दुनिया भर में म्यांमार के अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रहे बर्ताव की कड़ी निंदा हो रही है, लेकिन वहां इस पर नज़रिया बिल्कुल अलग है.
रख़ाइन प्रांत में आप किसी राह चलते से बात करेंगे तो आप “रोहिंग्या” शब्द नहीं सुनेंगे.
यहां इन अल्पसंख्यकों को “बंगाली” बताया जाता है. यह उस आम धारणा को दर्शाती है जिसके तहत रोहिंग्या समुदाय को विदेशी माना जाता है. उन्हें अलग संस्कृति और अलग भाषा वाला बांग्लादेशी शरणार्थी माना जाता है.
रोहिंग्या मुसलमानों के दुश्मन हैं बर्मा के ये ‘बिन लादेन’
कई लोगों के लिए मानवाधिकार का मुद्दा बन चुके इस मसले को म्यांमार में राष्ट्रीय संप्रभुता के रूप में देखा जाता है, और उत्तर रख़ाइन में सेना की कार्रवाई को लेकर व्यापक समर्थन है.
अख़बारों में छपे सरकारी बयान के मुताबिक़ अराकान रोहिंग्या रक्षा सेना ने बर्मा की सेना पर 25 अगस्त को हमला किया, जिसके जवाब में सेना ने रख़ाइन प्रांत के संघर्षरत इलाके मॉउन्डो में कार्रवाई शुरू की.
बर्मा के रहने वाले अधिकांश लोगों को लगता है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया अपने एकतरफा कवरेज़ में रोहिंग्या मसले पर अधिक ज़ोर दे रहा है और उन लोगों की परेशानियों को दिखाने में नाकाम रहा है जिन्हें हिंसा की वजह से अपने गांवों छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा.
विदेशी मीडिया के पत्रकारों के स्वतंत्र रूप से रख़ाइन के प्रभावित इलाकों की यात्रा और ख़बरों की पुष्टि करने पर प्रतिबंध है.
स्थानीय मीडिया मुख्यतः चरमपंथी हमलों और ग़ैर-रोहिंग्या लोगों के आंतरिक संघर्ष की वजह से अपना घर छोड़ने को मज़बूर हुए लोगों पर ही अपना ध्यान केंद्रित किए हुए हैं.
स्थानीय मायावाडी दैनिक में छपी एक हेडलाइन में लिखा गया, “आरसा बंगाली चरमपंथियों के प्रमुख शहरों पर हमला करने की योजना.”
एक अन्य वेबसाइट इलेवन पर भी कुछ ऐसा ही लिखा गया, “मॉउन्डो टाउनशिप में आरसा बंगाली चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर किया हमला.”
रिपोर्ट में लिखा गया कि “सेना के विरोध में चरमपंथी समूह गांवों को जला रहे हैं” और इसमें बांग्लादेश भागने वाले रोहिंग्या लोगों का कोई जिक्र नहीं है.
(रख़ाइन में जारी हिंसा के बीच म्यांमार सरकार कथित चरमपंथी हमलों के लिए ‘अतिवादी बंगाली चरमपंथी’ शब्द की जगह ‘अतिवादी आरसा चरमपंथी’ शब्द की इस्तेमाल कर रही है.)
चरमपंथी शब्द का इस्तेमाल म्यांमार सूचना समिति द्वारा लागू किया गया, जिसने मीडिया के लिए इसके पालन की चेतावनी भी जारी की.
भ्रामक या फ़र्जी ख़बरें और सोशल मीडिया पर पोस्ट की जा रही तस्वीरों ने इसमें और अधिक मतभेद पैदा करने का काम किया है.
म्यामांर में रोहिंग्या के प्रति द्वेष कोई नई बात नहीं है, लेकिन इसे उन अल्पसंख्यकों के प्रति लंबे समय से चला आ रहा पूर्वाग्रह माना जा सकता है जिन्हें म्यांमार के नागरिक के रूप में नहीं देखा जाता है.
रोहिंग्या लोगों की बोली इस प्रांत में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा से अलग है, इन्हें म्यामांर के 135 आधिकारिक जातीय समूहों में नहीं गिना जाता है.
राष्ट्रवादी समूहों ने इस अवधारणा को प्रोत्साहित किया कि रोहिंग्या मुसलमान एक ख़तरा हैं, क्योंकि मुस्लिम पुरुषों की चार पत्नियां और कई बच्चे हो सकते हैं. रख़ाइन में कई लोगों का मानना है कि बढ़ती आबादी की वजह से एक दिन वो उनके ज़मीन को हथिया लेंगे.
रख़ाइन प्रांत में रहने वाली एक महिला ने कहा, “वो शिक्षित नहीं है और न ही उनके पास कोई काम है. वो बहुत सारे बच्चे पैदा करते हैं. अगर आपके पड़ोसी के बहुत से बच्चे हैं और वो शोर करते हों तो क्या आप इसे पसंद करेंगे.”
बाई का काम करने वाली एक अन्य महिला ने कहा, “मुझे लगता है कि ये लोग समस्याग्रस्त हैं. वे बुरे हैं. मैं उन्हें पसंद नहीं कर ती हूं.”
लेकिन उन्होंने कहा, “हम एक हाथ से ताली नहीं बजा सकते.” जिसका अर्थ है कि इस कहानी के दो पहलू हैं. @ साभार -बीबीसी