सर्वोच्च न्यायालय ने रामजन्म भूमि बाबरी, मस्जिद विवाद को मध्यस्थता के जरिए सुलझाने की नई पहल की है। सर्वोच्च न्यायालय ने संबधित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा था कि बाबर ने जो किया है, उस पर हमारा नियंत्रण नहीं था। अब हमारी कोशिश विवाद को सुलझाने की होनी चाहिए। इसे मध्यस्थता से सुलझाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी इसी मंशा के अनुरूप तीन सदस्यीय पैनल गठित कर दिया है। न्यायालय ने इस पैनल को आठ सप्ताह में प्रक्रिया पूरी करने का आदेश दिया है। इस बीच इस पैनल को चार सप्ताह में अपनी प्रगति रिपोर्ट भी देनी होगी।
न्यायालय के आदेश का सबसे गौर करने वाला पहलु यह है कि मध्यस्थता की प्रक्रिया को पूरी तरह गोपनीय रखा जाएगा। इसकी न तो मीडिया रिपोर्टिंग की जाएगी और न ही पेनल के सदस्य और संबंधित पक्षों के प्रतिनिधि इस दौरान अपने विचार सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करेंगे । यद्यपि न्यायालय ने यह सुविधा प्रदान की है कि आवश्यकता पड़ने पर पैनल में और सदस्यों को भी जोड़ा जा सकेगा इसके साथ ही वैधानिक मदद भी ली जा सकेगी। न्यायालय की इस पहल से दशकों पुराने विवाद के सुलझने की कुछ उम्मीद दिखाई देने लगी है।
दरअसल अतीत में इस विवाद को सुलझाने की कोशिशे की गई थी उसके नतीजे तक नहीं पहुंचने का सबसे बड़े कारण विभिन्न पक्षों के कुछ प्रतिनिधियों द्वारा अनावश्यक रूप से की गई बयानबाजी रहीं है, जिससे बातचीत का माहौल सद्भावना पूर्ण रह ही नहीं पाता था और नतीजे के पहले ही बातचीत का सिलसिला टूट जाता था। इसमें भी दो मत नहीं हो सकते है कुछ निहित स्वार्थों के कारण इस विवाद को सुलझने से रोकने के भी प्रयास होते रहे है।
सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल का आमतौर पर स्वागत ही किया जा रहा है। यद्यपि इस पहल से असहमति जताने का सिलसिला भी शुरू हो गया है। निर्मोही अखाडा और रामलला विराजमान सहित कुछ हिन्दू संगठनों को इस विवाद के मध्यस्थता के जरिए सुलझने की कोई उम्मीद नहीं है ,जबकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य जफरयाब गिलानी ने इस पहल का स्वागत किया है। इधर निर्मोही अखाड़े के महंत सीताराम दास आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर को पैनल का सदस्य बनाने के पक्ष में नहीं है।
उल्लेखनीय है कि श्री श्री पहले भी बातचीत से इस विवाद को सुलझाने की कोशिश कर चुके है ,लेकिन वे इसमें सफल तो हुए नहीं बल्कि उनकी कई टिप्पणियों पर विवाद अवश्य हो गया था। एक बार तो उन्होंने यह तक भी कहा दिया था कि यह मामला यदि नहीं सुलझता है तो भारत सीरिया बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा था कि अयोध्या मुसलामानों के आस्था का विषय नहीं है। अतः राम मंदिर को नियत स्थान पर ही बनना चाहिए।
इस विवाद को सुलझाने की अतीत में की गई कोशिश भले ही सफल नहीं हुई है ,लेकिन अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार सकारात्मक नतीजे सामने आए। न्यायालय ने पैनल को जितना समय दिया है ,उसका पालन हर हालत में किया जाना चाहिए। इस विवाद से जुड़े सभी पक्षों और करोडो हिन्दुओं को यह प्रतीक्षा है कि जल्द ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू किया जाए। जो लोग कानून के सहारे इस विवाद को सुलझाना चाहते है, उन्हें भी यह स्वीकार करना होगा कि यह पहल सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही की गई है। अतः अब सारे पक्ष तय करले तो तय समय में ही इस विवाद को सुलझाया जा सकता है।
और यदि पूर्वाग्रह की भांति ही टेबल पर आएंगे तो फिर पहले की भांति ही इस बार भी कुछ हासिल नहीं होगा। न्यायालय ने पैनल की नियुक्ति के पूर्व ही कहा था कि वह इस मुद्दे की गंभीरता और जनता की भावनाओं के प्रति सचेत है। पैनल को केवल आठ सप्ताह का समय देकर कोर्ट ने यह सन्देश तो दे दिया है कि वह इस मामले में और विलंब होने नहीं देना चाहती।
यहां पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर की वह टिप्पणी आज भी प्रासंगिक है जो उन्होंने पद पर रहते हुए 21 मार्च 2017 को की थी जिसमे उन्होंने कहा था कि “थोड़ा दे और थोड़ा ले” और इसे हल करने का प्रयास करे। कोर्ट तभी बीच में आए जब मामले को आपस में न सुलझाया जा सके। खेहर ने यह प्रस्ताव भी दिया था कि अगर पक्षकार चाहेंगे कि बातचीत के लिए दोनों पक्षों की और से चुने गए मध्यस्थों के साथ मै बैठू तो मै इसके लिए भी तैयार हूँ ,लेकिन तब भी बात नहीं बन सकी।
सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता के लिए तीन सदस्यीय पैनल की नियुक्ति के पूर्व यह भी कहा था कि अगर बातचीत के जरिए इस विवाद का समाधान निकालने की संभावना यदि एक प्रतिशत भी हो तो ऐसा किया जाना चाहिए। इधर न्यायालय की इस राय से असहमति रखने वाले गिने चुने लोग ही होंगे ,लेकिन ऐसा मानने वालो की संख्या भी कम नहीं है ,जो यह मानते है कि जो विवाद दशकों बाद भी नहीं सुलझा उसे आठ सप्ताह में कैसे सुलझ सकता है। बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है, परन्तु बातचीत से सद्भावना का माहौल तो बनता ही है और ऐसे वातावरण में खुले दिल से बातचीत हो तो उसे सकारात्मक दिशा में आगे भी बढ़ाया जा सकता है।
इधर संघ ने कहा है कि अगर मध्यस्थता कमेटी के फैसले में सकारात्मक हल की एक फीसदी भी गुंजाइश होगी तो हम उसका स्वागत करेंगे, लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि उसी स्थान और उसी प्रारूप के बिना मंदिर निर्माण के बारे में हम सोचेंगे भी नहीं। लोकसभा चुनाव के कुछ ही घंटे पहले दिए गए इस बयान का अपना महत्व है।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि यह मुद्दा लोकसभा चुनाव में भी छाया रहेगा। अब सवाल यह उठता है कि मध्यस्थता करने वाले पैनल को पूरी गोपनीयता रखने का आदेश भले ही दिया गया हो ,लेकिन क्या पक्षकारों के विचार ऐसे बयानों से प्रभावित नहीं होंगे।
इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि इस तरह के बयान आठ सप्ताह के दौरान भी आते रहेंगे। इसलिए मध्यस्थता कमेटी की रिपोर्ट के प्रावधानों से सभी पक्ष सहर्ष सहमत होंगे ,इसमें शक की गुंजाइश तो बनी ही हुई है। इसलिए बेहतर होगा कि इस दौरान इस मुद्दे से जुडी सारी राजनीतिक व धार्मिक हस्तियां प्रतीक्षा करो और देखों की नीति पर चलने संकल्प ले ,ताकी इस विवाद का हल जल्द हो सके।
“कृष्णमोहन झा”
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)