#लखनऊ। सपा सरकार के तीन साल पूरे होने पर ‘पूरे हुए वादे’ को झूठा करार देते हुए रिहाई मंच ने कहा कि सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि वह आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को रिहा करेगी और पुर्नवास व मुआवजा देगी, जो उसने नहीं किया। रिहाई मंच ने दिसंबर 2007 में रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर हुए कथित आतंकी हमले पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि इस रिपोर्ट के माध्यम से हम जनता के सामने इस तथ्य को लाना चाहते हैं कि किस तरह से एक झूठी आतंकी घटना जिस पर पूर्ववर्ती प्रदेश सरकार सीबीआई जांच के लिए तैयार थी, की जांच न करवाकर आतंकवाद के हौव्वे को ही न सिर्फ बरकारार रखने की कोशिश की जा रही है बल्कि बेगुनाहों को सात-सात साल से जेलों में सड़ने को मजबूर किया जा रहा है।
रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि आरडी निमेष आयोग की रिपोर्ट ने तारिक और खालिद की गिरफ्तारी को फर्जी बताते हुए दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात कही हैं। पर प्रदेश सरकार जिस तरह से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने से न सिर्फ भागती रही है बल्कि मौलाना खालिद के हत्यारोपी तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह, एडीजीपी बृजलाल सहित 42 दोषी पुलिस व आईबी अधिकारियों व कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की, उसने साफ कर दिया है कि सपा सरकार न सिर्फ इंसाफ के खिलाफ है बल्कि आतंकवाद के हौव्वे के नाम पर देश को बांटने वाली राजनीति के गुनहगारों की संरक्षक भी है। इसीलिए मौलाना खालिद की हत्या में दोषी पुलिस व आईबी अधिकारियों को क्लीनचिट दिलवाने के लिए फर्जी विवेचना का सहारा लिया गया। उन्होंने कहा कि सपा के नुमाइंदे लगातार झूठ बोलते रहते हैं कि उनकी सरकार में आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तारी नहीं हुई। पर सच तो यह है कि सरकार बनते ही मई 2012 में सीतापुर से वसीर, आजमगढ़ के एक मदरसे के छात्र सज्जाद बट्ट व वसीम बट्ट की गिरफ्तारी से जो सिलसिला शुरु हुआ वह 2014 के लोकसभा चुनावों और यूपी उपचुनावों के दरम्यान इतना बढ़ गया कि मिर्जापुर, फतेहपुर, मेरठ, बिजनौर, सहारनपुर से लगातार गिरफ्तारियां होती रहीं और प्रदेश की अखिलेश सरकार चुप रही।
उन्होंने कहा कि लियाकत शाह जिसे सुरक्षा एजेंसियों द्वारा झूठा फंसाया गया था, की भी गिरफ्तारी यूपी से ही हुई थी, पर प्रदेश सरकार आतंकवाद के नाम पर झूठा फंसाने वाली दिल्ली स्पेशल सेल और एनआईए के खिलाफ मुकदमा दर्ज करना तो दूर कोई सवाल उठाने की हिम्मत तक नहीं कर पाई। वहीं जेलों में हालत इस कदर खराब हैं कि लखनऊ की जिस जेल से लाते-ले जाते वक्त मौलाना खालिद की हत्या कर दी गई अब उसी जेल में जेल के अधिकारियों तो कभी भाड़े के गुण्डों का सहारा लेकर तारिक कासमी की हत्या का षडयंत्र रचा जा रहा है। जिसपर प्रदेश सरकार का मौन साबित करता है कि वह इसमें संलिप्त है।
रिहाई मंच आजमगढ़ प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि सपा ने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था कि वह आतंकवाद के नाम पर निर्दोष साबित हुए लोगों के पुर्नवास व मुआवजा की गारंटी करेगी पर प्रदेश सरकार ने इस वादे को भी पूरा नहीं किया। जबकि कानपुर समेत कई जगहों के लोग अपनी पुर्नवास व मुआवजा के लिए अखिलेश यादव तक से मिल चुके हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री के झूठे आश्वासन के अलावां अब तक कुछ नहीं मिला। रामपुर के जावेद उर्फ गुड्डू, ताज मोहम्मद, मकसूद बिजनौर के नासिर हुसैन और लखनऊ के मोहम्मद कलीम को न्यायालय द्वारा दोषमुक्त किया जा चुका है। सपा सरकार के दौरान न्यायालय से निर्दोष साबित हो चुके इन नौजवानों को अब तक मुआवजा न मिलना साबित करता है कि सरकारें एक नीतिगत स्तर पर मुस्लिम समाज के लोगों को आतंकवाद के नाम पर फर्जी तरीके से फंसाना ही नहीं उनके एजेण्डे में है बल्कि समाज से उनको एक अलगाव की स्थित में भी रखना है। जिससे समाज में दहशत का वातावरण बना रहे और उनके नाम पर चुनावी राजनीति होती रहे। क्योंकि अगर किसी व्यक्ति को सरकार पुर्नवास व मुआवजा देती है तो उससे समाज में यह संदेश जाता है कि सरकार ने अपनी गलती की भरपाई की, पर सरकारें ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती। इसी प्रक्रिया में अखिलेश सरकार भी है। उन्होंने मांग की कि सपा सरकार के चुनावी घोषणा पत्र में किए वादे और आरडी निमेष कमीशन में दी गई व्यवस्था के तहत आतंकवाद के आरोप से दोषमुक्त लोगों के मुआवजा व पुर्नवास की गारंटी करे।
परिजनों के हालात पर संक्षिप्त रिपोर्ट-
नये साल का जश्न सभी लोग अपने-अपने तरीके से मनाते हैं। परन्तु 2007 के 31 दिसंबर की रात को रामपुर सीआरपीएफ कैंप के सिपाहियों ने ऐसा जश्न मनाया जिसने छह परिवारों की जिंदगी बर्बाद कर दी। कई स्वतंत्र जांच संगठनों ने अपनी जांच में पाया कि यह कोई आतंकी घटना नहीं थी। सीआरपीएफ के जवानों ने नए साल के जश्न में शराब के नशे में आपस में ही गोलाबारी कर ली थी। जिसमें सात जवानों सहित एक रिक्शा चालक भी मारा गया। इस पूरी घटना को सरकार ने आतंकवादी घटना के तौर पर प्रचारित करके बेगुनाहों को गिरफ्तार किया और सच्चाई को छिपा लिया। इस पूरी घटना को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब अगस्त 2008 में कानपुर में बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाते मारे गए थे, तो तत्कालीन गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा कि अगर मायावती चाहें तो इस पूरी घटना की जांच सीबीआई कर सकती है तो मायावती ने कहा था कि पहले 2007 में हुए उत्तर प्रदेश में कचहरी बम विस्फोटों व रामपुर में सीआरपीएफ कैंप पर हमला प्रकरण की जांच करवाएं। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रदेश की जांच एजेंसियों द्वारा रामपुर सीआरपीएफ कैंप प्रकरण की जांच पर तत्कालीन प्रदेश सरकार संतुष्ट नहीं थीं, इसीलिए उसने सीबीआई जांच की बात कही। जिसकी मांग बेगुनाहों के परिजनों व मानवाधिकार संगठनों ने भी की।
फिर शुरू हुआ अवैध गिरफ्तारियों का दौर-
ग्यारह फरवरी 2008 को उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह ने कहा कि रामपुर सीआरपीएफ कैंप आतंकी हमले में शामिल लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। इन गिरफ्तारियों में जंगबहादुर खान, शरीफ, गुलाब खान, कौसर फारूकी, फहीम अंसारी और सबाउद्दीन सहित तीन पाकिस्तानी नागरिकों इमरान, शहजाद तथा मोहम्मद फारूख को भी गिरफ्तार किया गया। इन सारी गिरफ्तारियों में कोई पारदर्शिता नहीं बरती गई और न ही जिन हथियारों की ’रिकवरी’ की बात की गई थी उनकी बरामदगी ही दिखाई गई। लखनऊ में जिन पाकिस्तानी कथित आतंकवादियों को हथियारों के साथ गिरफ्तार किया गया उनका कोई स्वतंत्र गवाह नहीं है। न ही जंग बहादुर, शरीफ, कौसर फारूकी के विरुद्ध कोई चश्मदीद गवाह ही है। इनके परिजन लगातार धरना व भूख हड़ताल करके सपा सरकार को ज्ञापन सौंपते रहे हैं कि पूरे मामले की सीबीआई जांच करवाई जाए ताकि 31 दिसंबर की घटना का सच सामने आ सके। परन्तु प्रदेश सरकार सीबीआई जांच के सवाल से लगातार भागती रही। आतंकवाद के विभिन्न प्रकरणों में यह भी तथ्य सामने आ चुका है कि आतंकवाद की घटनाओं की साजिश कोई रचता है और पकड़ा कोई और जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम समुदाय के लोगों को झूठा फंसाने को लेकर अपने एक फैसले में यह टिप्पणी भी की है कि ’माई नेम इज खान बट आई एम नाॅट टेररिस्ट’ लोगों को न कहना पड़े। रामपुर सीआरपीएफ कैंप की घटना के सात साल बाद 48 गवाहियों में से मात्र 23 गवाहियां हुई हैं। एक तरफ अदालत कछुए की चाल चल रही है और दूसरी तरफ बिना सुबूत के आधार पर बेगुनाह इतने दिन से बंद हैं उन्हें जमानत तक नहीं मिल रही है। रिहाई मंच ने लगातार मांग की है कि आतंकवाद संबंधित मामलों में अदालत की सुनवाई दिन प्रतिदिन होनी चाहिए। पर इससे इतर इनके परिजन बताते हैं कि गवाहियों सुनवाइयों से अधिक सिर्फ तारीख पर तारीख देकर मामले को लंबा खींचा जा रहा है।
बेगुनाहों के परिजनों के हालात-
सात सालों से जेलों में बंद इन बेगुनाहों के परिवारों के हालात ठीक नहीं हैं। प्रतापगढ़, कुंडा के रहने वाले कौसर फारूकी जिनका रामपुर से कोई वास्ता नहीं था और न ही कभी वे रामपुर गए थे पर आरोप लगाया गया कि वे रामपुर स्थित अपने घर में हमले में इस्तेमाल होने वाले हथियार को छिपाए थे। आज उनके घर में भाइयों समेत उनका एक लड़का और दो बेटियां अपने बेगुनाह बाप की रिहाई का रास्ता देख रही हैं। दूसरी तरफ जंग बहादुर जिनकी तबियत हमेशा जेल में खराब रहती है, वह हृदय रोग से पीडि़त हैं, ऐसी गंभीर बीमारी में भी न तो उन्हें जमानत मिल रही है न ही जेल में चिकित्सा सुविधा। उनके घर में उनकी बेटियों की शादी तक नहीं हो पा रही है। रामपुर के मोहम्मद शरीफ जिनको आजमगढ़ से एसटीएफ ने उठाया था, के घर की स्थिति भी ठीक नहीं है। आजमगढ़ में अपनी पत्नी के साथ जब वे अपने बेटे को दवा के लिए ले जा रहे थे उसी समय उनको उठाया गया था। बाद में उनके बीमार बेटे की मौत हो गई। मोहम्मद शरीफ के बहनोई गुलाब भी इसी मामले में बंद हैं। उनके घर में उनकी पत्नी और उनकी दो बेटियों व एक बेटे की मदद करने वाला कोई नहीं है। उनकी बड़ी बेटी जिसकी दिमागी हालात ठीक नहीं है, और बच्चों की पढ़ाई लिखाई भी बंद है।
सपा सरकार की वादा खिलाफी-
सपा सरकार ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों को छोड़ने की बात की थी। वहीं एक झूठी घटना में फंसाए गए बेगुनाहों के परिवारों की लगातार मांग के बावजूद भी रामपुर सीआरपीएफ कैंप प्रकरण की जांच सीबीआई से नहीं करवाई।