मंहगाई,बेरोज़गारी,भ्रष्टाचार,जातिवाद,सांप्रदायिकता,किसानों की खुदकशी तथा महिलाओं पर होने वाले अत्याचार का सामना कर रहे हमारे देश में बड़ी ही चतुराई के साथ राजनीतिज्ञों ने राष्ट्रभक्ति बनाम राष्ट्रद्रोह नामक एक ऐसी बहस छेड़ दी है जिससे भारतीय समाज दो भागों में विभाजित होता दिखाई दे रहा है। हालांकि यह बहस राष्ट्रभक्ति बनाम राष्ट्रद्रोह के बनाने की कोशिश ज़रूर की जा रही है परंतु स्वयं को राष्ट्रभक्त बताने वाले लोगों की राजनैतिक तथा वैचारिक पृष्ठभूमि और उनके कारनामे कुछ ऐसे हैं जिन्हें देखकर इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों की तथाकथित राष्ट्रवादिता ही संदिग्ध प्रतीत होती है। दूसरी बात यह है कि भारतमाता के ही जिन सपूतों को यह अपने ढंग से राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रद्रोही साबित करने की कोशिश कर रहे हैं वह अपने-आप में किसी अपराध से कम नहीं। क्योंकि भारतवर्ष में जन्मे तथा यहां के संविधान में निष्ठा रखने वाले एवं भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में अपनी आस्था रखते हुए यहां की संसदीय व्यवस्था में शिरकत करने वाले लोगों को मात्र अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए केवल छोटे-मोटे बहाने ढूंढकर उन्हें राष्ट्रविरोधी बता देना या उनकी राष्ट्रभक्ति अथवा राष्ट्रवादिता पर संदेह जताना कदापि उचित नहीं है। देश में चाहे दक्षिणपंथी विचारधारा हो,वामपंथी सोच के लोग हों या मध्य मार्गीय विचारधारा के लोग किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने-आप को राष्ट्रभक्त व किसी दूसरे को राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रद्रोही होने का प्रमाणपत्र बांटता फिरे।
इन दिनों देश की जनता को गुमराह करने के लिए ची$खने-चिल्लाने,दूसरों की बात न सुनने तथा अपने पाखंड को शोर-शराबे के बीच पेश करने का माहौल तैयार किया जा रहा है। कल तक राष्ट्रीय तिरंगे को अमान्य बताने वाले और अपनी विचारधारा का अलग ध्वज फहराने वाले लोग हाथों में तिरंगा लेकर भारत माता की जय और वंदे मात्रम के नारे लगाते दिखाई दे जाते हैं। सवाल यह है कि देश में जन्मा कौन सा भारतीय नागरिक राष्ट्रीय गान नहीं गाता,भारत माता की जय नहीं बोलता या वंदे मातरम कहने से इंकार करता है? यह स्वयंभू राष्ट्रवादी लोग जब देखो तब कभी किसी लेखक,किसी बुद्धिजीवी,किसी नेता या छात्र नेता की पिटाई में यहां तक कि उसकी हत्या तक में शामिल होते दिखाई देते हैं। यहां भी वे स्वयं को राष्ट्रभक्त व राष्ट्रवादी बताते हैं जबकि जिसके विरुद्ध यह हिंसा पर उतारू होते हैं उसे राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रद्रोही बताते हैं। यदि कोई व्यक्ति या संगठन गरीबों या मज़दूरों अथवा किसानों की हमदर्दी में उनके ह$क की आवाज़ बुलंद करता है तो उसे या तो यह शक्तियां माओवादी होने का प्रमाणपत्र दे देती हैं या फिर विकास विरोधी ठहराकर उसकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह खड़ा कर देती हैं। जो लोग भारत व पाकिस्तान के मध्य बेहतर रिश्ते बनाने की बात करते हैं, अमन की आशा जैसी तहरीक चलाते हैं या साहित्यिक व सांसकृतिक स्तर पर मेल-मिलाप बढ़ाए जाने की वकालत करते हैं उन लोगों को यह शक्तियां पाकपरस्त या ‘कथित धर्मनिरपेक्षतावादी’ बताकर उनका विरोध करते हैं। परंतु भारतीय प्रधानमंत्री स्वयं पाक प्रधानमंत्री की नातिन की शादी के बहाने अचानक बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के पाकिस्तान ऐसे जा पहुंचते हैं गोया भारत का पाकिस्तान से अधिक सगा संबंधी या घनिष्ठ मित्र ही कोई न हो? जबकि पिछली यूपीए सरकार जब भारत-पाक के मध्य बातचीत तथा परस्पर विश्वास बढ़ाने की कोशिशों में लगी थी तो यही कल के विपक्षी और आज के सत्ताधारी यह कहा करते थे कि आतंकवाद व आतंकी घुसपैठ के साथ-साथ बातचीत $कतई नहीं हो सकती।
इन्हीं स्वयंभू राष्ट्रवादियों और राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वालों के साथी नेता यहां तक कि कई सांसद व केंद्रीय मंत्री आए दिन देश के उन लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात करते रहते हैं जो इनसे वैचारिक सहमति नहीं रखते। संवैधानिक पदों पर बैठने वाले जि़म्मेदार व्यक्तियों द्वारा भारतीय नागरिकों को इस प्रकार की बातें कहना क्या राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रवादिता की निशानी है? इसी विचारधारा के लोग महात्मा गांधी तथा पंडित नेहरू को तथा उनकी नीतियों को कोसते रहते हैं। हालांकि दुनिया को दिखाने के लिए अथवा सार्वजनिक समारोहों में गांधी व नेहरू की कभी-कभी तारी$फ करते भी दिखाई देते हैं। परंतु इनका समर्थन करने वाली शक्तियां जो वैचारिक रूप से इन्हीं के साथ खड़ी नज़र आती है वे महात्मा गांधी के हत्यारे का मंहिमामंडन करती हैं। यहां तक कि गोडसे की मूर्ति लगाने तथा उसको फांसी पर लटकाए जाने के दिन को शौर्य दिवस के रूप में मनाती हैं। परंतु ऐसे लोग या संगठन इन स्वयंभू राष्ट्रवादी व राष्ट्रभक्त लोगों की नज़रों में राष्ट्रविरोधी नहीं हैं। बजाए इसके यह शक्तियां इनके समर्थन में और इनके साथ भी खड़ी दिखाई देती हैं। दूसरों को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले और इन दिनों जगह-जगह हाथों में तिरंगा थामकर अपनी राष्ट्रभक्ति का ढोंगपूर्ण प्रदर्शन करने वाले यही लोग न तो अपनी प्रतिदिन होने वाली प्रात:कालीन शाखा में तिरंगा ध्वज फहराते हैं न ही इस विचारधारा से संबंधित संसथाओं,उनके कार्यालयों अथवा इनसे संबंधित विद्यालयों में तिरंगा ध्वज फहराया जाता है। इनके हाथों में तिरंगा तभी नज़र आता है जब यह लोग मीडिया के समक्ष किसी दूसरे पक्ष को राष्ट्रद्रोही साबित करने की कोशिश करते हैं। गोया तिरंगे को भी यह ता$कतें समय-समय पर मात्र शस्त्र के रूप में ही इस्तेमाल करती हैं।
और यदि इसी दक्षिणपंथी विचारधारा के जनक रहे नेताओं या इसका पोषण करने वाले लोगों के इतिहास पर नज़र डालें तो हमें जो तस्वीर दिखाई देती है वह इनके राष्ट्रवादिता के ढोंगपूर्ण प्रदर्शन से ठीक विपरीत है। अर्थात् इतिहास के अनुसार कभी यह स्वयंभू देशभक्त लोग अंग्रेज़ों से लिखित रूप में मा$फी मांगते दिखाई देते हैं। कभी अपने स्वाधीनता संग्राम में लगे क्रांतिकारी साथियों के नाम अंग्रेज़ शासन को बताकर स्वयं अपनी जान बचाते यानी अंग्रेज़ों की मुख़बिरी करते दिखाई देते हैं तो यही लोग कभी स्वतंत्रता के आंदोलन में भारतवासियों की शिरकत को ऐच्छिक घोषित करते दिखाई देेते हैं। आज यह लोग भले ही भारत व पाकिस्तान विभाजन का विरोध करते सुनाई देते हों परंतु 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की मुहिम में जिस प्रकार मुस्लिम लीग अंग्रेज़ों के साथ खड़ी थी उसी प्रकार इन्होंने ने भी अंग्रेज़ों का ही साथ दिया था। 1947 में स्वतंत्रता के उपरांत भारतीय धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करने से इन्हीं लोगों ने इंकार किया था। आज जो लोग राष्ट्रीय ध्वज अर्थात् तिरंगे व भारतीय संविधान के स्वयंभू हिमायतकार बने दिखाई दे रहे हैं यही लोग और इनके वैचारिक पूर्वज भारतीय गणतंत्र के संविधान को नकार कर मनुस्मृति को लागू करने की मांग करते रहे हैं। कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों को चीन का पैरोकार बताने वाले लोगों ने हमेशा हिटलर जैसे तानाशाह की नीतियों का अनुसरण व उसकी खुलकर प्रशंसा की है। यह वह शक्तियां हैं जिन्होंने चोला तो राष्ट्रभक्ति का ओढ़ा हुआ था परंतु जिस समय नाथू राम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की उस समय इन्हीं की विचारधारा रखने वाले लोगों ने मिठाईयां बांटकर गांधी की हत्या पर जश्र मनाया था।
और पाखंडपूर्ण राष्ट्रवादिता के प्रदर्शन की यह स्थिति अब यहां तक आ पहुंचंी है कि चाहे यह स्वयं अ$फज़ल गुरू की हमदर्द व पैरोकार तथा उसे शहीद बताने वाली पीडीपी से मिल कर कश्मीर में सरकार क्यों न बनाएं,स्वयं उल्$फा और बोडो जैसे संगठनों के साथ नर्म रु$ख क्यों न अ$िख्तयार करें परंतु मात्र अपनी राजनैतिक कुंठा तथा राजनैतिक विरोध के चलते इन्हें देशभर के सभी धर्मनिरपेक्ष दल,समाजवादी विचारधारा के लोग,कांग्रेसी,वामपंथी,गांधीवादी आदि सभी विचारधारा रखने वाले लोग या तो राष्ट्रद्रोही अथवा राष्ट्रविरोधी नज़र आते हैं या फिर उनके पैरोकार या उनके साथ खड़े दिखाई देते हैं। देश के अल्पसंख्यकों तथा दलित वर्ग के लोगों की राष्ट्रभक्ति इन्हें संदिग्ध नज़र आती है। स्वयं भले ही यह लोग प्रतिदिन सुबह-सवेरे लाठियां लेकर अपने ध्वज विशेष के समक्ष नतमस्तक होते दिखाई दें या विजयदशमी के दिन शस्त्रों की पूजा करते और विभिन्न नगरों व महानगरों में शस्त्रों व लाठियों सहित पथ संचालन नामक परेड करते नज़र आएं परंतु यह अपनी इन कारगुज़ारियों को तो राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में गिनते हंैं। परंतु यदि कोई व्यक्ति या कोई संगठन अथवा धर्मनिरपेक्षतावादी लोग ज़ुल्म,अत्याचार,सांप्रदायिकता,भूख-भ््राष्टाचार,बेरोज़गारी या किसानों की आत्महत्या को लेकर या छात्रों के विरुद्ध दमनकारी नीतियों का विरोध करते हुए सडक़ों पर उतरते दिखाई दें तो यह इन्हीं की नज़रों में बहुत बड़ा अपराध है, ऐसी गतिविधियां राष्ट्रद्रोह अथवा अराजकता की श्रेणी में भी आ सकती हैं। यहां यह बताने की ज़रूरत नहीं कि पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे व फसाद यहां तक कि दलित उत्पीडऩ जैसे मामलों में भी चाहे वह किसी भी पार्टी के शासनकाल में क्यों न हुए हों और पूरे देश में सांप्रदायिकता व जातिवाद को हवा देने की जो दिन-रात कोशिशें की जाती रहती हैं उन सब में इसी विचारधारा के लोगों के नाम पहले भी हमेशा आगे रहे हैं, इसी विचारधारा के लोग गिरफ्तार किए गए हैं और अब भी यही शक्तियां अपने उसी राष्ट्रविरोधी,जनविरोधी तथा देश को धर्म व जाति के आधार पर विभाजित करने वाले मिशन पर सक्रिय हैं। इसलिए देश की जनता को इनके द्वारा छेड़े गए तथाकथित देशभक्ति के ढोंगपूर्ण राग को बड़ी बारीकी से समझने की ज़रूरत है।
निर्मल रानी
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