गोवा विधानसभा के चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बाद भी जब कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा पेश नही करके जो भूल की थी, उसकी कीमत उसे विपक्ष में बैठकर चुकानी पड़ रही है। कांग्रेस इस आशा में रही कि सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की जो परंपरा है, राज्यपाल उसी का अनुशरण करेंगे, परंतु राज्यपाल ने दूसरे नम्बर की पार्टी भाजपा को आमंत्रित कर कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। भाजपा ने निर्दलीयों के साथ मिलकर सरकार बना ली एवं कांग्रेस देखती रह गई। गोवा के मुख्यमंत्री की कुर्सी सफलता से संभालने के लिए केंद्र से तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को गोवा भेजा गया। भाजपा के इस फैसले पर आश्चर्य भी व्यक्त किया गया कि रक्षा मंत्री के रूप में अपने दायित्वों का बखूबी निभाने वाले ईमानदार राजनेता पर्रिकर को आखिरकार एक छोटे से राज्य की सत्ता हासिल करने के लिए आख़िर क्यों इस्तेमाल किया गया।
गौरतलब है कि मनोहर परिकर के ही रक्षा मंत्रित्व के कार्यकाल में ही सेना ने एतिहासिक सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दाहिनें हाथ के रूप में मनोहर पर्रिकर ने रक्षा मंत्री पद पर अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। उसके लिए उन्हें देशवासियों का असीम स्नेह भी मिला था, परन्तु गोवा जैसे छोटे राज्य की सत्ता के मोह में भाजपा ने पर्रिकर को वही पंहुचा दिया है जहां से उन्होंने रक्षा मंत्री के पद तक के सफर की शुरुआत की थी। पर्रिकर ने डेढ़ वर्ष बाद एक बार फिर गोवा के मुख्यमंत्री पद की बागडौर संभाली तो उनके सामने सत्तारूढ़ गठबंधन को एकजुट रखने की चुनौती थी। उन्होंने यह चुनौती स्वीकार की और कांग्रेस को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि उसे अगले पांच सालों तक विपक्ष में ही बैठना पड़ेगा, लेकिन उनकी गंभीर बीमारी अब उनके दायित्व के निर्वहन में बाधक बन रही है।
अमेरिका में इलाज कराने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि अब वे पहले की भांति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे ,लेकिन उनके एम्स में भर्ती होने के बाद राज्य नीत गठबंधन पर एक बार फिर अस्थिरता के बादल मंडराने लगे है। सत्ता में पर्रिकर की अनुपस्थिति ने भाजपा को मुश्किल में डाल दिया है। राज्य के सरकारी कामकाज में भी अड़चने पैदा हो रही है। भाजपा के सामने अभी यह दुविधा है कि पर्रिकर के समान उसके पास राज्य में कोई दूसरा नेता नहीं है, जो गठबंधन को एकजुट रख सके। अगर ऐसा नहीं होता तो पर्रिकर को राज्य में भेजने की नौबत ही नहीं आती। यद्यपि भाजपा ने अपने पास पर्याप्त बहुमत होने का दावा किया है, लेकिन उसे यह भी चिंता है कि कांग्रेस कही उसके सहयोगी दलों पर डोरे डालने में कामयाब न हो जाए। कांग्रेस ने तो सरकार बनाने का दावा तक पेश कर दिया है और उस दिशा में अपनी कोशिशें भी तेज कर दी है। अब देखना यह है कि भाजपा सत्तारूढ़ गठबंधन की एकजुटता को कितना कायम रख पाती है।
मालूम हो कि गत विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को सरकार बनाने के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने इसलिए समर्थन दिया था कि भाजपा राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए पुनः मनोहर पर्रिकर को ही मनोनीत करे। पर्रिकर पहले भी मुख्यमंत्री के रूप में जनता के बीच में अपनी खासी लोकप्रियता हासिल कर चुके है, इसलिए उनके नाम पर ही दूसरे दलों ने भी सहमति जताई थी। चुनाव में मात्र 14 सीटों के साथ भाजपा ने गोवा फॉरवर्ड पार्टी के 3 महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के 3, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के 1 तथा 3 निर्दलीय विधायकों के साथ गठबंधन कर मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में सरकार बनाई थी, वह सुचारु रूप से काम कर रही थी ,लेकिन पर्रिकर की बीमारी के बाद अस्थिरता में आई सरकार को लेकर अब भाजपा यह सोचने पर विवश हो गई है की क्या उसे अब नया नेता चुन लेना चाहिए । उसे इसकी चिंता भी तो है कि नए नेता के साथ वह गठबंधन कायम रखने में कामयाब नहीं हो पाई तो सत्ता उसके हाथ से खिसक सकती है।
इधर भाजपा अब इस तर्क को गलत कैसे ठहरा सकती है कि गोवा में राज्यपाल को कांग्रेस को सबसे बड़े दल के रूप में होने कारण सरकार बनांने के लिए आमंत्रित करना था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया वही ठीक इसके विपरीत कर्नाटक में राज्य पाल ने कांग्रेस जेडीएस के गठबंधन का दावा स्वीकार न कर सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। हालांकि भजापा को कर्नाटक में मुंह की खानी पड़ी औऱ वह गोवा में अपने ही द्वारा किए गए काम के कारण कर्नाटक में बेबस नजर आई। कुल मिलाकर भाजपा के सामने यह दुविधा है कि वह दोनों राज्यों में खुद को सही नहीं ठहरा सकती। अगर गोवा में उसने सही किया है तो कर्नाटक में वह गलत थी और यदि वह कर्नाटक में सही थी तो गोवा में उसे दावा पेश नहीं करना था।
: कृष्णमोहन झा
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)