पेरिस में नरेंद्र मोदी और नवाज़ शरीफ की जो मुलाकात हुई, उसके बारे में दोनों सरकारों ने ज्यादा कुछ बताया नहीं है लेकिन जो कुछ नवाज़ ने कहा और उससे भी ज्यादा, जो उनके फोटो ने कहा, वह दोनों देशों के लिए शुभ−संकेत है। दोनों इस तरह से बैठे बात कर रहे थे, मानो दो भाई अपने मन की बातें कर रहे हों। जो भी हो, यह मानना होगा कि टूटा तार फिर जुड़ गया। यदि दोनों देशों के विदेश सचिव नहीं मिल पाए तो नहीं मिल पाए। अरे! प्रधानमंत्री लोग तो मिल ही रहे हैं।
दोनों देशों के अफसर मिलें और विधिवत बातचीत शुरु हो, यह तो जरुरी है ही लेकिन फिलहाल उससे भी ज्यादा जरुरी एक और बात आन पड़ी है। वह है, 7−8 दिसंबर को इस्लामाबाद में होने वाला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन! इसमें 26 देश को आमंत्रित किया गया है, जिसमें भारत प्रमुख है। यह सम्मेलन अफगानिस्तान के बारे में हैं।
हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को खासतौर से आमंत्रित किया गया है। निमंत्रण आए, हफ्ता भर हो गया है लेकिन सरकार ने मौन साध रखा है। वह गलत भी नहीं है। दोनों देशों के बीच दो बार वार्ता टूट चुकी है, सीमांत पर झड़पें जारी हैं और अब जासूसी का ताजा मामला सामने आ गया है लेकिन पेरिस में मोदी−नवाज़ भेंट ने कुछ नयी मिठास पैदा कर दी है।
यों भी अफगानिस्तान का महत्व भारत के लिए बहुत ज्यादा है। सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से भारत और अफगानिस्तान के सदियों पुराने रिश्ते हैं। अफगानिस्तान के पुर्नर्निमाण में भारत ने जो भूमिका निभाई है, वह बेजोड़ है। हमने 200 कि.मी. की जरंज−दिलाराम सड़क बनाकर ईरान से अफगानिस्तान को जोड़ा, संसद भवन और अस्पताल का निर्माण किया, हजारों विशेषज्ञ भेजे और अनेक भारतीयों ने अपने प्राण गंवाए।
अमेरिका और जापान के बाद सबसे ज्यादा पैसा भारत ने लगाया। अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला का भारत से विशेष संबंध है। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई तो भारत में ही पले−पढ़े। सुषमा स्वराज को इस अफगान−सम्मेलन में जरुर जाना चाहिए। वे पहले काबुल जा चुकी हैं। अफगान नेता उन्हें काफी पसंद करते हैं। यदि वे इस सम्मेलन का बहिष्कार करेंगी तो नुकसान भारत का ही होगा। वे जाएंगी तो अफगान−बहाने से, वे पाकिस्तान के साथ भी तार जोड़ आएंगी। वे लगभग 15 साल पहले पाकिस्तान जा चुकी हैं। वे अब भी क्यों न जाएं?
लेखक:वेद प्रताप वैदिक