उत्तर प्रदेश में अगले साल के पूर्वाद्र्ध में संपन्न होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए सभी राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं लेकिन राज्य की सत्ता पर पिछले पौने पांच सालों से काबिज समाजवादी पार्टी ने इन चुनावों के लिए अपनी तैयारियों की जो झलक पेश की है उसने सारे देश का ध्यान आकृष्ट कर लिया है। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में वर्चस्व की बागडोर अपने हाथों में कसकर थामे रखने वाले पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के परिवार में ही अब वर्चस्व की लड़ाई ने जो रूप घारण कर लिया है उससे तो पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता दिखाई देने लगा है। पार्टी की कमान हमेशा अपने हाथों में रखने वाले वयोवृद्ध सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव आए दिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बैठक बुलाकर उन्हें पहले समझाईश देते हैं फिर डांटते हैं और कभी कभी निष्कासन की कार्रवाई का सहारा भी लेते हैं परन्तु कोई उनकी बात सुनने या मानने के लिए तैयार नहीं हैं। राजनीति के कुशल खिलाड़ी की छवि रखने वाले मुलायम सिंह यादव अब अपनी हर चाल में असफल सिद्ध हो रहे हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अपने सगे भाई शिवपाल यादव और अपने मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव के बीच सुलह कैसे कराएं।
मुलायम सिंह यादव अपने मुख्यमंत्री बेटे से इतने खफा है कि उन्होंने अखिलेश यादव के प्रति हमदर्दी जताने वाले अपने चचेरे भाई रामगोपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उन्होंने अपने भाई शिवपाल यादव को प्रदेश सपाध्यक्ष पद की कुर्सी सौंप दी और जिस ‘बाहरी व्यक्ति’ को अखिलेश यादव अपने परिवार में कलह के लिए जिम्मेदार मानते थे उसी ‘बाहरी व्यक्ति’ को उन्होंने पार्टी के महासचिव के पद से नवाज दिया। अब यह बात आम हो चुकी हे कि वह ‘बाहरी व्यक्ति’ अमर सिंह हैं जो अपने मुंहबोले भतीजे अखिलेश को राजनीति में अभी भी बच्चा समझते हैं। अखिलेश यादव आज भी यह मानते हैं कि अमर सिंह उन्हें कमजोर करने की साजिश में लगे हुए हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव अपने बेटे के मुंह से अपने मुंहबोले भाई अमर सिंह के विरूद्ध एक शब्द भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने अपने बेटे से साफ कह दिया है कि अमर सिंह ने अतीत में उन्हें जेल जाने से बचाया है इसलिए वे अमर सिंह का पक्ष लेते रहेंगे। अखिलेश यादव को ऐसा लगता है कि पहले तो उनके अपने चाचा शिवपाल यादव ही उनका कद घटाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब अमरसिंह का साथ भी उन्हें मिल गया है। राज्य में 2012 में सपा सरकार गठित होने के बाद से ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उस सरकार के मुख्यमंत्री पद की बागडोर थामे हुए हैं। 2012 में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने पिता मुलायम सिंह यादव की मर्जी से ही मिली थी परंतु लगभग पौने पांच सालों के कार्यकाल के बाद अखिलेश यादव अब यह चाहते हैं कि राज्य में सपा का लोकप्रिय चेहरा उन्हें ही माना जाए। उनका यह भी मानना है कि इस अवधि में वे अपने अकेले दम पर पार्टी को आगामी विधानसभा चुनावों में भी बहुमत दिलाने की क्षमता अर्जित कर चुके हैं। इसलिए उन्होंने अकेले ही विकास रथ यात्रा निकालने की घोषणा कर दी है। अखिलेश यादव ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि वे सपा की स्थापना के रजत जयंती समारोहों में शिरकत करेंगे या नहीं।
समाजवादी पार्टी और उसकी बागडोर हमेश अपने हाथ में रखने वाले मुलायम सिंह यादव के परिवार में इस समय जो कलह मची हुई है उसकी परिणिति कब और किस तरह होगी यह कोई नहीं जानता। अखिलेश यादव ने अपनी ताकत दिखाने के लिए मुख्यमंत्री के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने चाचा शिवपाल यादव सहित चार मंत्रियों को अपनी सरकार से बर्खास्त किया तो मुलायम सिंह ने सपा सुप्रीमो की हैसियत से अखिलेश के समर्थक अपने चचेरे भाई राम गोपाल यादव को पार्टी से ही निकाल दिया। इस पर राम गोपाल यादव ने कहा है कि मैं सपा में रहूं या नहीं परंतु इस धर्मयुद्ध में हमेशा अखिलेश का ही साथ दूंगा। शिवपाल यादव ने तो पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष के रूप में अपनी ताकत दिखाने के लिए अखिलेश यादव के अनेक समर्थकों को पहले ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
पार्टी के अंदर मचे इस घमासान को शांत करने के लिए रोज नयी नयी कुर्बानियां पेश की जा रही है। अखिलेश यादव ने अगर मुख्यमंत्री पद से हटने का प्रस्ताव किया है तो वे यह भी कहते हैं कि अब अपने राजनैतिक कैरियर को बीच में छोडक़र कहीं और जाने की स्थिति में नहीं है। शिवपाल यादव ने पार्टी की एकता की खातिर प्रदेश सपाध्यक्ष की कुर्सी छोडऩे की पेशकश कर दी है। सपा के नए महासचिव अमर सिंह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मुख से अपने लिए ‘दलाल’ शब्द के प्रयोग से इतने दुखी है कि उन्होंने यहां तक कह दिया है कि अगर उनकी कुर्बानी से सपा में सब ठीक होता है तो वे यह कुर्बानी देने के लिए भी तैयार हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि इतनी सारी कुर्बानियों की पेशकश के बावजूद सपा के अंत मची इस कलह के शांतिपूर्ण समाधान के कोई आसार अब दूर तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। उत्तरप्रदेश की सपा सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने कार्यकाल में प्रारंभ की गई विकास योजनाओं की दुहाई देकर पुन: सपा के सत्तारूढ़ होने के प्रति आशान्वित जरूर है परंतु इस हकीकत से वे अनभिज्ञ है कि उनके कार्यकाल में ही राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होती चली गई है और इसके लिए अगले विधानसभा चुनावों में सपा को जनता का कोपभाजन बनना ही पड़ेगा। यह बात सही है कि अखिलेश यादव की युवा वर्ग में लोकप्रियता अभी भी बरकरार है परंतु सपा सरकार के प्रति उत्तरप्रदेश में भारी आक्रोश हैं। समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में जिस मुस्लिम-यादव गठजोड़ के टूटने की आशंका ने भी सपा सुप्रीमा को गहरी चिंता में डाल रखा है। शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल का सपा में विलीनीकरण की जो योजना बनाई थी उसके पीछे उनकी यही मंशा थी कि इससे उत्तर पदेश के पूर्व क्षेत्र की लगभग पचास सीटों पर कौमी एकता दल के प्रभाव का सपा को लाभ मिलेगा परंतु अखिलेश यादव के सख्त विरोध के कारण वह योजना खटाई में पड़ चुकी हैं। राज्य के कुछ मुस्लिम नेताओं की इस चेतावनी ने सपा सुप्रीमो की चिंताओं में इजाफा कर दिया है कि अगर सपा में जल्द ही कलह समाप्त नहीं हुई तो मुस्लिम समुदाय आगामी विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को अपना समर्थन देने पर विचार कर सकता है। बसपा सुप्रीमो मायावती अगले चुनावों में दलित-मुस्लिम गठजोड़ की संभावनाएं तलाशने में जुटी हुई हैं। गौरतलब है कि एक समाचार चैनज द्वारा उत्तरप्रदेश में हाल में ही कराए गए एक ओपीनियन पोल में यह संकेत मिल चुके हैं कि बसपा आगामी विधानसभा चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है। वास्तव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ की संभावनाओं ने न केवल सपा बल्कि भाजपा को भी ङ्क्षचता में डालकर रखा है जो राज्य विधानसभा के आगामी चुनावों के बाद सत्ता में आने का सुनहरा स्वन्न संजोए बैठी है।
एक बात तो तय है कि पारिवारिक कलह और महत्वाकांक्षा की लड़ाई ने समाजवादी पार्टी को अब टूटने की कगार पर पहुंचा दिया है और येनकेन प्रकारेण अगर यादव परिवार में कोई एकता स्थापित हो भी जाती है तो वह केवल दिखावटी ही होगी। मुलायम सिंह यादव स्वयं भी इस हकीकत को पूरी तरह से समझ चुके हैं इसीलिए उन्होंने अब अन्य राजनीतिक दलों के साथ सपा के चुनावी गठजोड़ की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं। मुलायम सिंह यादव ने बिहार में महाजनता परिवार में सपा को शामिल करने से जब इंकार कर दिया था तब उन्हें यह कल्पना नहीं रही होगी कि आगे चलकर उनके अपने ही परिवार की कलह उन्हें फिर से महाजनता परिवार के घटक दलों से गठजोड़ की संभावनाएं तलाशने के लिए विवश कर देगी। गौरतलब है कि बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन के मुख्य घटक जदयू ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठजोड़ करने का फैसला पहले ही कर लिया है।
कृष्णमोहन झा
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)