फिल्म “पद्मावत” के दो अहम किरदार है। पहला – रानी पद्मावती और दूसरा अलाउद्दीन खिलजी। इतिहास के ये दो किरदार जब सिनेमा की अर्थनीति और सरकारों की राजनीतिक का हथियार बने तो उसके गंभीर नतीजे सबके सामने हैं। फिल्म पद्मावत देखकर जो चीजें मैंने महसूस की आपके सामने रख रहा हूं। लेकिन पहले इस फिल्म के बैकग्राउंड के बारे मे जानना जरुरी है क्योंकि फिल्म के निर्देशक भंसाली ने खुद कहा है और उनकी फिल्म में डिस्केलमर भी आता है कि पद्मावत, सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के “पद्मावत” महाकाव्य से प्रेरित है।
दरअसल 16 वीं सदी में सूफी संत मलिक मुहम्मद जायसी ने जब अपना महाकाव्य पद्मावत लिखा था तब भारत में दिल्ली सल्तनत का दिया बुझ रहा था और मुगलों का सूरज उग रहा था। भारत में मुसलमानों के प्रभाव का ये वो दौर था जब मुसलमान होने के बावजूद जायसी ने अपने पद्मावत का हीरो एक हिंदू राजा रतन सेन और हीरोईन रानी पद्मावती को बनाया तो वहीं इसका विलेन एक मुसलमान सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को। जायसी के महाकाव्य मे जहां हिंदू रानी पद्मावती के सौंदर्य उनके त्याग और उनके सर्वोच्च उत्सर्ग का वर्णन है वहीं राजा रत्नसेन की बहादुरी और शौर्य के जरिए राजपूतों के साहस और उनके उसूलों का गुणगान भी किया गया।
जायसी ने अपने महाकाव्य में सुल्तान अलाउद्दीन की तुलना “माया” से की है। यहां ये जानना भी जरुरी है कि अलाउद्दीन खिलजी, दिल्ली का सुल्तान बनने से पहले उसी अवध इलाके के ‘कड़ा’ नाम के सूबे का सूबेदार था जिस इलाके में मलिक मुहम्मद जायसी रहते थे। जाहिर है जायसी ने अपने आस – पास के ऐतिहासिक पात्रों को अपने महाकाव्य का हिस्सा बनाया। अब जायसी के किरदारों के इतिहास के बारे में जानिए –
पहला किरदार है अलाउद्दीन खिलजी- 7 सौ साल पहले अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर अलाउद्दीन सन्म 1296 में दिल्ली के तख्त पर बैठा था। अलाउद्दीन ने दिल्ली सल्तनत पर 20 साल राज किया। उसने भारत पर हुए मंगोलों के आक्रामण को ना सिर्फ नाकाम किया वहीं अपने शासन में मुस्लिम धर्म गुरुओं का दखल रोका। राजहित को सबसे ऊपर रखने वाला सुल्तान खिलजी ऐसा पहला मुसलमान शासक भी था जिसने अपने साम्राज्य की सरहदों को दिल्ली से दूर दक्षिण भारत के मदुरै तक फैला दिया था और साम्राज्य विस्तार की अपनी इसी नीति के चलते सन् 1303 में वो राजस्थान की मशहूर राजपूत रियासत चित्तौड़गढ़ पर भी हमलावर हुआ था।
दूसरा किरदार है रानी पद्मावती – जायसी के ‘पद्मावत’ से पहले पद्मिनी या पद्मावती का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। सुल्तान खिलजी जब 1303 में जीत के बाद चित्तौड़ के किले में दाखिल हुआ था तब फारसी और हिंदी के कवि अमीर खुसरो भी उसके साथ थे। अमीर खुसरो के ‘तारीख-ए-अलाई’ या ‘खजायनुल फतूह’, जियाउद्दीन बरनी के ‘तारीख-ए-फीरोजशाही’ और अब्दुल्ला मलिक इसामी के ‘फतूहसलातीन’ जैसे समकालीन इतिहास में खिलजी की चित्तौड़ विजय का उल्लेख तो है लेकिन रानी पद्मिनी यानी पद्मावती का कोई जिक्र नहीं है। इतिहासकारों का भी यही मानना है कि सूफी कवि जायसी ने अपना पद्मावत महाकाव्य, किवदंतियों के आधार पर लिखा था और इसमें उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ काल्पनिकता का भरपूर सहारा लिया है। खुद जायसी ने भी अपने पद्मावत में ये बात मानी है।
अब देखिए भंसाली साहब ने अपनी फिल्म पद्मावत में क्या दिखाया है।
जायसी की पद्मावत से 100 कदम आगे जाते हुए भंसाली की फिल्म की कहानी, उसके सीन और संवाद रानी पद्मावती और राजा रतन सेन के जरिए राजूपतों की आन, बान शान का महिमामंडन करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती। वहीं दूसरी तरफ इतिहास में एक सफल शासक के तौर पर दर्ज सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के किरदार को भंसाली ने एक शैतान और हैवान की श्रेणी में खड़ा कर दिया है।
खिलजी को भंसाली ने फिल्म में ‘गे’ यानी होमोसेक्सुअल तक बता दिया है। इतना ही नहीं राजा रतन सेन और खिलजी के बीच वन टू वन की जंग भी भंसाली ने अपनी फिल्म में दिखाई है जबकि मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत के मुताबिक राजा रतनसेन की मौत पडोसी रियासत के राजा देवपाल नाम के एक दूसरे राजा के साथ युद्ध में होती है जिसकी निगाहें भी खिलजी की तरह ही रानी पद्मावती पर थी। देवपाल के साथ युद्ध में जब राजा रतन सेन की मौत होती है तो उसके बाद ही रानी पद्मावती आग में कूदकर जौहर कर लेती है और जब तक दिल्ली का सुल्तान खिलजी चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई करने पहुंचता है पद्मावती की राख ही उसके हाथ लगती है।
दरअसल पद्मावती की कहानी के दो पैमाने है एक इतिहास और दूसरा कल्पना। भंसाली ने कल्पना वाले हिस्से को यानी रानी पद्मावती और रतन सेन की कहानी को महिमांडित करने के लिए अपनी एक नई कहानी पेश की है जो सूफी कवि जायसी के पद्मावत से 80 फीसदी तक अलग है जबकि भंसाली अपनी फिल्म को कवि जायसी के पद्मावत से प्रेरित बताते है। वहीं भंसाली ने दूसरा गुनाह ये किया है कि इतिहास में दर्ज एक कामयाब शासक अलाउद्दीन खिलजी को उन्होंने फिल्म में अपनी कल्पना के बूते शैतान की तरह पेश किया है।
जाहिर है भंसाली ने इतिहास के साथ छेड़छाड रानी पद्मावती के संदर्भ में नहीं बल्कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के संदर्भ में की है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भंसाली ने कवि जायसी के महाकाव्य पद्मावत की जहां मुंडी ही मरोड़ दी है वहीं इतिहास को भी बुरी तरह तोडा-मरोड़ा है और इसीलिए भंसाली का सबसे बड़ा शिकार जहां ऐतिहासिक पात्र सुल्तान अलाउददीन खिलजी बना है वहीं संजय लीला भंसाली खुद बन गए है कथित पद्मावती के कथित वंशंजो के शिकार। जहां फिल्म का विलेन खिलजी है वहीं इस फिल्म से पैदा हुए हालात के विलेन भंसाली ही हैं।
फिल्म पद्मावत की हकीकत के बाद अब कहानी इस फिल्म के विरोध की हकीकत की —
दरअसल फिल्म पद्मावती के विरोध को लेकर ही उल्टी गंगा बह रही है। दरअसल फिल्म का विरोध तो सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के उन वंशजों या उसके उन समर्थकों को करना चाहिए था जो अगर होते। जबकि खुद को रानी पद्मावती का वंशंज बताने वाले लोग और संगठन ही फिल्म का विरोध कर रहे बावजूद इसके कि भंसाली ने तो राजपूतों की आन, बान और शान को अपनी फिल्म में सातंवे आसमान पर पहुंचा दिया है। यानी फिल्म पद्मावत के विरोधियों की वही गति है कि किसी ने कहा “कौव्वा कान ले गया तो आप कान को नहीं कौव्वे को देख रहे हैं यानी फिल्म देखी नहीं और फिल्म का विरोध कर रहे हैं और वो भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद। उधर सरकार का अपना फसाना है, नीरो की तर्ज पर सरकारी बंसियां बज रही हैं। ऐसे में यहां सबसे अहम सवाल तो ये हो जाता है कि –
लेखक – जसीम खान ABPNEWS के सीनियर रिपोर्टर है
अगर फिल्म पद्मावती को लेकर ये विरोध प्रदर्शन अलाउद्दीन खिलजी के समर्थन में हो रहे होते तो क्या सरकार का फिऱ भी यही रवैया रहता जो अभी तक देखा गया है