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Sunday, March 16, 2025

कल तक बंदूक का मतलब आतंक था, आज वादी की हवाओं में बारुद है……

जहाज ने जमीन को छुआ और तो खिड़की से बाहर का मौसम कुछ धुंधला धुंधला सा दिखायी दिया। तब तक एयर-होस्टेज की आवाज गूंज पड़ी…बाहर का तापमान 27 डिग्री है । उमस भी है। सुबह के 11 बजे थे और जहाज का दरवाजा खुलते ही गर्म हवा का हल्का सा झोंका चेहरे से टकराया। सीट आगे की थी तो सबसे पहले श्रीनगर की हवा का झोंका चेहरे से टकराया। घाटी आना तो कई बार हुआ और हर बार आसमान से कश्मीर घाटी के शुरु होते ही कोई ना कोई आवाज कानों से टकराती जरुर रही कि कश्मीर जन्नत क्यों है। लेकिन पहली बार जन्नत शुरु हुई और जहाज जमीन पर आ गया और कोई आवाज नहीं आई। गर्मी का मौसम है जहाज खाली। किराया भी महज साढे तीन हजार। यानी सामान्य स्थिति होती तो मई में किराया सात से दस हजार के बीच होता। लेकिन वादी की हवा जिस तरह बदली। या कहें लगातार टीवी स्क्रीन पर वादी के बिगड़ते हालात को देखने के बाद कौन जन्नत की हसीन वादियों में घूमने निकलेगा ।

ये सवाल जहन में हमेशा रहा लेकिन जहाज जमीन पर उतरा तो हमेशा की तरह ना तो कोई चहल-पहल हवाई अड्डे पर नजर आई ना ही बहुतेरे लोगों की आवाजाही। हां, सुरक्षाकर्मियों की सामान्य से ज्यादा मौजूदगी ने ये एहसास जरुर करा दिया कि फौजों की आवाजाही कश्मीर हवाई अड्डे पर बढ़ी हुई है। और बाहर निकलते वक्त ना जाने क्यों पहली बार इच्छा हुई कि हर एयरपोर्ट का नाम किसी शक्स के साथ जुड़ा होता है तो श्रीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट किसके नाम पर है। और पहली बार नजर गई एक किनारे में लिखा है शेख-उल-आलम एयरपोर्ट। कौन है शेख-उल-आलम…ये सोच बाहर निकला तो इकबाल हाथ में मेरे नाम का प्लेकार्ड लिये मिल गया। इकबाल । श्रीनगर के डाउन टाउन में रहने वाला। टैक्सी चलाता है । और आज से नहीं 1999 से इकबाल में पहली बार एयरपोर्ट पर ही मिला था । तब मैं भी पहली बार श्रीनगर पहुंचा था। लेकिन तब साथ में कैमरा टीम थी। क्योंकि अमरनाथ यात्रा के दौरान आतंकी हिंसा की रिपोर्ट करने पहुंचा। और उसके बाद दर्जनों बार इकबाल ही हवाईअड्डे पर दिल्ली से एक फोन करने पर पहुंच जाता । और हर बार मेरे सवालों का जबाब देते देते वह शहर पहुंचा देता। ये शेख-उल-आलम कौन थे । जिनके नाम पर श्रीनगर हवाई अड्डा है।

आप पहले व्यक्ति है जो पूछ रहे हैं। जनाब वो संत थे । उन्हें नुन्द श्रृषि । यहां से 60 किलोमीटर दूर कुलगाम के क्योमोह गांव में जन्म हुआ था । बहुत नामी संत थे । कुलगाम चलेंगे क्या । श्रीनगर से अनंतनाग। वहां से 10 किलोमीटर ही दूर है । न न । मैं झटके में बोला । कल सुबह लौटना भी है। कुछ घंटों के लिये इस बार आये है। हां ..रोज टीवी पर रिपोर्ट दिखाते दिखाते सोचा शनिवार का दिन है छुट्टी है। रविवार को लौट जाऊंगा । जरा हालात देख आऊं । लोग हालात देख कर नहीं आते और आप हालात देखने आये हो। अब ये किसी से संभल नहीं रहा है। या कहे कोई संभाल नहीं रहा। आप जो भी कहो। लेकिन हर कोई तो सड़क पर ह। ना कोई काम है । ना कमाई। स्कूल कालेज चलते नहीं। बच्चे क्या करें। और मां बाप परेशान हैं। ये देखिये गिलानी का घर। चारों तरफ पुलिस वाले क्यों है। सिर्फ सिक्यूरिटी फोर्स ही तो है हर जगह। और इकबाल के कहते ही मेरी नजर बाहर सड़क पर गई तो बख्तरबंद गाडियों में सिक्यूरिटी फोर्स की आवाजाही ने खींच लिया। ये सिर्फ हैदरपुरा [ गिलानी का घर ] में है या पूरे शहर में । शहर में आप खुद ही देख लेना । कहां जायेंगे पहले। सीधे लाल चौक ले चलो। जरा हालात देखूंगा । चहल-पहल देखूंगा । फिर यासिन मलिक से मिलूंगा । अब चलती नहीं है सेपरिस्टों की। क्यों दिल्ली से तो लगता है कि अलगाववादी ही कश्मीर को चला रहे हैं। इकबाल हंसते हुये बोला । जब महबूबा दिल्ली की गुलाम हो गई तो आजाद तो सिर्फ सेपरिस्ट ही बचे। फिर चलती क्यों नहीं। क्योंकि अब लोगों में खौफ नहीं रहा । नई पीढी बदल चुकी है । नये हालात बदल चुके हैं । लेकिन सरकारों के लिये कश्मीर अब भी नब्बे के युग में है। आप खुद ही यासिन से पूछ लेना, नब्बे में वह जवान था। बंदूक लिये घाटी का हीरो था । अब सेपरिस्टों के कहने पर कोई सड़क पर नहीं आता । सेपरिस्ट ही हालात देखकर सड़क पर निकले लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं। पूछियेगा यासिन से ही कैसे वादी में हवा बदली है और बच्चे-बच्चियां क्यों सडक पर है । रास्ते में मेरी नजरें लगातार शनिवार के दिन बाजार की चहल-पहल को भी खोजती रही । सन्नाटा ज्यादा नजर आया । सड़क पर बच्चे खेलते नजर आये। डल लेक के पास पटरियों पर पहली बार कोई जोड़ा नजर नहीं आया। और लाल चौक। दुकानें खुली थीं। कंटीले तारों का झुंड कई जगहों पर पड़ा था। सुरक्षाकर्मियों की तादाद हमेशा की तरह थी। लाल चौक से फर्लांग भर की दूरी पर यासिन मलिक का घर। पतली सी गली । गली में घुसते ही चौथा मकान। लेकिन गली में घुसते ही सुरक्षाकर्मियों की पहली आवाज किससे मिलना है । कहां से आये है । खैर पतली गली । और घर का लकड़ी का दरवाजा खुलते ही। बेहद संकरी घुमावदार सीढ़ियां । दूसरे माले पर जमीन पर बिछी कश्मीरी कारपेट पर बैठ यासिन मलिक। कैसे आये । बस आपसे मिलने और कश्मीर को समझने देखने आ गये । अच्छा है जो शनिवार को आये । जुम्मे को आते तो मिल ही नहीं पाते। क्यों ? शुक्रवार को सिक्यूरिटी हमें किसी से मिलने नहीं देती और हमारे घर कोई मिलने आ नहीं पाता । यानी । नजरबंदी होती है । तो सेपरिस्टो ने अपनी पहचान भी तो जुम्मे के दिन पत्थरबाजी या पाकिस्तान का झंडा फरहाने वाली बनायी है । आप भूल कर रहे हैं । ये 90 से 96 वाला दौर नहीं है । जब सेपरिस्टो के इशारे पर बंदूक उठायी जाती। या सिक्यूरिटी के खिलाफ नारे लगते । क्यों 90 से 96 और अब के दौर में अंतर क्या आ गया है। हालात तो उससे भी बुरे लग रहे हैं। स्कूल जलाये जा रह हैं। लड़कियां पत्थर फेंकने सड़क पर निकल पड़ी हैं। आतंकी खुलेआम गांव में रिहाइश कर रहे है । किसी आतंकी के जनाजे में शामिल होने लिये पूरा गांव उमड़ रहा है । तो आप सब जानते ही हो तो मैं क्या कहूं । लेकिन ये सब क्यों हो रहा है ये भी पता लगा लीजिये । ये समझने तो आये हैं। और इसीलिये आपसे मिलने भी पहुंचे हैं। देखिये अब सूचना आप रोक नहीं सकते। टेक्नालाजी हर किसी के पास है । या कहे टेक्नालाजी ने हर किसी को आपस मे मिला दिया है । 90-96 के दौर में कश्मीरियों के टार्चर की कोई कहानी सामने नहीं आ पाई ।

जबकि उस दौर में क्या कुछ हुआ उसकी निशानी तो आज भी मौजूद है । लेकिन देश – दुनिया को कहां पता चला । और अब जीप के आगे कश्मीरी को बांध कर सेना ने पत्थर से बचने के लिये ढाल बनाया तो इस एक तस्वीर ने हंगामा खड़ा कर दिया । पहले कश्मीर से बाहर पढ़ाई कर रहा कोई छात्र परेशान होकर वापस लौटता तो कोई नहीं जानता था। अब पढे-लिखे कश्मीरी छात्रों के साथ देश के दूसरे हिस्से में जो भी होता है, वह सब के सामने आ जाता है । कश्मीर के बाहर की दुनिया कश्मीरियों ने देख ली है। इंडिया के भीतर के डेवलेपमेंट को देख लिया है । वहां के कालेज, स्कूल, हेल्ख सेंटर , टेक्नालाजी सभी को देखने के बाद कश्मीरियों में ये सवाल तो है कि आखिर ये सब कश्मीर में क्यों नहीं । घाटी में हर चौराहे पर सिक्यूरिटी क्यों है ये सवाल नई पीढ़ी जानना चाहती है । उसे अपनी जिन्दगी मे सिक्यूरिटी दखल लगती है। आजादी के मायने बदल गये है बाजपेयी जी । अब आजादी के नारो में पाकिस्तान का जिक्र कर आप नई पीढी को गुमराह नहीं कर सकते हैं। तो क्या सेपरिस्टो की कोई भूमिका नहीं है । आतंकवाद यूं ही घाटी में चल रहा है। गांव के गांव कैसे हथियारों से लैस हैं। लगातार बैंक लूटे जा रहे हैं। पुलिस वालों को मारा जा रहा है । क्या ये सब सामान्य है । मैं ये कहां कह रहा हू सब सामान्य है । मैं तो ये कह रहा हूं कि कश्मीर में जब पीढी बदल गई, नजरिया बदल गया । जबकि दिल्ली अभी भी 90-96 के वाकये को याद कर उसी तरह की कार्रवाई को अंजाम देने की पॉलिसी क्यों अपनाये हुये है । क्या किसी ने जाना समझा कि वादी में रोजगार कैसे चल रहा है । घर घर में कमाई कैसे हो रही है । बच्चे पढाई नही कर पा रहे है । तो उनके सामने भविष्य क्या होगा । तो स्कूल जला कौन रहा है । स्कूल जब नहीं जले तब पांच महीने तक स्कूल बंद क्यों रहे…ये सवाल तो आपने कभी नहीं पूछा । तो क्या सेपरिस्ट स्कूल जला रहे हैं । मैंने ये तो नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब है जनता की हर मुश्किल के साथ अगर दिल्ली खड़ी नहीं होगी तो उसका लाभ कोई कैसे उठायेगा, ये भी जले हुये स्कूलों को देखकर समझना चाहिये। हुर्रियत ने तो स्कूलों की जांच कराने को कहा ।

मैंने खुद कहा कौन स्कूल जला रहा है सरकार को बताना चाहिये। आप नेताओं से मिलें तब आपको सियासत समझ में समझ में आयेगी । फिर आप खुद ही लोगों से मिलकर पूछें कि आखिर ऐसा क्या हआ की जो मोदी जी चुनाव से पहले कश्मीरियत का जिक्र कर रहे थे वह वही मोदी जी चुनाव परिणाम आने के बाद कश्मीरियो से दूरी क्यों बना बैठे । और चुनी हुई महबूबा सरकार का मतलब है कितना । यासिन से कई मुद्दो पर खुलकर बात हुई । बात तो इससे पहले भी कई बार हुई थी । लेकिन पहली बार यासिन मलिक ने देश की राजनीति के केन्द्र में खडे पीएम मोदी को लेकर कश्मीर के हालात से जोडने की वकालत की । सीरिया और आईएसआईएस के संघर्ष तले कश्मीर के हालात को उभारने की कोशिश की । करीब दो घंटे से ज्यादा वक्त गुजारने के बाद मोहसूना [ यासिन का घर } से निकला तो श्रीनगर में कई लोगो से मुलाकात हुई । लेकिन जब बात एक पूर्व फौजी से हुई और उसने जो नये सवाल खडे किये । उससे कई सवालों के जबाव पर ताले भी जड दिये। मसलन पूर्व फौजी ने साफ कहा , जिनके पास पैसा है । जिनका धंधा बडा है । कमाई ज्यादा है । उनपर क्या असर पडा । क्या किसी ने जाना । और जब वादी के हालात बिगड चुके है जब उसका असर जम्मू पर कैसे पड रहा होगा क्या किसी ने जाना । क्या असर हो रहा है । आप इंतजार किजिये साल भर बाद आप देखेगें कि जम्मू की डेमोग्राफी बदल गई है । वादी में जो छह महीने काम-कमाई होती थी जब वह भी ठप पडी चुकी है तो फिर धाटी के लोग जायेगें कहा । कमाई-धंधे का केन्द्र जम्मू बन रहा है । सारे मजदूर । सारे बिजनेस जम्मू शिफ्ट हो रहे है ।जिन हिन्दु परिवारो को लगता रहा कि घाटी में मिस्लिम बहुतायत है और जम्मू में हिन्दू परिवार तो हालात धीरे धीरे इतने बदल रहे है कि आने वाले वक्त में मुस्लिमो की तादाद जम्मू में भी ज्यादा हो जायेगी । और जम्मू से ज्यादा बिसनेस जब कश्मीर में है तो फिर जम्मू के बिजनेस मैन भी कश्मीरियो पर ही टिके है । लेकिन चुनी हुई सरकार के होने के बावजूद सेना ही केन्द्र में क्यो है । और सारे सवाल सेना को लेकर ही क्यू है । कोई महबूबा मुफ्ती को लेकर सवाल खडा क्यो नहीं करता । ये बात आप नेशनल कान्प्रेस वालो से पूछिये या फिर किसी भी नेता से पूछिये आपको समझ में आ जायेगा । लेकिन आपको क्या मानना है कि महबूबा बेहद कमजोर सीएम साबित हुई है । महबूबा कमजोर नहीं मजबूत हो रही है । उसका कैडर । उसकी राजनीति का विस्तार हो रहा है । वह कैसे । हालात को बारिकी से समझे । घाटी में जिसके पास सत्ता है उसी की चलेगी । सिक्यूरटी उसे छुयेगी नहीं । और सिक्रयूरटी चुनी हुई सरकार के लोगोग को छेडेगी भी नहीं । महबूबा कर क्या रही है । उसने आंतकवादियो को ढील दे रखी है । सेपरिस्टो [ अलगाववादियों ] को ढील दे रखी है । पत्थरबाजो के हक में वह लगातार बोल रही है । तो फिर गैर राजनीतिक प्लेयरो की राजनीतिक तौर पर नुमाइन्दगी कर कौन रहा है । पीडीपी कर रही है । पीडीपी के नेताओ को खुली छूट है । उन्हे कोई पकडेगा नहीं । क्योकि दिल्ली के साथ मिलकर सत्ता की कमान उसी के हाथ में है । और दिल्ली की जरुरत या कहे जिद इस सुविधा को लेकर है कि सत्ता में रहने पर वह अपनी राजनीति या एंजेडे का विस्तार कर सकती है ।

लेकिन बीजेपी इस सच को ही समझ नहीं पा रही है कि पीडीपी की राजनीति जम्मू में भी दखल देने की स्थिति में आ रही है । क्योकि जम्मू सत्ता चलाने का नया हब है । और कमान श्रीनगर में है । फिर जब ये खबर ती है कि कभी सोपोर में या कभी शोपिया में सेना ने पत्थरबाजो या तकवादियो को पनाह दिये गांववालो के खिलाफ आपरेशन शुरु कर दिया है तो उसका मतलब क्या होता है । ठीक कहा आपने दो दिन पहले ही 4 मई को शोपिया में सेना के आपरेशन की खबर तमाम राष्ट्रीय न्यूज चैनलो पर चल रही थी । जबकि शोपियां का सच यही है कि वहा गांव-दर-गांव आंतकवादियो की पैठ के साथ साथ पीडीपी की भी पैठ है । अब सत्ताधारी दल के नेताओ को सिक्यूरिटी देनी है और नेता उन्ही इलाको में कश्मीरियों को साथ खडाकर रहे है जिन इलाको में आंतक की गूंज है । तो सिक्यूरटी वाले करे क्या । इस हालात में होना क्या चाहिये । आप खुद सोचिये । सेना में कमान हमेशा एक के पास होती है तभी कोई आपरेशन सफल होता है लेकिन घाटी में तो कई हाथो में कमान है । और सिक्यूरटी फोर्स सिवाय सुरक्षा देने के अलावे और कर क्या सकती है । हम बात करते करते डाउन-टाउन के इलाके में पहुंच चुके थे । यहां इकबाल का घर था तो उसने कारपेट का बिजनेस करने वाले शौहेब से मुलाकात करायी । और उससे मिलते ही मेरा पहला सवाल यही निकला कि बैंक लूटे जा रहे है । तो क्या लूट का पैसा आंतकवादियो के पास जा रहा है । शौहेब ने कोई जबाव नहीं दिया । मैने इकबाल तरफ देखा । तो आपस में कस्मीरी में दोनों ने जो भी बातचीत की उसके बाद शौहेब हमारे साथ खुल गया । लेकिन जवाबा इतना ही दिया कि मौका मिले तो जे एंड के बैंक के बारे में पता कर लीजिये । ये किसको लोन देते है । कौन जिन्होने लोन नहीं लौटाया । और जिन्होंने लोन लिया वह है भी की नहीं । तो क्या एनपीए का आप जिक्र कर रहे है । आप कह सकते है एनपीए । लेकिन जब आपने बैंक के लूटने का जिक्र किया तो मै सिर्फ यहीं समझाना चाह रहा हूं कि बैक बिना लूटे भी लूटे गये है । लूटे जा रहे है । लूटने का दिखावा अब इसलिये हो रहा है जिससे बैक को कोई जवाब ना देना पडे । डाउन डाउन में ही हमारी मुलाकात दसवी में पढाई करने वाले छात्र मोहसिन वानी से हुई । निहायत शरीफ । जानकारी का मास्टर । परीक्षा देकर कुछ करने का जनुन पाले मोहसिन से जब हमने उसके स्कूल के बार में पूछा तो खुद सेना के स्कूल में अपनी पढाई से पहले उसने जो कहा , वह शायद भविष्य के कश्मीर को पहला दागदार चेहरा हमें दिखा गया । क्योंकि जिक्र तो सिर्फ उसकी पढाई का था । और उसने झटके में घाटी में स्कूल-कालेजो का पूरा कच्चा-चिट्टा ये कहते हुये हमारे सामने रख दिया कि अगर अब मुझसे स्कूल और हमारी पढाई के बारे में पूछ रहे है तो पहले ये भी समझ लें सिर्फ 20 दिनों में कोई स्कूल साल भर की पढाई कैसे करा सकता है ।

लेकिन घाटी में ये हो रहा है । क्योंकि कश्मीर घाटी में बीते 10 महीनो में कुल जमा 46 दिन स्कूल कालेज खुले । आर्मी पब्लिक स्कूल से लेकर केन्द्रीय विद्यालय तक और हर कान्वेंट से लेकर हर लोकल स्कूल तक । आलम ये है कि वादी के शहरों में बिखरे 11192 स्कूल और घाटी के ग्रामीण इलाको में सिमटे 3 280 से ज्यादा छोटे बडे स्कूल सभी बंद हैं । और इन स्कूल में जाने वाले करीब दो लाख से ज्यादा छोटे बडे बच्चे घरो में कैद हैं । ऐसे में छोटे छोटे बच्चे कश्मीर की गलियों में घर के मुहाने पर खड़े होकर टकटकी लगाये सिर्फ सड़क के सन्नाटे को देखते रहते हैं। और जो बच्चे कुछ बड़े हो गये हैं, समझ रहे हैं कि पढ़ना जरुरी है । लेकिन उनके भीतर का खौफ उन्हे कैसे बंद घरों के अंधेरे में किताबो से रोशनी दिला पाये ये किसी सपने की तरह है। क्योंकि घाटी में बीते 10 महीनो में 169 कश्मीरी युवा मारे गये हैं। और इनमें से 76 बच्चे हाई स्कूल में पढ़ रहे थे । तो क्या बच्चो का ख्याल किसी को नहीं । नही हर कोई हिंसा के बीच आतंक और राजनीतिक समाधान का जिक्र तो कर रहा है लेकिन घरो में कैद बच्चो की जिन्दगी कैसे उनके भीतर के सपनों को खत्म कर रही है और खौफ भर रही है , इसे कोई नहीं समझ रहा है । लेकिन अब तो सरकार कह रही है स्कूल कालेज खुल गये । और बच्चे भटक कर हाथो में पत्थर उठा लिये है तो वह क्या करें । ठीक कह रहे है आप । आप दिल्ली से आये है ना । तो ये भी समझ लिजिये स्कूल कालेज खुल गये हैं लेकिन कोई बच्चा इसलिये स्कूल नहीं आ पाता क्योंकि उसे लगता है कि स्कूल से वह जिन्दा लौटेगा या शहीद कहलायेगा। बच्चे के भीतर गुस्सा देख मै खुद सहम गया । मै खुद भी सोचने लगा जिन बच्चो के कंघे पर कल कश्मीर का भविष्य होगा उन्हे कौनसा भविष्य मौजूदा वक्त में समाज और देश दे रहा है इसपर हर कोई मौन है । और असर इसी का है कि घाटी में 8171 प्राइमरी स्कूल, 4665 अपर प्राईमरी स्कूल ,960 हाई स्कूल ,300 हायर सेकेंडरी स्कूल, और सेना के दो स्कूल में वाकई पढाई हो ही नही रही है ।

श्रीनगर से दिल्ली तक कोई सियासतदान बच्चों के बार में जब सोच नहीं रहा है । हमारी बातचीत सुन खालिद भी आ गया था । जो बेफ्रिकी से हमे सुन रहा था । लेकिन जब मैने टोका खालिद आप कालेज में पढते है । तो उसी बेफ्रिकी के अंदाज में बोला…पढता था । क्यों अब । वापस आ गया । कहां से । कोटा से । राजस्थान में है । वापस क्यो आ गये । खबर तो बनी थी कश्मीर के लडको को राजस्थान में कैसे कालेज छोडने को कहां गया । मुझे भी याद आया कि सिर्फ राजस्तान ही नहीं बल्कि यूपी में कश्मीरी छात्रो को वापस कश्मीर लौटने के लिये कैसे वही के छात्र और कुछ संगठनो ने दवाब बनाया । बाद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसका विरोध किया । लेकिन ये मुझे खालिद से मिलकर ही पता चला कि दिल्ली की आवाज भी कश्मीरी छात्रों के लिये बे-असर रही । फिर भी मैने खालिद को टटोला अब आगे की पढाई । तो उसी गुस्से भरे अंदाज में खालिद बोल पडा सीरिया में बीते 725 दिनों से बच्चों को नहीं पता कि वह किस दुनिया में जी रहे हैं। स्कूल बंद हैं। पढ़ाई होती नहीं । तो ये बच्चे पढ़ना लिखना भी भूल चुके हैं। और समूची दुनिया में इस सच को लेकर सीरिया में बम बरसाये जा रहे हैं कि आईएसआईएस को खत्म करना है तो एक मात्र रास्ता हथियारों का है । युद्द का है। लेकिन वक्त के साथ साथ बड़े होते बच्चों को दुनिया कौन सा भविष्य दे रही है इसपर समूची दुनिया ही मौन है ।

इसके बाद बातचीत को कईयो से हुई । 90-96 के आंतकवाद के जख्मो को भी टटोला और अगले दिन यानी रविवार को सुबह सुबह जब एयरपोर्ट के निकल रहा था तो चाहे अनचाहे इकबाल बोला , सर आपको सीएम के घर की तरफ से ले चलता हूं । वक्त है नहीं । फिर मिलना भी नहीं है । अरे नहीं सर ..मिलने नहीं कह रहा हू । आपने फिल्म हैदर देखी थी । हां क्यों । उसमें सेना के जिन कैंपों का जिक्र है । जहां आतंकवादियो को रखा जाता था । कन्सनट्रेशन कैंप । हा, वही कैंप, जिसमें कश्मीरियों को बंद रखा जाता था । उसे श्रीनगर में पापा कैंप के नाम से जानते हैं। और श्रीनगर में ऐसे तीन कैंप थे । लेकिन मैं आपको पापा-2 कैंप दिखाने ले जा रहा हूं । कन्सनट्रैशन कैंप अब तो खाली होगा । नहीं.. वही तो दिखाने ले जा रहा हूं। और जैसे ही सीएम हाउस शुरु हुआ …इकबाल तुरंत बोल प़डा , देख लीजिए,,यही है पापा-2 । तो 1990-96 के दौर के कन्सनट्रैशन कैप को ही सीएम हाउस मे तब्दील कर दिया गया । मैंने चलती गाड़ी से ही नजरों को घुमा कर देखा और सोचने लगा कि वाकई घाटी में जब आंतकवाद 90-96 के दौर में चरम पर था और अब जब आतंकवाद घाटी की हवाओ में समा चुका है तो बदला क्या है आंतकवाद…कश्मीर या कश्मीर को लेकर सियासत का आंतकी चेहरा ।

क्योंकि मेरे जहन में सीएम हाउस को देखकर पापा-टू कैप में रखे गये उस दौर के आंतकवादी मोहम्मद युसुफ पैरी याद आ गया । जिसने आंतक को 90 के दशक में अपनाया । पाकिस्तान भी गया । पाकिस्तान में हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी ली । उसकी पहचान कूकापैरी के तौर पर बनी । वह उस दोर में जेहादियो का आदर्श था । लेकिन पाकिसातन के हालात को देखकर लौटा तो भारतीय सेना के सामने सरेंडर कर दिया । फिर मुख्यधारा में शामिल होने के लिये इखवान नाम का संगठन शुरु किया । जो आतंकवाद के खिलाफ था । और कूकापैरी जो कि मुसलमान था । कश्मीरी था । आतंकवादी बन कर आजादी के लिये निकला था । वही कूकापैरी जब आंतकवाद के खिलाफ खडा हुआ तो कश्मीर में हालात सामान्य होने लगे । उसी के आसरे 1996 में भारत कश्मीर में चुनाव करा सका । वह खुद भी चुनाव लड़ा । जम्मू कश्मीर आवामी लीग नाम की पार्टी बनायी । विधायक बना । और आंतकवाद के जिस दौर में फारुख अबंदुल्ला लंदन में गोल्फ खेल रहे थे । वह चुनाव लडने 1996 में वापस इंडिया लौटे । और चुनाव के बाद फारुख अब्दुल्ला को दिल्ली ने सत्ता थमा दी । और कूकापैरी को जब बांदीपूरा के हसैन सोनावारी में जेहादियो ने गोली मारी तो उसके अंतिम संस्कार में सत्ताधारी तो दूर । डीएम तक नहीं गया । कश्मीर के आतंक के दौर की ऐसी बहुतेरी यादें लगातार जहन में आती रही और सोचने लगा कि वाकई घाटी में जब आंतकवाद 90-96 के दौर में चरम पर था और अब जब आतंकवाद घाटी की हवाओं में समा चुका है तो बदला क्या है आतंकवाद…कश्मीर या कश्मीर को लेकर सियासत का आतंकी चेहरा । ये सोचते सोचते कब दिल्ली दिल्ली आ गया और कानों में एयर होस्टेज की आवाज सुनाई पड़ी कि बाहर का तापमान 36 डिग्री है । सोचने लगा सुबह 11 बजे दिल्ली इतनी गर्म । और जन्नत की गर्माहट के बीच सुकून है कहां ।

 

:- पुण्य प्रसून बाजपेयी

punya-prasun-bajpaiलेखक परिचय :- पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है।  प्रसून  देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन  एक्सप्रेस गोयनका  अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ  गोयनका अवॉर्ड मिला।

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