भारत और चीन का एक स्थाई संबंध देखा जाए तो बौद्ध धर्म की उस पवित्रता में है जिसमें करुणा, प्रेम एवं अहिंसा का संदेश रचा बसा है। दरअसल, अभिलेखों से पता चलता है कि लगभग 80 भारतीय बौद्ध भिक्षुओं ने चीन की यात्रा की और लगभग 150 चीनी बौद्ध भिक्षुओं ने भारत में शिक्षा प्राप्त की। और यह 10वीं और 11वीं शताब्दी में हुआ। हमारे शताब्दियों पुराने संबंध अध्यात्म, शिक्षा, कला और व्यापार पर भी आधारित हैं। यानी इस आवागमन की प्राचीन परम्परा का हिस्सा है प्रधान मंत्री की चीन यात्रा।
इस बार की यात्रा के दौरान भारत के प्रधान मंत्री ने फूदान विश्वविद्यालय में गांधीवाद दर्शन केन्द्र का शुभारंभ किया और संबोधित भी किया। इसका एक मायने यह निकाला जा सकता है कि बुद्ध के बाद गांधी का भी छितिज बढ़ रहा है जो भारत चीन मैत्री स्थापना में भविष्य का एक संबल हो सकता है। लेकिन फिर भी भारत और चीन की मित्रता प्रायः संदेह से देखी जाती है। आजादी के कुछ वर्षों बाद भारत के शिल्पकार माने जाने वाले नेहरू ने हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा दिया था। 21 वीं सदी के दूसरे दशक में भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी जब चीन प्रवास पर एक बार पुनः बंधन को प्रगाढ़ बनाने की कोशिश में हैं तो भी कूटिनीतिक मामलों के विशेषज्ञ इस बात पर आशंका जता रहे हैं कि ये बंधन और इस बंधन का भविष्य स्थाई होगा, इस पर संदेह है।
प्रधानमंत्री के चीन दौरे के दौरान भारत और चीन दोनों नेताओं का मानना था कि आपसी रिश्तों को मजबूत करना एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है। दोनों
देशों ने यह भी माना कि एक दूसरी की चिंताओं, हितों और आकांक्षाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करें और संवेदनशील रहें। दो सबसे बड़े विकासशील
देशों, उभरती अर्थव्यवस्थाओं और वैश्विक ढांचे के दो महत्वपूर्ण ध्रुवों के बीच रिश्तों का यह रचनात्मक मॉडल आपसी रिश्तों और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को मजबूत करने का नया आधार है।
इस यात्रा से दोनों देश की यह प्रतिबद्धता जाहिर हुई कि राजनीतिक वार्ता और सामरिक संवाद को मजबूती, नजदीकी विकासात्मक साझेदारी में अगला कदम बढ़ाने की तत्परता, संस्कृति और लोगों के बीच संपर्क, सहयोग के नए क्षेत्र की खोज, सीमा-पार से सहयोग, क्षेत्रीय और वैश्विक एजेंडा की स्थापना और सार्क में सहयोग बढ़ाने पर सहमति जरूरी है। इसके साथ ही वैश्विक चुनौती से निपटने में उचित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, अनुकूलन और किफायत तथा वित्तीय सहयोग पर सहमति बनी तथा भारत और चीन की सरकार के बीच जलवायु परिवर्तन के बारे में संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया।
जो भी होप्रधान मंत्री के इस मैत्री यात्रा को सकारात्मक मानना चाहिए। सकारात्मक इसलिए भी क्योंकि चीन और भारत के बीच वैर नहीं है बल्कि संप्रभुता के विस्तार और अपने ताकत को दुनिया में अधिक दिखाने की एक कोशिश है। यह कोई भी संप्रभु राष्ट्र अपने विस्तार के लिए करता है। जहां तक दोस्ती की निरन्तरता का सवाल है तो दुनिया के दूसरे देश इसको लेकर खुद चिंतित होते रहे हैं जब-जब ऐसी यात्राएं भारत की ओर से या चीन की ओर से की गई हैं। दुनिया के बहुत से ऐसे देश हैं जो इन दोनों देशों को एकसूत्र में बंधते हुए नहीं देखना चाहते क्योंकि चीन और भारत की एकता एशिया के दो बड़े लोकतंत्रों का गठबंधन है। अगर यह गठबंधन टिकाऊ हो जाएगा तो पूरे दुनिया में कुछ अलग तश्वीर भी उभरकर आ सकती है, डर ये भी हैं। फिलहाल, भारत के प्रधान मंत्री जो प्रायः आत्मविश्वास से दुनिया के सामने भारत को प्रस्तुत करने में जुटे हुए हैं उनको देर-सबेर इस यात्रा और दोस्ती के परिणाम को भी पुष्ट करना होगा।
इस बात की भी जरूरत पड़ेगी कि हमारे बीच पांच साल के कम से कम अनुभव ठीक बने रहें क्योंकि आम जनता और मीडिया तो बहुत जागरूक है। और भारत के प्रधान मंत्री का अभी केवल एक वर्ष बीता है अभी चार साल और मजबूती से अपने पक्ष में वे सभी अवसर जुटाने होंगे जिसकी अपेक्षा प्रायः उगते हुए सूरज से की जाती है। लेकिन इन सबके बीच यह देखा जाए तो प्रधान मंत्री की चीन यात्रा कई मायने में दिलचस्प एवं शानदार रही। चीन में साढ़े पांच हजार लोगों को तालियों के साथ मोदी जी ने संबोधित किया। वे कई महत्त्वपूर्ण आधिकारिक सभा में शिरकत किए और एक गांधी दर्शन के सेण्टर का उन्होंने उद्घाटन किया।
नरेन्द्र मोदी ने एक दूसरे विश्वविद्यालय में कईसवालों एवं जवाबों में भी भाग लिए तो वहीं कई देव स्थलों का दर्शन भी किया। अधिकांश बार ऐसी यात्राओं में इन्हें शामिल किया जाता रहा है लेकिन प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस यात्रा के साथ आपने और चीन के बीच जो सहयोगात्मक रवैया अपनाते हुए कई सामरिक मामलों पर सहमति बनाई वह यदि सच्चे मन से स्वीकार की जाएगी तो यह कहा जा सकता है कि दो बड़े लोकतंत्रों का गठबंधन नए इतिहास रचेंगे। प्रधान मंत्री ने इस इतिहास सृजन का उद्घोष भी किया लेकिन कुछ अपेक्षाएं भी थीं इसमें। उन्होंने कहा कि उभरता एशिया चाहता है कि वैश्विक मामलों में उसे अपनी बातें और पुरजोर ढ़ंग से रखने का अधिकार मिले। भारत और चीन दुनिया में अपनी भूमिका बढ़ाए जाने की मांग करते हैं।
यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अथवा नया एशियाई ढांचागत निवेश बैंक में सुधार के रूप में हो सकता है।लेकिन, एशिया की आवाज तभी और ज्यादा दमदार होगी एवं हमारे देश की भूमिका तभी ज्यादा प्रभावशाली होगी, जब भारत और चीन हम सभी के लिएऔर एक-दूसरे के लिए एक स्वर में बोलेंगे। सरल शब्दों में कहें तो, 21वीं शताब्दी के एशियाई सदी साबित होने की संभावनाएं इस बात पर काफी हद तक निर्भर करेंगी कि भारत एवं चीन व्यक्तिगत रूप से क्या हासिल करते हैं और हम आपस में मिलजुलकर क्या-क्या करते हैं। 2.5 अरब जोड़े हाथों की एक साथ संवरती किस्मत हमारे क्षेत्र एवं मानवता दोनों के ही हित में होगी। यदि इस मंत्र की अनुगूंज और इस इच्छा की पूर्ति दिल से की गई तो भारत और चीन के बीच सदभावना की बयार पूरी सभ्यता को सार्थक वातावरण देगी ।
लेखक भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील के संपादक एवं वर्तमान में यूजीसी- ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेण्ट सेण्टर, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से सम्बद्ध हैं।
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
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