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Sunday, December 22, 2024

पत्रकारिता का ‘पत्थरकारिता’ काल !

न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त।

हमको आईना दिखान है दिखा देते हैं।।

Fake News

पत्रकारिता के संदर्भ में कहा गया यह शेर देश के प्रबुद्ध पत्रकारों द्वारा बड़ी शान के साथ अक्सर उनके व्याखानों में पढ़ा जाता रहा है। परंतु आज यही पंक्तियां अपने वजूद पर ही सवाल उठा रही हैं। आज चारों तरफ यह सवाल किया जा रहा है कि क्या वास्तव में पत्रकार,पत्रकारिता,संपादक, मीडिया समूहों के मालिक तथा पत्रकारिता से जुड़े लेखक,स्तंभकार,समीक्षक आदि अपनी जि़मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं? क्या वा$कई आज के दौर का मीडिया सरकार,शासन-प्रशासन तथा व्यवस्था को आईना दिखाने का काम ईमानदारी से कर रहा है?

क्या आज अपनी लेखनी,अपनी वाणी,अपनी नेक नीयती तथा पूरी जि़ मेदारी के साथ पत्रकारों द्वारा दर्शकों अथवा पाठकों को ऐसी सामग्री परोसी जा रही है जिससे जनता लाभान्वित हो सके? क्या पत्रकारों द्वारा सरकार,शासन-प्रशासन तथा व्यवस्था का सही स्वरूप व चित्रण पेश किया जा रहा है? या फिर लोकतंत्र का स्वयंभू चौथा स्तंभ पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण हो चुका है,

अधिकांश मीडिया समूहों के स्वामी आर्थिक लाभ कमाने की गरज़ से सत्ता की गोद में जा बैठे हैं? क्या आजकल एक अच्छे पत्रकार का पैमाना योग्यता अथवा पत्रकारिता का संपूर्ण ज्ञान होने के बजाए उसका आकर्षक व्यक्तित्व,उसकी सुंदरता, उसके चीखने-चिल्लाने का ढंग तथा अपने मालिक के प्रति उसकी वफादारी आदि ही रह गया है?

आजकल टेलीविज़न के समाचार चैनल को ही यदि देखा जाए तो अनेक चैनल्स के अनेक एंकर्स व समाचार वाचक शालीनता के साथ गंभीरतापूर्वक अपना कार्यक्रम पेश करने के बजाए जान-बूझ कर बेवजह चीखने-चिल्लाने का नाटक करते देखे जा सकते हैं। किसी गंभीर बहस को अथवा किसी साधारण से विषय को चीख-चिल्ला कर तथा उस कार्यक्रम में भडक़ाऊ किस्म के सवाल दाग कर या विवादित प्रश्र पूछ कर यह नए ज़माने के एंकर्स महज़ अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ाना चाहते हैं।

टीआरपी का बढऩा या घटना पत्रकारिता की विषयवस्तु नहीं है बल्कि यह व्यवसाय तथा मार्किटिंग से जुड़ी चीज़ है। परंतु टीवी एंकर्स के भडक़ाऊ व आग लगाऊ अंदाज़ ने इन दिनों जनता को अपनी ओर इस कद्र आकर्षित कर रखा है कि दर्शक अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों से अधिक अब टीवी समाचार सुनने लगे हैं। यही वजह है कि समाचार प्रसारण के दौरान इन टीवी चैनल्स की मुंह मांगी मुराद पूरी हो रही है तथा बढ़ती टीआरपी की वजह से ही समाचार प्रसारण के दौरान या किसी गर्मागर्म बहस के दौरान उन्हें भरपूर व्यवसायिक विज्ञापन प्राप्त हो रहे हैं।

दूसरी ओर इन दिनों यह भी देखा जा रहा है कि अधिक से अधिक लेखक व पत्रकार सत्ता की खुशामद करने व उन्हें $खुश करने में लगे हुए हैं। इनमें कई तो ऐसे भी हैं जो स्वयं को समाजवादी,धर्मनिरपेक्ष अथवा वाम या मध्यमार्गी विचारधारा का लेखक तो बताते हैं परंतु यदि आप उनकी टीवी डिबेट सुने या उनकी लेखनी पढ़ें तो आपको यही पता चलेगा कि ऐसे कई लोग किसी मान-स मान,अवार्ड या पुरस्कार की लालच में सत्ता की भाषा बोलते दिखाई देने लगते हैं।

पत्रकारों की इसी लालसा ने व मीडिया समूहों के स्वामियों की शत-प्रतिशत होती जा रही व्यसायिक सोच ने ही ऐस हालात पैदा कर दिए हैं कि अब पत्रकारिता को ‘पत्थरकारिता’ कहना ही ज़्यादा उचित प्रतीत होता है। यदि आपको उकसाऊ व भडक़ाऊ पत्रकारिता के कुछ जीते-जागते उदाहरण देखने हों तो अनेक टीवी चैनल के कार्यक्रमों के शीर्षक से ही आपको यह पता चल जाएगा कि प्रस्तोता के कार्यक्रम में क्या पेश किया जाने वाला है।

उदाहरण के तौर पर हल्ला बोल,सनसनी,दंगल,टक्कर,गो तमाशा,ताल ठोक के जैसे कार्यक्रमों के शीर्षक क्या पत्रकारिता के मापदंड पर सही उतरते हैं? या फिर नमक-मिर्च-मसाला लगे हुए ऐसे शीर्षक केवल टीआरपी बढ़ाने के लिए व्यवसायिक दृष्टिकोण से बनाए जाते हैं? और ज़ाहिर है जब शीर्षक ऐसे हों तो कार्यक्रम प्रस्तोता भी इस शीर्षक तथा अपने स्वामी के दूरगामी मक़सद अर्थात् टीआरपी बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी बात शालीनता के साथ कहने के बजाए गरजता और बरसता हुआ दिखाई देता है।

सूत्र तो यह भी बताते हैं कि टीवी पर होने वाली कई बहस खासतौर पर मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम,तीन तलाक,अन्य धार्मिक मुद्दों,गाय,गंगा,लव जेहाद,गौरक्षक,पद्मावती जैसे अनेक विवादित मुद्दों पर होने वाली बहस में एंकर्स द्वारा जान-बूझ कर कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों से ऐसे प्रश्र किए जाते हैं जिससे उसे गुस्सा आए और गुस्से में आकर वह व्यक्ति कुछ ऐसे उत्तर दे डाले जो विवाद का कारण बन सकें। आपने अक्सर देखा होगा कि टीवी पर जब कभी दो पक्ष आपस में किसी विषय पर बहस में भिड़ जाते हैं उस समय प्रस्तोता की ओर से उन्हें और ढील दे दी जाती है। जबकि यदि एंकर चाहे तो उसी समय उनका माईक बंद कर सकता है और दूसरे अतिथि की ओर रुख कर सकता है।

परंतु एंकर जान-बूझ कर दो प्रतिद्वंद्वी विचार के लोगों में बहस कराता है ताकि उसका बहुमूल्य समय भी गुज़र सके और लोगों को उस विवादित चटकारापूर्ण बहस में आनंद भी आ सके और इसी बदौलत उसकी टीआर पी भी बढ़ सके। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह मीडिया समूहों के मालिक व उनके इशारों पर चंद पैसेां की खातिर नाचने वाले प्रस्तोता यह नहीं जानते कि उनकी इस बदनीयती,बदज़ुबानी का खमियाज़ा भारतीय समाज और पूरे देश को भुगतना पड़ता है। निश्चित रूप से यह सब पत्रकारिता के लक्षण कतई नहीं हैं।

इन दिनों पूरे देश में ऐेसे ही एक टीवी शोमैन रोहित सरदाना के विरुद्ध ज़बरदस्त आक्रोश देखा जा रहा है। इसके विरुद्ध सैकड़ों ए$फआईआर दर्ज होने की खबरें हैं। कई जगह हिंदू-मुस्लिम सभी ने मिलकर सरदाना के विरुद्ध ज्ञापन दिए हैं तथा इसे न्यूज़ चैनल से हटाए जाने की मांग की है।

एक टीवी शो में इसने अपनी एक सहयोगी पत्रकार के साथ हो रही एक बहस के दौरान हिंदू-मुस्लिम व ईसाई धर्म की कई आराध्य हस्तियों के साथ अभद्र शब्द का प्रयोग किया था। खबर तो यह है कि यह विवादित कार्यक्रम भी जान-बूझ कर इसी लिए तैयार किया गया था ताकि विवाद बढऩे के बाद टीवी चैनल व एंकर्स को भारी शोहरत मिल सके। दुर्भाग्यवश हमारे देश में नकारात्मक रूप से मिलने वाली प्रसिद्धि को भी सकारात्मक प्रसिद्धि के रूप में देखते हैं और कुछ क्षेत्रों में तो जान-बूझ कर इसीलिए विवाद खड़ा भी किया जाता है ताकि विवाद होने के बाद मीडिया में उसे अच्छा कवरेज हासिल हो सके।

फिल्म पद्मावती को लेकर खड़े हुए बवाल के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा रही हैं। यदि आज पत्रकारिता भी इसी फार्मूले का सहारा लेकर आगे बढऩे की कोशिश कर रही है तो यह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। ऐसी पत्रकारिता से देश को बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। आज हमारे समाज में जो भी दुर्भावना या वैमनस्य का वातावरण बनता दिखाई दे रहा है या चारों ओर से असहिष्णुता की जो खबरें सुनाई दे रही हैं उसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि पत्रकारिता का वर्तमान दौर दरअसल ‘पत्थरकारिता’ काल बनता जा रहा है।

:-तनवीर जाफरी 

 

 

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