बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा की एक जनसभा को संबोधित करते हुए जब यह कहा था कि बिहार की जनता इस बार दोहरी दीवाली मनाएगी तब उनका कथन उनकेे इस आत्म विश्वास की अभिव्यक्ति माना जा रहा था कि बिहार में चुनावों के बाद भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार बनना सुनिश्चित है परंतु मुझे तब इस बात पर आश्चर्य हुआ था कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके विश्वस्त सिपहसालार भाजपाध्यक्ष अमित शाह आखिर दीवार पर लिखी उस इबारत को क्यों नहीं पढ़ पा रहे हैं जिसमें स्पष्ट संकेत मिल रहा था कि बिहार की जनता अपनी दूसरी दीवाली लालू नीतिश की जोड़ी के साथ मनाने का फैसला तो पहले ही कर चुकी है।
बिहार विधानसभा के जो चुनाव परिणाम दीवाली के तीन दीन पहले घोषित हुए उसके बाद तो पार्टी के अंदर ऐसी मायूसी छा गई है कि वह शायद परंपरागत दीवाली के दिन भी आतिशबाजी चलाने का साहस न जुटा पाए। इन चुनाव परिणामों ने यह भी साबित कर दिया है कि मात्र प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और भाजपाध्यक्ष अमित शाह की अद्भूत चुनावी रणनीति के सहारे पार्टी सारे चुनाव जीतने में सफल नहीं हो सकती। दरअसल पार्टी को यह अंदेशा तो इस वर्ष के शुरू में ही उस वक्त हो जाना चाहिए था जब देश की राजधानी दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा के चुनावों में शर्मनाक तरीके से वह तीन सीटों पर ही सीमट कर रह गई थी।
उन चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सारी तोकत झोक दी थी और तब प्रधानमंत्री मोदी के हाथों में ही पार्टी के चुनाव अभियान की बागडोर थी परंतु उनमें प्रधानमंत्री की करिश्माई लोकप्रियता कोई काम नहीं आई। बिहार विधानसभा चुनावों को शायद इसीलिए अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्र बनाकर उन्होंने लगभग तीस चुनाव रैलियों को संबोधित किया ताकि बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी भाजपा की झोली में आ गिरे और राज्य में राजग सरकार का का गठन हो सके। भाजपाध्यक्ष अमित शाह भी यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि उनके राजनीतिक कौशल का जादू उत्तर प्रदेश के सामन बिहार में चलेगा और पार्टी यह दावा कर सकेगी कि प्रधानमंत्री की करिश्माई लोकप्रियता के ग्राफ में तनिक भी गिरावट नहीं आई है।
परंतु चुनाव परिणाम घोषित होते ही भाजपा को जिस तरह सांप सूघ गया है उससे साफ जाहिर है कि अगले साल होने जा रहे उत्तर प्रदेश, बंगाल, असम और पंजाब विधानसभा चुनावों को लेकर वह बेहद घबरा उठी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी अभी भी देश में नरेन्द्र मोदी को सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता बताने से नहीं चूकेगी और कुछ हद तक उसका यह दावा सही भी हो परंतु हकीकत तो यही है कि भाजपा के लिए यह चिन्ता करने का वक्त आ चुका है कि अगर वह अब भी नहीं संभली तो बहुत देर हो जाएगी।
भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधानसभा के इन चुनावों में एक के बाद एक इतनी गलतियां की कि मतदान की तिथियां नजदीक आते आते उसे बैकफुट में आने पर मजबूर होना पड़ा और चुनाव प्रचार का काफी हिस्सा तो स्पष्टीकरण देने में ही जाया हो गया। भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए कृत संकल्प लालू-नीतिश की जोड़ी ने इन चुनावों में जो अभूतपूर्व एकता दिखाई उसका भरपूर लाभ महागठबंधन को मिला और जनता की पहली पसंद महागठबंधन बन गया। लालू-नीतिश की जोड़ी का दामन थामने का आश्चर्य जनक लाभ कांग्रेस पार्टी को भी मिला जो पिछले दो दशकों से बिहार में अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही थी। कांग्रेस अगर आज बिहार में फूली नहीं समा रही तो इसके लिए उसे गांधी का नहीं बल्कि लालू-नीतिश कुमार को चुनौती देने का दुस्साहस नहीं किया होता तो बिहार में वे भी आज सत्ता सुख भोगने की स्थिति में होते। कांग्रेेस ने तो संकेत दे ही दिया है कि अगर उसे सत्ता में भागीदारी करने का मौका हाथ लगा तो उसे लपकने में वह कोई देर नहीं करेगी।
इन चुनावों में लालू-नीतिश की जोड़ी की अभूतपूर्व एकता और कांग्रेस के संयम ने जहां महा गठबंधन की ऐतिहासिक विजय का मार्ग आसान कर दिया वहीं भाजपानीत राजग के घटक दलों में शुरू से ही मतभेद उजागर होते रहे। पहले सीटों के बंटवारे और फिर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम तय करने में राजग के अंदर अंत तक मतभेद की स्थिति बनी रही और उसकी सबसे बड़ी कमजोरी उस समय उजागर हो गई जब मुख्यमंत्री उम्मीदवार के लिए किसी एक नेता के नाम पर सर्वानुमति बनाने में वह असफल रही। उधर लालू प्रसाद यादव ने मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लडऩे के लिए तैयार होकर राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। नीतिश कुमार ने पूरे चुनावों के दौरान शालीन राजनेता की छवि को सुरक्षित बनाए रखने का राजनीतिक चातुर्य तो दिखाया ही साथ में महागठबंधन पर साधे गए हर आक्रमण का उन्होंने सटीक अंदाज में जवाब भी दिया।
उनके जोड़ीदार लालू यादव तो भाजपा को जैसे को तैसा की भाषा में जवाब देते रहे परंतु नीतिश कुमार पूरे चुनावों के दौरान यह सावधानी बरतते रहे कि उनके मुंह से कोई विवादास्पद टिप्पणी न निकलने पाए। मैं तो कहूंगा कि रणनीतिक कौशल के मामले में नीतिश कुमार ने भाजपाध्यक्ष अमित शाह को भी बहुत पीछे छोड़ दिया। बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ विडंबना यह रही कि चूंकि नीतिश कुमार के जदयू के साथ उसका 17 वर्षों का साथ रहा इसीलिए वह नीतिश कुमार की आलोचना उनके पिछले दो वर्षों के कार्यकाल के आधार पर ही कर सकती थी।
सत्रह वर्षों के बाद जब नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ अपने दल के संबंधों को एक झटके में तोड़ डाला था तभी से भाजपा ने नीतिश कुमार को बिहार में दुश्मन नंबर वन मान लिया था परंतु उसके पहले तो वह नीतिश के साथ सत्ता में भागीदारी कर ही थी इसलिए दो वर्ष पूर्व के कार्यकाल के लिए नीतिश की आलोचना का उसके पास कोई नैतिक आधार नहीं था। चूंकि नीतिश कुमार ने गत लोकसभा चुनावों के पूर्व नरेन्द्र मोदी को राजग का चुनाव प्रभारी बनाए जाने पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए ही भाजपा के साथ अपने दल की 17 वर्ष पुरानी दोस्ती तोड़ी थी इसलिए नरेन्द्र मोदी के असली निशाने पर नीतिश कुमार ही थे। मोदी ने इसीलिए नीतिश कुमार पर चुनावों के दौरान अनेक कटाक्ष किए। नीतिश कुमार ने उनका सधे हुए अंदाज में जवाब देने में कोई भूल नहीं की।
डीएनए संबंधी टिप्पणी को उन्होंने पूरे बिहार के स्वाभिमान से जोडक़र राज्य की जनता को ही अपने पक्ष में कर लिया। भाजपा का यह दुर्भाग्य रहा कि चुनावों के दौरान ही दादरी कांड घटित हो गया फिर आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने आरक्षण प्रणाली की समीक्षा का सुझाव दे डाला, जिसे नीतिश-लालूू की जोड़ी ने एक ऐसा चुनावी मुददा बना लिया कि भाजपा को लेने के देने पड़ गए। स्वयं प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ी परंतु भाजपा के सारे नेताओं की सफाई के बावजूद वह मोहन भागवत के बयान से होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं कर सकी। सारे देश में साहित्यकारों एवं फिल्म पुरस्कार विजेता फिल्मकारों के द्वारा छेड़े गए असहिष्णुता विरोधी अभियान तथा थोक में पुरस्कार वापिसी ने भी बिहार चुनावों में भाजपा की संभावनाओं को प्रभावित किया। प्रधानमंंत्री मोदी द्वारा चुनावों के पूर्व बिहार के लिए घोषित 1.25 लाख करोड़ का पैकेज राज्य की जनता को सम्मोहित करने में असफल रहा।
अब सवाल यह उठता है कि राज्य में यहां गठबंधन की सरकार के गठन एवं नीतिश कुमार के पांचवी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी केन्द्र सरकार सहजता पूर्वक यह पैकेज बिहार के लिए जारी कर देगी। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यद्यपि चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद यह आश्वासन जरूर दिया है कि प्रधानमंत्री द्वारा बिहार के लिए घोषित पैकेज पर चुनाव नतीजों का कोई असर नहीं पड़ेगा परंतु क्या यह आश्वासन बिहार की नई सरकार को यह भरोसा दिला पाएगा कि केन्द्र से अपनी आर्थिक मांगे मनवाने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
अब जबकि नीतिश पांचवी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालने जा रहे हैं तब यह आशंका भी अभी से व्यक्त की जाने लगी है कि क्या लालू यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उनकी सरकार को निरापद रहने देगी। निश्चित रूप से लालू अपने दोनों विधायक बेटों तथा बेटी मीसा भारती को सत्ता में विशेष महत्व का अधिकारी बनाना चाहेंगे। लालू की पार्टी राजद को विधानसभा चुनावों में सर्वाधिक सीटें प्राप्त हुई हैं इसलिए भी लालू सत्ता में महत्वपूर्ण मंत्रालय अपने दल के लिए चाहेंगे। नीतिश कुमार को यद्यपि अभी उन्होंने आश्वस्त कर दिया है कि उनका सरोकार केवल राष्ट्रीय राजनीति से रहेगा और नीतिश को सरकार चलाने में पूरी स्वतंत्रता होगी परंतु नीतिश शायद खुद भी इस सच्चाई से वाकिफ से होंंगे कि लालू को साधकर रखना इतना आसान भी नहीं होगा। अगर नीतिश इसमें सफल हो गए तो उनकी सरकार पूरे पांच साल तक अबाध गति से चलती रहेगी।
लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक :- कृष्णमोहन झा