गुजरात के ऊना में हुई घटना ने राष्ट्रीय नौटंकी का रुप धारण कर लिया है। इसमें शक नहीं कि मरी गाय की खाल निकालने वाले दलितों की पिटाई की जितनी निंदा की जाए, कम है। पिटाई करने वाले अपने आप को गौ-रक्षक कहते हैं। उनसे बड़ा मूर्ख कौन हो सकता है?
मरी हुई गाय की खाल नहीं निकालने से उसकी रक्षा कैसे हो सकती है? लेकिन आश्चर्य है कि इस मुद्दे को लेकर संसद का समय बर्बाद किया जा रहा है, सभी पार्टियों के नेता ऊना की परिक्रमा में जुटे हुए हैं, घायलों के साथ जबरदस्ती फोटो खिंचवाने में लगे हुए हैं और गाय की खाल में खुर्दबीन लगाकर अपने-अपने वोट ढूंढ रहे हैं।
हमारे इन महान नेताओं ने तिल का ताड़ बना दिया है। नतीजा यह है कि दर्जनों दलित नौजवान आत्महत्या करने पर उतारु हैं। वे यह क्यों नहीं सोचते कि यह घटना शुद्ध गलतफहमी के कारण भी हो सकती है? उन गोरक्षकों ने यह समझ लिया हो कि खाल उतारने वालों ने पहले गाय को मारा होगा। गोवध-निषेध तो है ही।
सो, उन्होंने मार-पीट कर दी। यह भी हो सकता है कि गांव के ये गोरक्षक उन खाल उतारने वालों की जमीन पर कब्जा करना चाहते हों। गोवध का उन्होंने झूठा बहाना बना लिया हो। इन मार-पीट करने वालों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।
इस मामले को दलित और गैर-दलित का मामला बनाना कहां तक उचित है? पिटने वाले लोग मुसलमान, ईसाई और आदिवासी भी हो सकते थे। कसाई तो कोई भी हो सकता है। हिंदू भी। एक स्थानीय आपराधिक मामले को राष्ट्रीय नौटंकी बनाना क्या साबित करता है?
क्या यह नहीं कि हमारी सभी पार्टियां बौद्धिक तौर पर दीवालिया हो चुकी है? किसी भी नेता या पार्टी ने ऐसी एक बात भी नहीं कही है, जिससे भारत में जातिवाद का खात्मा हो। ऊंच-नीच का भेद-भाव खत्म हो। दलितों और पिछड़ों को न्याय मिले। उन पर सदियों से हो रहा जुल्म खत्म हो।
अब महर्षि दयानंद की तरह जन्मना जाति की भर्त्सना करने वाला क्या कोई सांधु-संन्यासी आज दिखाई पड़ता है? जात-तोड़ो आंदोलन चलाने वाला क्या कोई डॉ. लोहिया आज हमारे बीच है? दलितों और पिछड़ों के नाम पर आरक्षण की मलाई खाने वाला वर्ग इतना ताकतवर हो गया है कि वही इस नीचतम जातिवाद का सबसे बड़ा संरक्षक हो गया है। वह इस नव-ब्राह्मणवाद’ का सबसे बड़ा प्रवक्ता है।
काश, कि आज लोहिया या आंबेडकर जीवित होते! आज के नेताओं को न तो आत्महत्या के लिए तैयार नौजवानों की चिंता है और न ही मायावती या किसी की प्रतिष्ठा की! वे तो नोट और वोट के यार हैं। उनके थोक-वोट में सेंध लग रही है, इसीलिए वे परेशान हैं। दलितपन और पिछड़ापन खत्म करने की चिंता किसी को नहीं है। जो हो रहा है, वह बस नोट और वोट की नौटंकी है।
लेखक:– डॉ. वेदप्रताप वैदिक