वसन्त पंचमी अभी बीती है और वेलेन्टाईन डे एक बार फिर करीब है। शहर के थोड़ा बाहर जाये तो सरसों की पीली चादर ओढे धरती प्रेम का संदेश बाँट रही है और हवाएँ इसकी खुशबू से सराबोर है। ऐसे में इस बदलते हुए समय में प्रेम का मतलब क्या है? क्या है प्रेम की भारतीय परम्परा और कैसे उसे बदलती हुई सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने बदला है? प्रेम में क्या ग़लत है और क्या सही तथा इसके समर्थन व विरोध में उठने वाले स्वरो की हक़ीक़त क्या है? इन्ही सब सवालों के साथ “आग़ाज़” AaghaaZ आप सबके बीच उपस्थित है।
आदम और हव्वा के ज़माने से ही पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम का सहज आकर्षण और समाज द्वारा उसके नियन्त्रण की कोशिशें ज़ारी हैं। मनोविज्ञान और जीवविज्ञान दोनों इसे सहज और प्राकृतिक बताते हैं। लेकिन जैसे-जैसे सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थायें बनी और उसमें विभिन्न संस्तर (layers) बने वैसे-वैसे ही प्रेम पर नियंत्रण की कोशिशें और तेज़ होती गईं। जाति, धर्म तथा अमीरी-ग़रीबी मे बँटे समाज में प्रेम का अर्थ भी बदला और रूप भी। राजा-महाराजाओ के सामंती युग में विवाह और प्रेम का निर्णय व्यक्तिगत न होकर सामाजिक हो गये। पिता और समाज के नियंता पुरोहित, पादरी और मुल्ले तय करने लगे कि किसकी शादी किसके साथ होनी चाहिये। पुरुषप्रधान समाज में औरतों और दलित कही जाने वाली जातियों को घरों में क़ैद कर दिया गया और उनकी पढाई-लिखाई पर रोक लगा दी गयी कि कहीं वे अपने अधिकारों की माँग न कर बैठे। ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ किताबों मे क़ैद रहा और औरतें चूल्हे से लेकर चिताओं तक में सुलगती रहीं।
सामन्ती समाज के विघटन के साथ-साथ जो नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था औद्योगिक क्रान्ति के साथ सामने आई उसने जनतन्त्र को जन्म दिया जो मूलतः समानता, भाईचारे और व्यक्ति की स्वतंत्र अस्मिता ( identity) के सम्मान पर आधारित थी। यह आज़ादी अपनी ज़िन्दगी के तमाम फ़ैसलों की आज़ादी थी और समानता का मतलब था जन्म ( (भारत के सन्दर्भ में धर्म, जाति, ज़ेन्डर और क्षेत्रीयता) के आधार पर होने वाले भेदभावो का अन्त। यही वज़ह थी कि हमारे संविधान मे जहां सबको वोट देने का हक़ दिया गया वहीं दलितों, स्त्रियों और दूसरे वंचित तबक़ों की सुरक्षा तथा प्रगति के लिये प्रावधान भी किये गये। अन्तर्जातीय तथा अन्तर्धार्मिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देकर जीवनसाथी चुनने के हक़ को सामाजिक से व्यक्तिगत निर्णय मे बदल दिया गया।
लेकिन दुर्भाग्य से जहां संविधान में ये क्रान्तिकारी प्रावधान किये गये समाज मे ऐसा कोई बडा आन्दोलन खडा नही हो पाया और जाति तथा धर्म के बन्धन तो मज़बूत हुए ही साथ ही औरतों को भी बराबरी का स्थान नही दिया जा सका। पन्चायतो से महानगरों तक प्रेम पर पहरे और भी कडे होते गये।
इसी के साथ बाज़ार केन्द्रित आर्थिक व्यवस्था ने प्रेम और औरत को एक सेलेबल कमोडिटी में बदल दिया। हालत यह हुई कि प्रेम की सारी भावनाओं की जगह अब गर्लफ़्रैंड-ब्वायफ़्रैन्ड बनाना स्टेटस सिम्बल बनते गये। बाज़ार ने सुन्दरता के नये-नये मानक (standard) बना दिये और प्रेम मानो सिक्स पैक और ज़ीरो फ़ीगर मे सिमट गया। वेलेन्टाइन ने प्रेम के लिये बलिदान किया था पर बाज़ार ने उसे ‘लव गुरु’ बना दिया। इस सारी प्रक्रिया ने कट्टरपन्थी मज़हबी लोगो को प्रेम और औरत की आज़ादी पर हमला करने के और मौके उपलब्ध करा दिये। यह हमला दरअसल हमारी संस्कृति तथा लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमला है।
प्रेम का अर्थ क्या है? हमारा मानना है कि यह एक दूसरे की आज़ादी का पूरा सम्मान करते हुए बराबरी के आधार पर साथ रहने का व्यक्तिगत निर्णय है और इसमें दख़लन्दाज़ी का किसी को कोई अधिकार नहीं। बिना आपसी बराबरी और सम्मान के कभी भी सच्चा प्रेम हो ही नही सकता। आज विवाह क्या है? लडकी के सौन्दर्य और घरेलू कामो मे निपुणता तथा लडके की कमाई के बीच एक समझौता जिसकी क़ीमत है दहेज़ की रक़म। आखिर जो लडके/लडकी एक डाक्टर, इन्जीनियर, मैनेज़र या सरकारी अफ़सर के रूप में इतने बडे-बडे फ़ैसले लेते हैं वे अपना जीवनसाथी क्यों नहीं चुन सकते?
हमारा मानना है कि एक बराबरी वाले समाज में ही प्रेम अपने सच्चे रूप मे विकसित हो सकता है तथा इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया में तब्दील कर सकता है। प्रेम और शादी का अधिकार हमारा संवैधानिक हक़ है और व्यक्तिगत निर्णय। आप क्या सोचते हैं ?
आग़ाज़ सांस्कृतिक मंच
Ashok Kumar Chauhan के फेसबुक वॉल से लिया गया लेख