस थाने तक। सभी 7 सितंबर की सुबह ही पानी में डूब चुके थे। और सिर्फ श्रीगर के पुलिस थाने ही नहीं बल्कि अनंतनाग के अचावल, अशमुगम बिजबेहरा, डुरु, करनाक और सदर अनंतनाग पुलिस थाने भी पानी में डूबे है। वडगाम का बीरवा, चादोरा, चरार-ए-शरीफ,खाकमाकम, नोबरा और न्योमा पुलिस थाने भी पानी में डूब चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि झेलम के किनारे कुलगाम, शोपिंया, पुलवामा, गांधारबल, बांदीपुर की हर गली मोहल्ले में 7 सितंबर की सुबह तक 5 से 7 फीट पानी आ चुका था। और धीरे धीरे यह पानी 12 फीट तक चढ़ा। यानी सचिवालय हो या पुलिस स्टेशन बीते रविवार को जब सभी पानी में समाया तो ब्लैक संडे का मतलब कश्मीर को अब अपने भरोसे हर मुसीबत से सामना करना था। पुलिस-प्रशासन का कोई अधिकारी इस स्थिति में था ही नहीं कि वह हालात से खुद को बचाये या बची हुई हालात में किसे संभाले या संभालने के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सबकुछ चरमरा चुका था। चरमराया हुआ है। 
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इतना ही नहीं सबसे सक्रिय लाल चौक पर भी पानी चढ़ना शुरु हुआ तो वहा मौजूद सेना के ट्रक सबसे पहले पोस्ट छोड़ ट्रक पर ही चढ़े। लेकिन धीरे धीरे पानी सात से आठ फीट पहुंच गया तो उसके बाद सिर्फ लाल चौक ही नहीं बल्कि समूचे कश्मीर में मौजूद सेना के सामने यह संकट आया कि सुबह जब ड्यूटी बदलती है तब जिन जवानों को ड्यूटी संभालने पहुंचना था, वह पहुंच ना पाये क्योंकि सेना के कैंप को भी पानी अपनी आगोश में ले चुका था। कैंप से बाहर निकलने के लिये सेना का ट्रक नहीं बोट चाहिये थी। हालात बद से बदतर होते चले जा रहे थे और किसे क्या करना है या हालात कौन कैसे संभालेगा इसकी कोई जानकारी किसी के पास नहीं थी। यानी राज्य की सीएम उमर अब्दुल्ला का संकट यह था कि वह किसे निर्देश दें। और निर्देश देने के बाद घाटी में राहत के लिये कौन सी व्यवस्था करें। सीएम हाउस से बाहर निकलने के लिये किस्ती या बोट चाहिये था। क्योंकि श्रीनगर के हैदरपुरा में पानी पांच फीट पार कर चुका था, जहां सीएम हाउस है। डाउन टाउन की संकरी गलियों के किनारे पुराने मकान की उम्र तो पानी की तेज धार के सामने 50 घंटे के भीतर ही दम तोड़ने लगी। एक मंजिला छोड, दो मंजिला और दो मंजिला छोड छत के अलावे कहां जाये यह डाउन-टाउन ही नहीं समूचे कश्मीर की त्रासदी बन गयी। चौबिस घंटे पहले तक जिस अधिकारी, जिस पुलिस वाले या जिस जवान के इशारे पर सबकुछ हो सकता था। सात सितंबर की सुबह से हर कोई सिर्फ बेटा, बाप, या पति ही था । जिसे अपने परिवार को बचाना था। 

लेकिन बचाने के लिये खुद कैसे बचे यह बेबसी भी छुपानी थी। यह बेबसी कितनी खतरनाक रही इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि अपनी आंखों के सामने अपनो की मौत देखने के बदले राहत के लिये इंतजाम के लिये कई बेटे बाप कई पति घर से निकले। और जो लौटे उन्हें अपना नहीं मिला। जो नहीं लौटे है उन्हें उनके अपने अब भी खोज रहे हैं। हालात संभाले कौन और कैसे यह सवाल इसलिये बीते पांच दिनों से सामने नहीं आया क्योकि बिगडे हालात में संभालने वाला तो कोई होना चाहिये। त्रासदी ने तो डाक्टर और मरीज दोनों को एक ही हालत में ला खड़ा किया। शेर-ए-कश्मीर इंस्ट्टीयूट आफ मेडिकल साइसं का गर्ल्स हॉस्टल डूब गया। यह रह रही दो सौ छात्रायें कैसे निकली और कहां गयीं, यह हर कोई खोज रहा है । 7 सितंबर को ही हॉस्पीटल की पहली मंजिल पानी में डूब चुकी थी और उस वक्त सोशल मीडिया पर एक ट्वीट आया, -लोकल्स, प्लीज हैल्प , 200 फीमेल रेसिडेन्ट डाक्टर्स आर इन गवर्नमेंट मेडिकल कालेज। लेकिन लोकल्स क्या करते या क्या किया होगा उन्होंने क्योंकि हर कोई तो खुद को बचाने में ही लगा रहा। और इस दौर में कैसे समूचे कश्मीर के किसी डाक्टर के पास कुछ भी नहीं बचा। और अब जब हॉस्पीटल में इलाज शुरु हुआ तो कैसे दवाई से लेकर इलाज के लिये हर छोटी से छोटी चीज भी डाक्टरों के पास नहीं है। और अफरातफरी के इस दौर में सेना के डाक्टर और उनके डाक्टरी सामान ही कश्मीर के हर घाव पर मलहम है। क्योंकि मौजूदा वक्त में कश्मीर का हर अस्पताल पानी में डूबा हुआ है। 

बेमीना में डिग्री कालेज के सामने केयर हास्पीटल न्यूरोलाजी सेंटर। अमीनाबाग का अलशीफा अस्पताल। नौगांव बायपास के करीब गुलशननगर का अहमद अस्पताल। राजबाग का मॉडन हास्पीटल। किडनी हास्पीटल । यहां तक की सीएम हाउस के ठीक सामने हैदरपुरा बायपास पर मुबारक हास्पीटल भी पानी में इस तरह समाया हुआ है कि वहां इलाज तो दूर अस्पताल के भीतर जाना भी मुश्किल है। यानी जिन हालातों में कश्मीर के दर्जन भर अस्पतालों में पहले से मरीज थे। सात सितंबर की सुबह के बाद कौन कहां गया। यह किसी को नहीं मालूम क्योकि हर किसी खुद ही खुद को बचाना था और अस्पताल में भर्ती मरीजो को सिर्फ इतना ही कहा गया कि इलाज तो अब मुश्किल है और पहले हर कोई सुरक्षित जगह चला जाये। सुरक्षित का मलतब इलाज छोड जान बचाने का है। और कश्मीर में छोटे बडे 28 अस्पताल पानी में डूबे हुये है। जिनमें तीन हजार बेड हैं। यानी तीन हजार मरीज कहा गये किसी को नहीं पता। यानी कश्मीर के इस मंजर को कौन कैसे संभाले यह अपने आप में ही सबसे बड़ा सवाल 7 सितंबर के बाद से जो शुरु हुआ वह आज भी जारी है क्योंकि जिसे भी हालात संभालने के लिये निकलना था वह 7 सितंबर के बाद से अपने अपने दायरे में बेटा, बाप या पति  हो कर ही रह गया क्योंकि आपदा से निपटने का कोई सिस्टम है नहीं। यहा तक की जिस मौसम विभाग को यह नापना है कि कश्मीर में कितनी बरसात हुई या बाढ का कितना पानी घुसा हुआ है, वह दफ्तर भी पानी में डूब गया। इन हालातों में सेना हेलीकाप्टर और बोट से जहां पहुंच सकती थी वहां पहुंचने की जद्दोजहद में लगी हुई है।

राहत का सामान श्रीनगर और जम्मू हवाई अड्डे पर आ रहा है और हेलीकाप्टर उसे ले उड़ रहा है। लेकिन घाटी से पानी निकले कैसे। पंप आयेंगे कहां से। और पुलिस प्रशासन नाम की चीज जो पूरी राज्य की व्यवस्था को चलाती, वह जब कश्मीर के हर मोहल्ले में बाप बेटे या पति-पत्नी बनकर अपनो की जान बचाने में लगी हुई है तो कल्पना कीजिये कश्मीर के मंजर का मतलब है क्या। इन हालातों में अब गृह सचिव को ही कश्मीर के हालात संभालने हैं। सीएम हाउस, सेना , पुलिस, राहत सामग्री, राज्यों से आने वाली मदद, डाक्टर। तमाम राज्यों के अधिकारी। यानी तमाम परिस्थितियों के बीच तालमेल कैसे बैठे और जिस हालात में समूचे कश्मीर के अधिकारी या कहे कश्मीर का पुलिस प्रशासन भी कही ना कही अपने अपने घर में एक आम नागरिक होकर बाढ़ की त्रासदी से खुद को बचाने में ही लगा हुआ है उसमें राहत कब कैसे किसे मिलेगी यह सवाल अब भी उलझा हुआ है। सीधे कहें तो कश्मीर का मंजर जितना डराने वाला है, उसमें राहत व्यवस्था लगातार पहुंच तो रही है लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल सिलसिलेवार तरीके से हर क्षेत्र में राहत उन लोगो तक पहुंचाने की है जहां अब भी पानी है और उन जगहों पर पीने का पानी तक नहीं पहुंचा है। असल में हालात को समझने और राहत व्यवस्था करने में सबसे बडी भूल यह हो रही है कि कश्मीर में कोई व्यवस्था बची नहीं है, इसे केन्द्र अभी तक समझा नहीं है और राज्य सरकार यह मान नहीं रही है कि उसके हाथ में सिवाय कश्मीर के नाम के अलावे कुछ नहीं है। लेकिन इस मंजर में पहली बार हर बच्चा “क” से कश्मीर लिखना जरुर सिख चुका है।

:-  पुण्य प्रसून बाजपेयी

punya-prasun-bajpaiलेखक परिचय :- पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।

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