इलाहाबाद – उत्तर प्रदेश के जूनियर एवं सीनियर बेसिक स्कूलों की दुर्दशा पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सख्त कदम उठाया है। कोर्ट ने आदेश दिया है कि जब तक जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और अन्य उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों, न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी।
यह आदेश न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने शिव कुमार पाठक व कई अन्य की याचिकाओं को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिया। हाई कोर्ट ने छह माह के भीतर मुख्य सचिव को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में पढ़ें।
ऐसा न करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। यदि कोई कॉन्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए भेजे तो उस स्कूल में दी जाने वाली फीस के बराबर धनराशि उसके द्वारा सरकारी खजाने में प्रतिमाह जमा कराई जाए। ऐसे लोगों की वेतनवृद्धि व प्रोन्नति कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था हो। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को अगले शिक्षा सत्र से इस व्यवस्था को लागू करने को कहा है।
[box type=”info” ]सरकारी खजाने से वेतन या सुविधा ले रहे बड़े लोगों के बच्चे जब तक अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक उनकी दशा में सुधार नहीं होगा।
-इलाहाबाद हाई कोर्ट[/box]
न्यायाधीश ने कहा है कि प्रदेश में तीन तरह की शिक्षा व्यवस्था है। अंग्रेजी कॉन्वेंट स्कूल, मध्यमवर्ग के प्राइवेट स्कूल तथा उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित सरकारी स्कूल। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए अनिवार्य न करने से इन स्कूलों की दुर्दशा है। इनमें न योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधाएं है।
कोर्ट ने एक लाख 40 हजार जूनियर व सीनियर स्कूलों में अध्यापकों के दो लाख 70 हजार खाली पदों सहित स्कूलों में पानी आदि मूलभूत सुविधाएं मुहैया न होने पर तीखी टिप्पणी की है। कोर्ट ने गणित व विज्ञान विषयों के शिक्षकों की भी नई सूची बनाने का निर्देश दिया है।