हमारे देश मे हर दूसरे दिन कोई न कोई त्यौहार देश के किसी न किसी कोने मे मनाया ही जाता है लेकिन एक त्यौहार ऐसा भी है जो हर पाँच साल बाद मनाया जाता है और उसकी तैयारी कुछ साल पहले से ही धीमी रफ्तार मे शुरु कर दि जाती है । ये त्यौहार एक राजनैतिक त्यौहार है और इस त्यौहार का सबसे अद्भुत पल जब होता है जब हर दूसरा व्यक्ति अपने आप को एक बड़ा राजनैतिक विश्लेषक समझकर चुनावी परिणामों का अनुमान लगाने लगता है और अपने आप को एक जागरुक नागरिक साबित करने की पुरजोर कोशिश करने लगता है लेकिन जब कुछ ही पलों मे उसके इस राजनैतिक विश्लेषण का आधार पता चलता है तो लगता है कि शायद जागरुकता की परिभाषा बदल गई है ।
चुनावी बिगुल बजने के साथ टिकटों के बंटवारे की कुश्ती मे जिस तरह जाति , धर्म , सम्प्रदाय की कुश्ती देखने को मिलती है उससे देश की राजनीति की दशा सोचनीय लगने लगती है । समाज के अधिकांश लोग चुनावों मे होने वाले टिकट बंटवारे के दौरान जातिगत आधार की आलोचना तो करते है लेकिन अगले ही पल बड़ी उत्सुकता से ये जाने का भी प्रयास करने लगते है कि उनकी जाति के किस व्यक्ति को कहाँ से टिकट मिला है ?
राजनीति की और राजनेताओं की आलोचना करने के लिए समाज का एक बड़ा वर्ग पहली पंक्ति मे खड़े होने के लिए तैयार हो जाता है और पहली पंक्ति मे खड़े होने की आपाधाबी मे वे यह भूल जाता है कि देश की राजनीति की दिशा और दशा के निर्धारण मे उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है इसीलिए राजनीति को गंदा करने मे उसकी भी अप्रत्यक्ष भूमिका है । राजनीति की आलोचना करने वालो मे से एक वर्ग ऐसा भी है जो आलोचना के समय उतावले पन मे तो पहले नम्बर पर होते है लेकिन देश के प्रति कर्त्तव्यों की पूर्ति के मामले मे पिछले नम्बर पर होता है ।
राजनेताओं पर और उनकी पार्टियों पर आरोप लगाया जाता है कि वे जातिगत आधार पर टिकट देते है लेकिन हम जब यह आरेप लगाते है तब यह क्यो भूल जाते है कि हम बँटते है तभी वे हमे बाँटते है । सोचने वाली बात है कि वैज्ञानिक युग मे पहुँचने के बाद हम आज भी विकास की तुलना मे जाति के आधार पर अपने वोटों का चयन करते है । अगर हम वाकई मे देश और उसकी राजनीति मे सुधार के पक्षधर है तो हमे अपनी सोच को जाति , धर्म के खांचों से बाहर निकालना होगा और समाज को प्रगति के पथ पर ले जाने वाले उम्मीदवार को वोट देना होगा फिर चाहे वे किसी भी जाति , धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो ।
तर्क की बौछार मे जब ये तर्क दिया जाता है कि एक जाति का नेता ही अपने जाति का सबसे अच्छे से विकास कर सकता है तब यह बात समझ से परे लगती है कि फिर आज तक हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग का विकास क्यों नही हो पाया ? चुनावों मे हर बार जातिगत आधार पर टिकटों का बँटवारा किया जाता है और आंखो पर हर बार जाति की सहानभूति की पट्टी बांध दी जाती है और हम हर बार वास्तविकता की अनदेखी कर काल्पनिकता मे विश्वास करने लगते है ।
समाज को अब समय के साथ बदलाव को स्वीकार करना चाहिए और अगर नीचले तबके को छोड़ भी दे तो कम से कम पढ़े – लिखे तबके को इस बदलाव का अग्रधर बनना चाहिए । हमे विकास के पक्षधर और योग्य उम्मीदवार के चयन पर जोर देना चाहिए न कि जाति और धर्म के आधार पर उम्मीदवारो का चयन कर क्षेत्र की बांगडोर उनके हाथ मे दे दे । यह माना जा सकता है कि बदलाव एकाएक नही होगा लेकिन नई शुरुआत करने से ही उसके नतीजे आने शुरु होते है । अगर मतदाता निश्चय कर ले की उसे जाति , धर्म से ऊपर उठकर विकास के नाम पर और योग्य उम्मीदवारों को ही मत देना तो मजबूरन ही सही लेकिन पार्टियाँ अगली बार से टिकटों का बंटवारे मे कुछ सुधार तो जरुर करेंगी । जरुरत है तो बस बदलाव की मजबूत नींव रखने की जिसके आधार पर मजबूत लोकतन्त्र का विकास हो सकें ।
छप्परा बिहार