राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बड़ी हिम्मत दिखाई है। उन्होंने पते की बात कह दी है। उन्होंने सम्मान वापसी की भेड़-चाल को अनुचित बताया है। उन्होंने आज वही बात कही है, जो पहले दिन से मैं कहता और लिखता आया हूं। जब दांभोलकर और कालबुर्गी की हत्या हुई तो दोनों मौकों पर मैंने कड़ी भत्र्सना की।
शायद देश में सबसे पहले उन हत्याओं पर मैंने लिखा। और यही दादरी के अखलाक के बारे में हुआ लेकिन सम्मान वापस करनेवाले किसी लेखक ने न तो एक शब्द कहा और न लिखा। ‘नया इंडिया’ और ‘भास्कर’ ने मेरे लेख तत्काल ज्यों के त्यों छापे। मुझे भी दर्जनों राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं लेकिन मेरे दिमाग में उन्हें लौटाने का ख्याल तक नहीं आया।
मुझे लगा कि जिन लोगों ने इन घटनाओं के कई दिनों बाद अपने सम्मान लौटाने की घोषणा की, वे एक तरह की नाटक-मंडली में शामिल हो गए। आश्चर्य है कि वे साहित्यकार हैं, विचारक हैं, लेखक हैं, कलाकार हैं लेकिन वे तर्कशील नहीं हैं।
क्यों नहीं हैं? उन्होंने खुद से यह तर्क क्यों नहीं किया कि इन सम्मानों और पुरस्कारों का उन घटनाओं से क्या लेना-देना है? क्या साहित्य अकादमी या संगीत अकादमी या सरकार ने उन लोगों की हत्या करवाई थी? या अकादमी की कोई पुस्तक पढ़कर या कोई गाना सुनकर वे हत्यारे हत्या के लिए प्रेरित हुए थे? लगभग सभी सम्मान पिछली सरकारों ने दिए थे। आपको वे लौटाने थे तो उन्हें लौटाते। राम का माल आप श्याम को क्यों लौटा रहे हैं?
यदि आप इस बात पर गुस्सा है कि नरेंद्र मोदी ने तत्काल इन हत्याओं की भत्र्सना क्यों नहीं की तो मैं आपके दिल की बात आपसे भी ज्यादा जोर से कहता हूं लेकिन मैं आपसे पूछता हूं कि क्या आप नरेंद्र मोदी को महात्मा गांधी की तरह बड़ा आदमी मानते हैं, जिसके बोलने भर से इस तरह के कांड रुक जाएंगे? मोदी सिर्फ प्रधानमंत्री है और वह पद सिर्फ एक कुर्सी है।
दर्जन भर प्रधानमंत्री यह देश देख चुका है। उनमें से कितने देश के सचमुच नेता रहे हैं? यदि आप मोदी-विरोधी हैं तो आप खुलकर मैदान में क्यों नहीं आते? आप सम्मान-वापसी की ओट क्यों ले रहे हैं? मोदी की उस चुप्पी और आपकी इस चुप्पी में फर्क क्या है? आपने मुंह खोला तो तिल का ताड़ बना और सारी दुनिया में भारत की बदनामी हुई। आप लोगों की जगहंसाई भी साथ-साथ हुई। देश का ‘नेतृत्व’ तो नौटंकी में मस्त है। हमारे लेखक और कलाकार भी जवाबी नौटंकी में निमग्न हैं।
लेखक:-डॉ. वेदप्रताप वैदिक