हमारी भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्रत त्योहार का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है वरन् पौराणिक तथा आध्यात्मिक महत्व भी है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लगभग सभी मास तथा त्योहार महत्वपूर्ण है। ऋतु परिवर्तन के कारण हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, ऐसे में खान पान में परिवर्तन तथा दैनिक जीवन में भी परिवर्तन आवश्यक प्रतीत होता है। ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु तथा शीत ऋतु के खान पान में अत्यधिक अन्तर होता है। जब इन ऋतुओं का सन्धिकाल होता है तो बालक तथा वृद्धजनों के स्वास्थ्य में प्रतिकूलता दिखाई देती है। इन व्रत त्योहार के आने से व्यक्ति सतर्क हो जाते हैं। उपवास करने से तथा संतुलित फलाहार लेने से शरीर में सक्रिय विषैले पदार्थ निष्कासित हो जाते हैं। हम स्वस्थ एवं तरोताजा अनुभव करते हैं।
श्रावण मास का महत्व सर्वाधिक है। इस माह में वर्षा ऋतु रहती है। चारों ओर हरीतिमा दृष्टिगोचर होती है। ग्रीष्म ऋतु की विरल नदियों में कल कल ध्वनि कर्णप्रिय लगती है। नवपल्लव वृक्षों पर अठखेलियाँ करते हैं। भीषण गर्मी की तपन से जगदीतल को कुछ तसल्ली प्राप्त होती है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त इस सुरम्य वातावरण मानव मात्र को ईश पूजा की ओर आकर्षित करता है। मन्दिरों में भक्तजनों का आगमन विशाल मात्रा में होता है। वातावरण में आरती की मधुर ध्वनि आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बिन्दु होती है।
श्रवण नक्षत्र से प्रारंभ होने के कारण इस मास का नाम श्रावण रखा गया है। श्रावण मास शैव तथा वैष्णव परम्परा के लिए पूजा-पाठ के लिए विशेष महत्व रखता है। इस सम्पूर्ण मास में शिव पूजन का विशेष महत्व है। सोमवार तो देवाधिदेव शिवजी को ही समर्पित है। शिवलिंग का विभिन्न द्रव्यों से शृंगार किया जाता है और मन्दिर को विभिन्न कलाकृतियों से सजाया जाता है। कृष्ण मन्दिरों में झूलों की नयनाभिराम सज्जा मोहित करने वाली होती है। श्रीनाथजी के मन्दिरों में विभिन्न सामग्रियों से हिंडोलों का निर्माण कर मन्दिरों की चित्ताकर्षक सजावट की जाती है। दर्शनार्थीगणों के लिए झूले के दर्शन विशेष आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्व भी कम नहीं है। सकारात्मक ऊर्जा का विकास इस मास में अत्यधिक होता है। शिव साधक को मानसिक शान्ति का अनुभव शिवजी को जलाभिषेक तथा पंचामृत स्नान के द्वारा पूजन करने से प्राप्त होती है। भक्त की रुचि अध्यात्म की ओर अग्रसर होती जाती है। जीवन दर्शन की ओर वह क्रमश: अग्रसर होता जाता है। संसार की नश्वरता से उसका मोह भंग होता है। वह शिवमय होना चाहता है। शिवेतर उसे कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस माह की मौन उपासना साधक की शक्ति बढ़ाती है। भक्त का आत्मावलोकन शिव उपासना से हो जाता है। शिव उपासना इहलोक में अर्जित पुण्य से परलोक को सुधारने का सुन्दर अवसर है। इस माह में आत्मज्ञान प्राप्त कर आत्म मन्थन करे और आत्मोन्नति के अवसर का सम्पूर्ण लाभ लें।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार सती ने शंकरजी को हमेशा अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया था। पिता के घर में शिवजी का यज्ञशाला में अपमान देखकर उन्होंने योगाग्नि में प्रवेश कर लिया तथा हिमावान् के यहाँ पार्वती के रूप में जन्म लेकर शिव को पति रूप में पुन: प्राप्त करने के लिए घने वन प्रदेश में सखियों के साथ तपस्यारत होकर ध्यान मग्न होकर बैठ गई। इसलिए श्रावण मास का महत्व अधिक है।
समुद्र मन्थन के समय प्राप्त विष को शिवजी ने अपने कण्ठ में धारण कर लिया था, जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया था और वे नीलकण्ठेश्वर कहलाए। उनके शरीर में गर्मी बढ़ गई थी, इसलिए उनके ऊपर जल, दूध, दही, घी आदि का अभिषेक किया गया, जिससे विष की तपन का शमन हो और वे सहज अनुभव करें। पैदल कावड़ यात्री भी जलभर कर शिव मन्दिरों में शिवजी का अभिषेक कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं। आधि दैविक, आधि भौतिक तथा आधि दैहिक तापों का रक्षण भी शिव अभिषेक से होता है। शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया था अत: काम का दमन करना ही शिवत्व की प्राप्ति का मार्ग है शिव भोले भंडारी हैं। वे परम दयालु हैं। अपने भक्तों पर सर्वदा विशेष कृपा रहती है। श्रावण मास में सम्पूर्ण विश्व ही शिवमय हो जाता है। शिव जगत् के सृष्टिकर्त्ता, पालनकर्त्ता तथा विनाशकर्त्ता है। वे विविध प्रकार की लीलाएँ करते हैं। शिवमहिम्नस्तोत्र में पुष्पदन्त जी लिखते हैं-
असितगिरिसमं स्यात् कञ्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदासर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।३२।।
अर्थात्- ‘स्याही का पहाड़ हो सागर को स्याही की दवात बना लिया जाए, स्वर्ग के वृक्ष की डाली से लेखनी बना ली जाए, पृथ्वी को कागज का रूप दे दिया जाए, सरस्वती देवी शिव की (ईश्वर की) महिमा को लिखने लगे तो भी उनके गुणों का बखान नहीं कर सकती है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति:।
अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम्।।
(श्रीपुष्पदन्तकृत शिवमहिम्न स्तोत्र ।।३५।।)
अर्थात् ‘शिवजी से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मन्त्र नहीं और ना ही गुरु से बढ़कर कोई पूजनीय तत्व है।Ó
लेख ; डॉ. शारदा मेहता
डॉ. शारदा मेहता
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