चाहें तो इसे आरटीआई एक्ट का अंडरवियर एंगल कह लें। ताजा खबर यह है कि उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और भूमाफिया के खिलाफ लड़ने वाले आरटीआई कार्यकर्ता मास्टर विजय सिंह के खिलाफ मुजफ्फरनगर पुलिस ने ‘खुले में अंडरवियर सुखाने’ के आरोप में एफआईआर दर्ज कर ली है। विजय सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ कलेक्टोरेट में धरने पर बैठे थे। स्थानीय डीएम ने जब उन्हें धरने से उठवा दिया तो वे दूसरी जगह धरने पर बैठ गए। करप्शन के खिलाफ विजय सिंह यह लड़ाई 24 सालों से लड़ रहे हैं।
उनके खिलाफ थाने में धारा 509 के तहत मुकदमा दर्ज करने के बाद भी विजय सिंह का हौसला कम नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि वे अपनी लड़ाई जारी रखेंगे। वैसे आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ सत्ता की कार्रवाई कोई नई बात नहीं, लेकिन जिस धारा के तहत विजय सिंह के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है, वह हैरान करने वाला और सरकार की मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाला है। क्योंकि जो धारा विजय सिंह के खिलाफ लगाई गई है उसमें स्त्री शीलभंग की कार्रवाई होती है। तो क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना स्त्री शीलभंग है?
इस देश में आरटीआई कानून जब से लागू हुआ है, तब से आज तक कई आरटीआई कार्यकर्ता नेता, अफसर, माफिया और भ्रष्ट रैकेट के प्रतिशोध का शिकार हुए हैं। आरटीआई एक्ट 2005 में लागू हुआ था। तब से अब तक 72 आरटीआई कार्यकर्ता अपनी जानें गंवा चुके हैं। या तो उनकी सरेआम हत्या कर दी गई या फिर उनकी रहस्यमय मौत हो गई। क्योंकि कोई नहीं चाहता कि उसके भ्रष्ट कारनामों का ठोस प्रमाण किसी के हाथ लगे और वह पब्लिक के सामने आए। इस मायने में आरटीआई कार्यकर्ता देश भर में भ्रष्ट तंत्र की आंख का कांटा बने हुए हैं।
चूंकि आरटीआई के तहत लोगों को सरकार से निश्चित समय सीमा के भीतर कोई भी जानकारी मांगना और उसका विश्लेषण करने का कानूनी अधिकार,इसलिए आरटीआई कार्यकर्ताओं की आवाज को दफन करने तथा उनके उत्पीड़न के नए- नए तरीके खोजे जाते हैं। सरकार किसी भी पार्टी की क्यों न हो, ईमानदारी के कितने ही दावे क्यों न करे, वह भ्रष्टाचार के दीमक से मुक्त नहीं होना चाहती। और अपनी इस लाइलाज बीमारी को बेनकाब भी नहीं होने देना चाहती। खासकर भ्रष्ट नेता, सरकारी अफसर और माफिया का गठजोड़ तो इस आरटीआई कानून को अपनी सौतन समझता है।
पिछले दिनो यूपी के ही एक आरटीआई कार्यकर्ता सलीम बेग ने प्रधानमंत्री कार्यालय और दिल्ली की केजरीवाल सरकार से यह जानकारी मांगी थी कि आरटीआई एक्ट लागू होने के बाद से अब तक कितने आरटीआई कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न हुआ, कितने जेल भेजे गए, कितनों की हत्या हुई और ऐसे कितने मामलों में कार्रवाई हुई तो किसी भी सरकार ने इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझा। दिल्ली सरकार ने तो जवाब देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि इस प्रकार की सूचना नहीं दी जा सकती।
उच्चतम न्यायालय के एक फैसले का ज़िक्र करते हुए दिल्ली सरकार ने कहा कि आरटीआई कानून के तहत अंधाधुंध और अव्याावहारिक मांग या निर्देश प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले होंगे। दूसरी ओर, केंद्र सरकार के कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मामलों के मंत्रालय ने कहा कि सूचनाओं का स्पष्टीकरण या व्याख्या करना सूचना के अधिकार कानून 2005 के दायरे से बाहर है।
मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (सीपीआईओ) से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह सूचनाओं का सृजन करें। गौरतलब है कि सूचना का अधिकार हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने का सबसे बड़ा संवैधानिक हथियार है। सूचना का अधिकार और इसे संविधान की धारा 19 (1) के तहत एक मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। धारा 19 (1) के तहत प्रत्येक नागरिक को बोलने और अभिव्य9क्ति की स्वततंत्रता दी गई है। उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार कैसे कार्य करती है, इसकी क्या भूमिका है, इसके क्या कार्य हैं आदि।
लेकिन यह लोकतांत्रिक अस्त्र ही सरकारों और सरकारी निजाम को अपना सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगा है। केन्द्र में मोदी सरकार ने तो सूचना आयोग के पर ही कतर दिए हैं। एक स्वयंसेवी संस्था ‘ऐश्वर्याज’ द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार आरटीआई कार्यकर्ता के उत्पीड़न के मामले में देश में महाराष्ट्र अव्वल है, जबकि दूसरे नंबर पर यूपी और गुजरात तथा तीसरे नंबर पर दिल्ली राज्य है। हालांकि आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले में बिहार अव्वल है। वहां बीते 15 सालों में 15 आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। इस मामले में मध्यप्रदेश भी बहुत पीछे नहीं है। यहां भी आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं।
इसी के साथ यह भी सचाई है कि देश में कुछ लोग आरटीआई एक्ट का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसे ब्लैकमेलिंग का जरिया बनाया जाता है। कई सरकारी दफ्तकरों में अर्जी लगाकर अव्यावहारिक तरीके से जानकारी मांगी जाती है और याचिकाकर्ता उसे लेने भी नहीं आता। ऐसे में सरकारी तंत्र का समय ही बर्बाद होता है। लेकिन ऐसे में मामले आरटीआई के तहत उचित जानकारी मांगने तथा उसे लोगों के सामने लाने की तुलना में बहुत कम हैं। दिल्ली विवि में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि आरटीआई के तहत फर्जी अथवा निरर्थक याचिकाअों की संख्या कुल का 1 फीसदी से भी कम है।
अगर कोई आरटीआई के बहाने ब्लैकमेल कर रहा है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन यूपी में जो हुआ है, वह हास्यास्पद होने के साथ-साथ आरटीआई एक्ट को लेकर सरकार और प्रशासन तंत्र की मानसिकता को भी प्रकट करता है। मुजफ्फ रनगर में जो हुआ, उसमें आरटीआई कार्यकर्ता विजय सिंह पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने धरना स्थल के बाहर अपनी अंडरवियर सुखाई।
इससे महिलाओं को असहजता और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। इस बारे में विजय सिंह का दावा है कि धरना स्थल पर जो अंडरवियर सूख रही थी, वह उनकी न होकर उनके पास रह रहे किसी एक बेसहारा व्यक्ति की थी। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अंडरवियर प्रकरण वास्तव में मेरे धरने को खत्म करने की सरकार की साजिश है। वैसे विजय सिंह का नाम भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे लंबा धरना के लिए लिम्का बुक आॅफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल है।
अगर विजयसिंह आरटीआई एक्ट का दुरूपयोग कर रहे हैं तो उनके खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई की जानी चाहिए। लेकिन धरना स्थल पर सूख रही अंडरवियर को उत्पीड़न का हथियार बनाना तो प्रशासन के दिमागी दिवालिएपन का सबूत है। अगर इसे सही मान लिया जाए तो क्या अंडर गारमेंट मार्केट के सारे दुकानदार आरटीआई एक्टिविस्ट मान लिए जाएंगे? क्योंकि उस बाजार में तो अंत:वस्त्रों की खुली नुमाइश होती है। तो क्या सरकारें सूचनाएं छिपाने के लिए अब कमर से नीचे तक उतर गई हैं?
अजय बोकिल [ लेखक भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में संपादक है ]
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