बीते 45 बरस की शिवसेना की राजनीति कल स्वाहा हो जायेगी। जिन सपनों को मुंबई की सड़क से लेकर समूचे महाराष्ट्र में राज करने का सपना शिवसेना ने देखा कल उसे बीजेपी हड़प लेगी। पहले अन्ना, उसके बाद भाई और फिर उत्तर भारतीयों से टकराते ठाकरे परिवार ने जो सपना मराठी मानुष को सन आफ स्वायल कहकर दिखाया, कल उसे गुजराती अपने हथेली में समेट लेगा। और एक बार फिर गुजरातियों की पूंजी, गुजरातियों के धंधे के आगे शिवसेना की सियासत थम जायेगी या संघर्ष के लिये बालासाहेब ठाकरे का जूता पहन कर उद्दव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे एक नये अंदाज में निकलेंगे। या फिर राज ठाकरे और उद्दव एक साथ खड़े होकर विरासत की सियासत को बरकरार रखने के आस्तित्व की लडाई का बिगुल फूंक देंगे।
दादर से लेकर चौपाटी और ठाणे से लेकर उल्लासनगर तक में यह सवाल शिवसैनिकों के बीच बड़ा होता जा रहा है कि एक वक्त अंडरवर्ल्ड तक पर जिन शिवसैनिकों ने वंसत सेना [महाराष्ट्र के सीएम रहे वंसत चौहाण ने अंडरवर्ल्ड के खात्मे के लिये बालासाहेब ठाकरे से हाथ मिलाया था तब शिवसैनिक वसंत सेना के नाम से जाने गये ] बनकर लोहा लिया ।
एक वक्त शिवसैनिक आनंद दिधे से लेकर नारायण राणे सरीखे शिवसैनिकों के जरीये बिल्डर और भू माफिया से वसूली की नयी गाथायें ठाणे से कोंकण तक में गायी गई। और नब्बे के दशक तक जिस ठाकरे की हुंकार भर से मुंबई ठहर जाती थी क्या कल के बाद उसका समूचा सियासी संघर्ष ही उस खाली कुर्सी की तर्ज पर थम जायेगी जो अंबानी के अस्पताल के उदघाटन के वक्त शिवसेना के मुखिया उद्दव ठाकरे के ना पहुंचने से खाली पड़ी रही। और तमाम नामचीन हस्तियां जो एक वक्त बालासाहेब ठाकरे के दरबार में गये बगैर खुद को मुंबई में सफल मानती नहीं थी, वह सभी एक खाली कुर्सी को अनदेखा कर मजे में बैठी रहीं।
असल में पहली बार कमजोर हुई शिवसेना के भीतर से शिवसैनिकों के ही अनुगुंज सुने जा सकते हैं कि शिवसैनिक खुद पर गर्व करें या भूल जाये कि उसने कभी मुंबई को अपनी अंगुलियों पर नचाया।
लेकिन सवाल है कि मुंबई का सच है क्या और क्या भाजपा महाराष्ट्र को नये सिरे से साध पायेगी या फिर गुजराती और महाराष्ट्रीयन के बीच मुंबई उलझ कर रह जायेगी। क्योंकि जिस मुंबई पर महाराष्ट्रीयन गर्व करता है और अधिकार जमाना चाहता है, असल में उसके निर्माण में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के उन स्वप्नदृष्टा पारसियों की निर्णायक भूमिका रही, जो अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर सूरत से मुंबई पहुंचे। लावजी नसेरवानजी वाडिया जैसे जहाज निर्माताओं ने मुंबई में गोदियों के निर्माण की शुरुआत करायी। डाबर ने 1851 में मुंबई में पहली सूत मिल खोली। जेएन टाटा ने पश्चिमी घाट पर मानसून को नियंत्रित करके मुंबई के लिये पनबिजली पैदा करने की बुनियाद डाली, जिसे बाद में दोराबजी टाटा ने पूरा किया।
उघोग और व्यापार की इस बढ़ती हुई दुनिया में मुंबई वालो का योगदान ना के बराबर था। मुंबई की औद्योगिक गतिविधियों की जरूरत जिन लोगों ने पूरी की वे वहां 18वीं शताब्दी से ही बसे हुये व्यापारी, स्वर्णकार, लुहार और इमारती मजदूर थे। मराठियों का मुंबई आना बीसवीं सदी में शुरू हुआ। और मुंबई में पहली बार 1930 में ऐसा मौका आया जब मराठियों की तादाद 50 फीसदी तक पहुंची।
लेकिन, इस दौर में दक्षिण भारतीय.गुजराती और उत्तर भारतीयों का पलायन भी मुंबई में हुआ और 1950-60 के बीच मुंबई में मराठी 46 फीसदी तक पहुंच गये। इसी दौर में मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कराने और अलग ऱखने के संघर्ष की शुरुआत हुई। उस समय मुंबई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे, जो गुजराती मूल के थे। उन्होंने आंदोलन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया। जमकर फायरिंग, लाठी चार्ज और गिरफ्तारी हुई। असल में मुंबई को लेकर कांग्रेस भी बंटी हुई थी।
महाराष्ट्र कांग्रेस अगर इसके विलय के पक्ष में थी,तो गुजराती पूंजी के प्रभाव में मुंबई प्रदेश कांग्रेस उसे अलग रखने की तरफदार थी। ऐसे में मोरारजी के सख्त रवैये ने गैर-महाराष्ट्रीयों के खिलाफ मुंबई के मूल निवासियों में एक सांस्कृतिक उत्पीड़न की भावना पैदा हो गयी, जिसका लाभ उस दौर में बालासाहेब ठाकरे के मराठी मानुस की राजनीति को मिला। लेकिन, आंदोलन तेज और उग्र होने का बड़ा आधार आर्थिक भी था। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का प्रभुत्व था। लिखाई-पढाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी और ईरानियो का रुतबा था। भवन निर्माण में सिधिंयों का बोलबाला था। और इमारती काम में लगे हुये ज्यादातर लोग आंध्र के कम्मा थे।
मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था कि ‘आमची मुंबई आहे’, पर यह सिर्फ कहने की बात थी। मुंबई के महलनुमा भवन, गगनचुंबी इमारतें, कारों की कभी ना खत्म होने वाली कतारें और विशाल कारखाने, दरअसल मराठियों के नहीं थे। उन सभी पर किसी ना किसी गैर-महाराष्ट्रीय का कब्जा था। यह अलग मसला है कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सैकड़ों जाने गयीं और उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र को मिली। लेकिन, मुंबई पर मराठियो का यह प्रतीकात्मक कब्जा ही रहा, क्योंकि मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की खुशी और समारोह अभी मंद भी नहीं पडे थे कि मराठी भाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया।
मुंबई के व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्कृति और भाषा के लिये कोई स्थान नहीं था। मराठी लोग क्लर्क, मजदूरों, अध्यापकों और घरेलू नौकरों से ज्यादा की हैसियत की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह मामूली हैसियत भी मुश्किल से ही उपलब्ध थी। और फिर मुंबई के बाहर से आने वाले दक्षिण-उत्तर भारतीयों और गुजरातियों के लिये मराठी सीखना भी जरूरी नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी से काम चल सकता था। बाहरी लोगों के लिये मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत से कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था।
दरअसल, मुंबई कॉस्मोपोलिटन मराठी भाषियों से एकदम कटा-कटा हुआ था। असल में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और बाद में शिवसेना ने जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह मुंबई के इस चरित्र को कुछ इस तरह पेश करता था कि मानो यह सब किसी साजिश के तहत किया गया हो। लेकिन, असलियत ऐसी थी नहीं। अपनी असफलता के दैत्य से आक्रांत मराठी मानुस के सामने उस समय सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह था कि वह अपनी नाकामी की जिम्मेदारी किस पर डाले।
एक तरफ 17-18वीं सदी के शानदार मराठा साम्राज्य की चमकदार कहानियां थीं जो महाराष्ट्रीयनों को एक पराक्रामी जाति का गौरव प्रदान करती थी और दूसरी तरफ1960 के दशक का बेरोजगारी से त्रस्त दमनकारी यथार्थ था। आंदोलन ने मुंबई तो महाराष्ट्र को दे दिया, लेकिन गरीब और मध्यवर्गीय मुंबईवासी महाराष्ट्रीय अपना पराभव देखकर स्तब्ध था। दरअसल, मराठियों के सामने सबसे बडा संकट यही था कि उनके भाग्य को नियंत्रित करने वाली आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इतनी विराट थीं कि उनसे लड़ना उनके लिये कल्पनातीत ही था। उसकी मनोचिकित्सा केवल एक ही तरीके से हो सकती थी कि उसके दिल में संतोष के लिये उसे एक दुश्मन दिखाया-बताया जाये। यानी ऐसा दुश्मन जिससे मराठी मानुस लड़ सके।
बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने मुंबई के महाराष्ट्रीयनों की यह कमी पूरी की और यहीं से उस राजनीति को साधा जिससे मराठी मानुस को तब-तब संतोष मिले जब-जब शिवसेना उनके जख्मों को छेड़े। ठाकरे ने अखबार मार्मिक को हथियार बनाया और 1965 में रोजगार के जरिये मराठियों को उकसाना शुरू किया। कॉलम का शीर्षक था-वाचा आनी ठण्ड बसा यानी पढ़ो और चुप रहो। इस कॉलम के जरिये बकायदा अलग-अलग सरकारी दफ्तरों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले गैर-महाराष्ट्रीयनों की सूची छापी गई।
इसने मुंबईकर में बेचैनी पैदा कर दी। और ठाकरे ने जब महसूस किया कि मराठी मानुस रोजगार को लेकर एकजुट हो रहा है, तो उन्होंने कॉलम का शीर्षक बदल कर लिखा- वाचा आनी उठा यानी पढ़ो और उठ खड़े हो। इसने मुंबईकर में एक्शन का काम किया। संयोग से शिवसेना और उद्दव ठाकरे आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें उनके सामने राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है । लेकिन सत्ता भाजपा के हाथ होगी ।
नायक अमित शाह या नरेन्द्र मोदी होंगे तो शिवसेना क्या पुराने तार छडेगी मौजूदा सच से संघर्ष करने की सियासत को तवोज्जो देगी। क्योंकि महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा शहरी गरीब हैं और मुबंई देश का ऐसा महानगर है,जहां सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा- लाख गुना तक है। मुंबई में सबसे ज्यादा अरबपति भी हैं और सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद भी यहीं है। फिर, इस दौर में रोजगार का सवाल सबसे बड़ा हो चला है, क्योंकि आर्थिक सुधार के बीते एक दशक में तीस लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो गयी हैं। मिलों से लेकर फैक्ट्रियां और छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह खत्म हो गये। जिसका सीधा असर महाराष्ट्रीयन लोगों पर पड़ा है।
और संयोग से गैर-महाराष्ट्रीय इलाकों में भी कमोवेश आर्थिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुयी है। पलायन कर महानगरों को पनाह बनाना समूचे देश में मजदूर से लेकर बाबू तक की पहली प्राथमिकता है। और इसमें मुबंई अब भी सबसे अनुकूल है, क्योंकि भाषा और रोजगार के लिहाज से यह शहर हर तबके को अपने घेरे में जगह दे सकता है।
इन परिस्थितियों के बीच मराठी मानुस का मुद्दा अगर राजनीतिक तौर पर उछलता है, तो शिवसेना और उद्दव ठाकरे दोनों ही इसे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जोड़, फायदा लेने से चूकेंगे नहीं। लेकिन, यहीं से संकट उस राजनीति के दौर शुरू होगा जो आर्थिक नीतियों तले देश के विकास का सपना अभी तक बेचती रही हैं। और जिस तर्ज पर दो लाख करोड के महाराष्ट्र को-ओपरेटिव पर कब्जा जमाये शरद पवार ने भाजपा को खुले समर्थन का सपना बेच कर ठाकरे खानदान की सियासत को ठिकाने लगाया उसने यह तो संकेत दे दिये कि शरद पवार के खिलाफ खडे होने से पहले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी दोनों ठाकरे खानदान की सियासत को हड़पना चाहेंगे।
:-पुण्य प्रसून बाजपेयी
लेखक परिचय :- पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।