विश्व की राजनीति इस समय एक बेहद खतरनाक दौर से गुज़र रही है। कहा जा रहा है कि दुनिया इस समय बारूद के एक बड़े ढेर पर बैठी हुई है। कुछ विश्लेषण तो तीसरे विश्व युद्ध की आहट का अंदाज़ा भी लगा रहे हैं। अमेरिका,उत्तर कोरिया,ईरान,सऊदी अरब,इज़राईल,फिलिस्तीन ,सीरिया, यमन,इराक, लेबनान, रूस जैसे देश वर्तमान घमासान के केंद्र में हैं।
सभी देशों के अपने अलग-अलग राजनैतिक,वैचारिक,सामाजिक तथा धार्मिक विचार हैं। इनमें सबसे प्रमुख धु्रव के रूप में ईरान व सऊदी अरब को देखा जा रहा है। इन दोनों देशों के मध्य बढ़ता तनाव निश्चित रूप से वैश्विक स्तर पर शिया-सुन्नी मतभेदों को हवा देने का काम कर रहा है। यह भी जगज़ाहिर है कि सऊदी अरब को अमेरिका अपनी दूरगामी रणनीति के तहत गत् कई दशकों से अपना संरक्षण देता आ रहा है। साथ ही साथ यह बात भी किसी से छुपी नहीं है कि ओसामा बिन लाडेन से लेकर हाफिज सईद तक सऊदी अरब के वैचारिक शिक्षण संस्थानों की देन हैं। दुनिया समझ सकती है कि इस्लाम के नाम पर पूरे विश्व में फैले आतंकवाद की पुश्तपनाही करने वाले सऊदी अरब से गहरी दोस्ती निभाने वाले अमेरिका का आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेडऩे का नारा कितना सच हो सकता है और कितना ढोंग? दूसरी तरफ यमन व सीरिया जैसे आतंरिक युद्धग्रस्त देशों में भी ईरान व सऊदी अरब अलग-अलग धड़ों को अपनी सुविधा व राजनैतिक लाभ के मद्देनज़र सहयोग दे रहे हैं। कमोबेश इन देशों का यह सहयोग अथवा विरोध भी शिया-सुन्नी पर ही आधारित है।
इस समय लगभग समूचे $गैर मुस्लिम जगत का कमोबेश यही प्रयास है कि पूरे इस्लाम धर्म को व मुस्लिम जगत को आतंकवादी विचारधारा की परवरिश करने वाला धर्म प्रमाणित कर दिया जाए। समय-समय पर विभिन्न दिशाओं से कुरान शरीफ की की जाने वाली आलोचनाएं तथा इस्लामी आतंकवाद,इस्लामी जेहाद एवं जेहादी आतंकवाद जैसे शब्दों का प्रचलन इसी साजि़श का एक बड़ा हिस्सा है। ऐसे में निश्चित रूप से मुस्लिम जगत के जि़ मेदार नेताओं का यह कर्तव्य है कि वे बिना समय गंवाए हुए आगे आएं तथा इस्लाम की आतंकवाद विरोधी विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित करें। और इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए इस्लाम से संबंधित उन सभी विचारधाराओं का एकजुट होना ज़रूरी है जो कुरान शरीफ तथा पैगंबर हज़रत मोह मद द्वारा शांति,प्रेम, सद्भाव, आपसी भाईचारा का संदेश देते हैं तथा बेगुनाहों की हत्या व ज़ुल्म के विरुद्ध सतत संदेश देते हैं । यह कुरान का ही कथन है कि यदि तुमने एक बेगुनाह का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी मानवता का कत्ल कर दिया। निश्चित रूप से कुरान शरीफ व इस्लाम के इस बुनियादी उसूल का तो इतना प्रचार -प्रसार नहीं हो रहा परंतु हदीसों व इस्लामी इतिहास से संबंधित विवादित घटनाओं को लेकर विभिन्न मुस्लिम समुदायों में तलवारें खिंची ज़रूर दिखाई देती है।
ईरानी नेतृत्व तथा वहां के उलेमा गत् कई दशकों से इस बात के लिए अपनी कोशिशें जारी रखे हुए हैं कि किसी तरह पूरे विश्व में शिया-सुन्नी एकता कायम हो सके। ईरान में आई इस्लामी क्रांति के फौरन बाद ही ईरानी धर्मगुरू आयतुल्ला खुमैनी के समय से ही यह प्रयास शुरु हो गए थे। और आज तक ईरानी नेतृत्व पूरी गंभीरता के साथ शिया-सुन्नी एकता के लिए वैश्विक प्रयासों में जुटा है। गत् 16 फरवरी को भारत के दौरे पर आए ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने हैदराबाद की सुन्नी जमाअत से संबंधित प्रसद्धि ऐतिहासिक मक्का मस्जिद में नमाज़-ए-जुमा अदा की। इस मस्जिद की बुनियाद 1616 ई० के अंत में कुतुबशाही वंश के शासक सुल्तान मोह मद ने रखी थी तथा 1694 में औरेंगज़ेब के शासनकाल में यह मस्जिद बनकर तैयार हुई। यहां राष्ट्रपति रूहानी के साथ सैकड़ों शिया तथा सुन्नी नेताओं ने सामूहिक रूप से नमाज़ अदा कर शिया-सुन्नी एकता का विश्वव्यापी संदेश दिया। इसके अतिरिक्त जब-जब भारत के प्रमुख शिया धर्मगुरु ईरान के दौरे पर जाते तथा ईरानी धार्मिक नेतृत्व से मिलते रहे हैं तब-तब ईरानी नेतृत्व द्वारा उन्हें बार-बार यह हिदायत दी जाती रही है कि वे सुन्नी जमाअत के लोगों को अपनी आत्मा की तरह समझें। भारत में शिया धर्मगुरू मौलाना कल्बे सादिक़ व और भी कई धर्मगुरु सुन्नी मस्जिदों में जाकर नमाज़ अदा करते रहे हैं। भारत ही नहीं बल्कि अरब के और भी कई देश इन दिनों शिया-सुन्नी एकता का प्रदर्शन करने के लिए एक-दूसरे समुदाय से जुड़ी मस्जिदों में नमाज़ अदा कर रहे हैं। ज़ाहिर है ऐसे प्रयासों को केवल प्रतीकात्मक नहीं बल्कि धरातलीय स्तर पर इसे प्रयोगात्मक रूप दिया जाना चाहिए और ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए कि देश व दुनिया की मस्जिदों को केवल अल्लाह की मस्जिद ही कहा जाए न कि शिया मस्जिद,सुन्नी मस्जिद, बरेवली,अहमदिया या $खोजा मस्जिद।
दूसरी ओर जो ताकतें इस्लाम में फूट डालने तथा मुस्लिम जगत को विभाजित करने वालों के हाथों में खेल रही हैं वे इस बात से पूरी तरह भयभीत हैं कि यदि वैश्विक स्तर पर शिया-सुन्नी एकता के प्रयास परवान चढऩे लगे तो निश्चित रूप से आतंकवाद का पोषण करने वाली तथा इस्लाम पर आतंकवाद जैसा कलंक लगाने की जि़ मेदार विचारधारा बेन$काब हो जाएगी। और यह विचारधारा अपने आ$काओं के इशारे पर शिया-सुन्नी एकता के प्रयासों को किसी भी $कीमत पर सफल नहीं होने देना चाहती। उदाहरण के तौर पर प्राप्त समाचारों के अनुसार शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद के प्रयासों से आगामी 24 मार्च को लखनऊ में आतंकवाद के विरुद्ध एक शिया-सुन्नी संयुक्त स मेलन आयोजित होना प्रस्तावित है। इस स मेलन से पहले ही शिया-सुन्नी एकता को नापसंद करने वाली विचारधारा से संबंधित किसी अज्ञात व्यक्ति ने मौलाना को फोन कर उन्हें आतंकवादी घटना अंजाम दिए जाने की धमकी दी है। धमकी देने वाले ने साफतौर पर यह कहा है कि यदि इस स मेलन में एक प्रमुख इस्लामी विचारधारा के विरुद्ध कुछ भी बोला गया तो असली आतंकी घटना को लखनऊ में ही अंजाम दिया जाएगा।
इसी संदर्भ में एक और बेहद अहम सवाल यह उठता है कि जिस प्रकार ईरान गत् तीन दशकों से शिया-सुन्नी एकता की कोशिश कर रहा है तथा विश्व के शिया उलेमाओं को यह संदेश दे रहा है कि वे अपने-अपने देशों में शिया-सुन्नी एकता हेतु पूरी सक्रियता से काम करें उसी प्रकार आ$िखर सऊदी अरब का नेतृत्व इस प्रकार के प्रयास क्यों नहीं करता? बजाए इसके सऊदी अरब को जहां-जहां ईरान की उपस्थिति नज़र आती है वहां-वहां वह अमेरिका के इशारे पर ईरान के विरुद्ध अपना परचम लेकर खड़ा हो जाता है। इतना ही नहीं बल्कि गत् पांच वर्षों में सऊदी अरब में शिया धर्मगुुरुओं तथा शिया समुदाय के सऊदी नागरिकों को विरुद्ध ज़ुल्म की घटनाओं में भी तेज़ी से बढा़ेतरी हुई है। हां इस विषय में शिया धर्मगुरुओं को एक बात पर ज़रूर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है कि वे अपनी ओर से इतिहास अथवा हदीस से संबंधित ऐसी विवादित घटनाओं का जि़क्र करने से बाज़ आएं जो घटनाएं दूसरे समुदाय के लोगों की भावनाओं को आहत करने वाली हों। सामुदायिक एकता के प्रयास करने से पहले एक-दूसरे की भावनाओं का मान-स मान व आदर करने का जज़्बा पैदा करना बेहद ज़रूरी है।
तनवीर जाफरी