हमारे देश में जहां दो वक्त की रोटी और सिर पर छत व तन पर कपड़े के लिए एक आम आदमी को जी तोड़ मेहनत व परिश्रम करना पड़ता है और कोई भी आम आदमी अपनी मेहनत से अधिक कुछ भी अधिक हासिल नहीं कर पाता यहां तक कि कई श्रम क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां कहीं प्रशासनिक गलतियों से तो कहीं निजी क्षेत्रों में दबंगई के बल पर उन श्रमिकों को अपनी जी तोड़ मेहनत के बदले में होने वाला पूरा भुगतान भी नहीं मिल पाता। वहीं दूसरी ओर राजनीति का क्षेत्र एक ऐसा कर्मक्षेत्र बन चुका है जिसमें सुख-सुविधाओं,सहूलियतों,सरकारी व गैर सरकारी संसधानों तथा विभिन्न प्रकार की छूट आदि की तो कोई कमी ही नहीं है। सर्विस सेक्टर में भी कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां अयोग्य होने के बावजूद उसे मान्यता भी मिलती रहे और तरक्की भी होती रहेे। परंतु राजनीति के क्षेत्र में यह सबकुछ संभव है। किसी विधायक अथवा सांसद को हमारे देश के संविधान ने यह अधिकार दिया है कि यदि जनता ने उसे चुनाव में नकार दिया और वह चुनाव हार गया तो भी उसे मंत्री बनाया जा सकता है। उसके मंत्री बनने के लिए उसका शिक्षित होना भी कोई ज़रूरी नहीं है। सैकड़ों प्रकार के भत्ते तथा सुख-सुविधाएं,अनेक उत्पादों में टैक्स की छूट,नि:शुल्क यात्राओं जैसी अनेक सुविधाओं का लाभ एक नेता उठाता है।
दशकों से हमारे देश में जनता द्वारा यह सवाल किया जा रहा है कि यदि अध्यापक बनने के लिए बीएड अथवा दूसरी आवश्यक डिग्रियों का होना ज़रूरी है तो शिक्षा मंत्री अनपढ़ क्योंकर बन सकता है? यदि सिपाही की भर्ती के लिए दसवीं या बाहरवीं की शिक्षा तथा शारीरिक मापदंड पूरे करना ज़रूरी है तो देश का गृहमंत्री अनपढ़ या अपंग क्यों बन सकता है? परंतु ऐसे सवालों का कोई जवाब नहीं है क्योंकि आखिरकार जवाब देना या इन सवालों का समाधान करना भी तो इन्हीं राजनीतिज्ञों की ही जि़म्मेदारी है। फिर भी गत् तीन दशकों से भारतीय निर्वाचन आयोग ने धीरे-धीरे राजनीतिज्ञों की इस प्रकार की खुली छूट पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया है। इसी का परिणाम है कि आज देश में चुनाव शांतिपूर्ण ढंग से,सीमित पोस्टर पंप्लेट,बैनर,गाडिय़ों तथा कम शोर-शराबे के साथ संपन्न हो जाते है। तुलनात्मक रूप में मतदान में बूथ कैपचरिंग,बेईमानी व हिंसा की घटनाएं भी पहले से कम होती हैं। चुनाव आयोग चुनाव के दौरान पहले से अधिक सख्त व सक्रिय नज़र आता है। चुनाव आयोग द्वारा सदन में अपराधियों के प्रवेश को रोकने के लिए भी कई नियम बनाए जा चुके हैं। परंतु ऐसे सभी उपायों के बावजूद अभी भी कई ऐसे उपाय करने बाकी हैं जो हमारे देश की संसदीय व्यवस्था की साफ-सुथरी छवि के लिए बेहद ज़रूरी हैं।
पिछले दिनों देश के चुनाव आयोग ने ऐसे ही एक विषय पर संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार से कानून में संशोधन की मांग की है। यह विषय है किसी एक ही व्यक्ति के एक साथ दो अलग-लगी सीटों से चुनाव लडऩे का विषय। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं पिछली लोकसभा में उत्तर प्रदेश में बनारस तथा गुजरात में बड़ोदरा सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं। इसी प्रकार इंदिरा गांधी मेडक तथा रायबरेली से एक साथ,सोनिया गांधी बेल्लारी व अमेठी से, लालू प्रसाद यादव छपरा तथा मधेपुरा से एक साथ चुनाव लड़ चुके हैं। इसी प्रकार देश के कई और प्रमुख नेता दो अलग-अलग सीटों से एक साथ लोकसभा व विधानसभा का चुनाव लड़ते रहे हैं। यहां यह बताने की तो ज़रूरत ही नहीं कि नेता आखिर ऐसा क्यों करते हैं? ज़ाहिर है उन्हें किसी एक सीट से चुनाव जीतने का पूर्ण विश्वास नहीं होता इसलिए दो अलग-अलग सीटों से वे अपनी तकदीर आज़माते हैं। और जब इत्तेफाक से यही नेता दोनों सीटों से एक साथ चुनाव जीत जाते हैं तो उनमें से किसी एक सीट के मतदाताओं के विश्वास को ठेस पहुंचा कर उन्हें ठेंगा दिखा कर किसी एक सीट की सदस्यता को स्वीकार कर दूसरी सीट छोड़ देते हैं। और इस सुविधा को वे संविधान में उनके लिए प्रदत्त सुविधा का नाम देते हैं।
राजनीतिज्ञों की इस कवायद का परिणाम यह होता है कि वह तो सदन में विजयी होकर पहुंच जाते हैं परंतु नियमानुसार उनके द्वारा $खाली की गई एक सीट पर चुनाव आयोग को 6 माह के भीतर उपचुनाव कराना पड़ता है। ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में देश का पैसा व सरकारी मशीनरी का समय व ऊर्जा अकारण ही बरबाद होती है। 2014 में भी चुनाव आयोग ने इस आशय का प्रस्ताव दिया था कि यदि राजनैतिक पार्टियां एक से अधिक सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए रोक लगाने वाले कानून नहीं बनातीं तो जीतने के बाद कोई सीट खाली करने वाले व्यक्ति को ही उस होने वाले उपचुनाव का पूरा $खर्च वहन करना चाहिए। आयोग द्वारा उस समय लोकसभा व विधानसभा तथा विधान परिषद के उपचुनावों के खर्च के रूप में क्रमश: दस लाख व पांच लाख रुपये की धनराशि का प्रस्ताव दिया गया था। परंतु किसी भी सरकार या राजनैतिक दल की कान पर इस प्रस्ताव को लेकर जूं तक नहीं रेंगी। इसके बावजूद चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिज्ञों के ज़मीर को झिंझोडऩे का काम बदस्तूर जारी है।
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने एक बार फिर केंद्र सरकार से कानून में इसी आशय के संशोधन की सि$फारिश की है। आयोग ने केंद्र से पुन: अपनी पिछली सिफारिश को दोहराते हुए कहा है कि ऐसे कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए जिससे यदि कोई उम्मीदवार दो सीटों पर चुनाव लड़े और दोनों ही सीटें जीत जाए तथा कानूनन उसे एक सीट खाली करनी पड़े तो ऐसे हालात में वह उम्मीदवार खाली की गई सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिए उचित धनराशि सरकारी खज़ाने में जमा करा दे। कानून मंत्रालय को भेजी गई चुनाव सुधार संबंधी अपनी सिफारिशों में चुनाव आयोग ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 33(7) में संशोधन किए जाने का प्रस्ताव किया है। आयोग ने 2014 में दिए गए अपने इसी विषय से संबंधित सुझाव में जो धनराशि निर्धारित की थी उसमें भी उचित बढ़ोत्तरी किए जाने की सिफारिश की है।
अब देखना यह है कि चुनाव आयोग की इस सिफारिश पर जोकि पूरी तरह जनहित में तथा एक ईमानदाराना सिफारिश है इसपर सरकार क्या संज्ञान लेती है। वैसे नोटबंदी के वातावरण में देश में आम जनता तथा राजनैतिक दलों के साथ अपनाए जा रहे अलग-अलग मापदंडों को देखते हुए एक बार फिर यही साफ दिखाई दे रहा है कि संभवत: चुनाव आयोग की यह सिफारिश केवल सिफारिश ही बनी रह जाएगी। क्योंकि सबसे मुश्किल काम ही स्वयं अपने पर शिकंजा कसना तथा स्वयं को नियंत्रण में रखना होता है। परंतु दुर्भाग्यवश हमारे देश के राजनीतिज्ञ तो इसके विपरीत स्वयं को सर्वोपरि तथा सबसे महान समझने की गलत फहमियां पाले रहते हैं। जिस देश में अनपढ़ महान व पढ़े-लिखे गुलाम बनने लगें उस देश में ऐसे अंधे $कानूनों की कल्पना करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ज़रा गौर कीजिए कि जहां नोटबंदी को लेकर पूरे देश को चोर,बेईमान व काला धन जमा करने वाली संदेहपूर्ण नज़रों से देखा जा रहा है वहीं राजनैतिक दलों को इससे छूट देने की घोषणा की गई है। जबकि देश के वित्तमंत्री अरूण जेटली ने स्वयं यह दावा किया था कि नोटबंदी के बाद राजनैतिक दलों को किसी तरह की छूट नहीं दी जाएगी। राजनैतिक दलों को आरटीआई कानून के तहत अपने चंदे व लेन-देन का हिसाब देने से भी छूट मिली हुई है। ऐसे हालात में दो सीटों पर एक व्यक्ति के चुनाव न लडऩे और यदि एक सीट छोड़े तो उसका खर्च उसी सीट छोडऩे वाले व्यक्ति द्वारा उठाने जैसी चुनाव आयोग की सिफारिश पर सरकार क्या कदम उठाती है यह देखने की ज़रूरत है?
लेखक:- @तनवीर जाफरी
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