बैतूल : आज, जब मीडिया से लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय तक सूखे और पानी बचाने की चिंता में लगे है, तब बैतूल आदिवासीयों ने इस समस्या की असली जड़ को पकड़ा| बैतूल, हरदा और खंडवा जिले के 20 गाँव के सैंकड़ों आदिवासी प्रतिनिधी 2 मई देर शाम से दुसरे दिन सुबह तक म. प्र. के बैतूल जिले के पीपलबर्रा और बोड गाँव नागदेव के जंगल में इक्कठा हुए और परम्परागत रूप से अपने जंगल देव की पूजा कर जंगल बढाओ- पर्यावरण बनाओ- पानी बचाओ – मानव बचाओ सम्मलेन आयोजित किया|
सम्मलेन में लम्बी चर्चा के बाद, आदिवासीयों ने यह संकल्प लिया कि वो अपनी-अपनी ग्रामसभा की सीमा में आनेवाली खाली और बेकार पडी जंगल और अन्य जमीन पर हजारों की संख्यां में फलदार पौधे लगाएंगे| क्योंकि, जैव विविधता वाला जंगल है – तो पर्यावरण है; पर्यावरण है – तो बरसात है; बरसात है – तो पानी है, और बारिश के इस पानी को जमीन में संचित कर रखने और जरुरत के हिसाब से छोड़ने का स्वभाविक काम पेड़ ही कर सकता है|
सम्मलेन में लिए गए संकल्प को कार्यरूप देने के लिए, जो निर्णय लिए गए: एक, बरसात में जंगल में स्वाभाविक रूप से उगने वाले फलदार पौधों को इक्कठा कर व्यवस्थित रूप से जंगल में लगाया जाएगा; दूसरा, सरकारी नर्सरी से तैयार पौधे खरीदकर जंगल में लगाना; तीसरा, गाँव –गाँव फलदार पौधों की नर्सरी तैयार कर फिर उन पौधों को जंगल में लगाने का तय किया|
इस संदेश को बारिश के मौसम में गाँव-गाँव तक ले जाने के लिए, जुलाई माह में आने वाले आदिवासीयों के सबसे बड़े त्यौहार ‘हरी-जिरोती’ को ‘हरियाली-खुशहाली’ अभियान के एक पखवाड़े तक मनाने का तय किया| इस दौरान, बाज़ार, हाट में हरे-भरे पौधों की कांवड़ –यात्रा निकलाकर लोगों को इस अभियान के पार्टी जागरूक किया जाएगा|
श्रमिक आदिवासी संगठन और समाजवादी जन परिषद के बैनर तले आयोजित इस सम्मलेन में बैतूल, हरदा और खंडवा जिले के 20 गाँव के सैंकड़ों आदिवासी प्रतिनिधी शामिल हुए| इसके आलावा, टाटा सामाजिक विज्ञान संसथान, मुंबई की सहायक प्राध्यापक शमीम मोदी और अनुराधा सहित उसी संस्थान के एल. एल. एम. के छात्र शामिल हुए| सम्मलेन को संगठन के बंसत टेकाम, सदारम मांडले, राजेंद्र गढ़वाल, बबलू नलगे, अनुराग मोदी, शमीम मोदी आदि लोगों ने संबोधित किया|
इसके अलावा चर्चा के बाद सरकार की योजनाओं और कानूनों को इस अभियान के साथ जोड़ने का फैसला भी हुआ| केंद्र सरकार ने 2006 साल में एक कानून पास किया है – इस कानून को वन अधिकार कानून, 2006 कहते है| इस कानून की धारा धारा ५ में लोगों को और ग्रामसभा को गाँव के आसपास के जंगल के रखरखाव का अधिकार होगा – इसके अनुसार गाँव के लोग कानूनी रूप से अपने जंगल के सुधार के लिए पेड़-पौधे भी लगा सकते है| आदिवासीयों ने इस सवाल का भी हल ढूँढा कि नर्सरी का पैसा कहाँ से आएगा?
बैतूल जिले के मरकाढाना और बोड-पीपलबर्रा आदि गाँव में तो लोग अपने चंदे और मेहनत से नर्सरी बना रहे है – वो पिछले 7-8 साल में 25 हजार पौधे बना चुके है | लेकिन, इसके अलावा मनरेगा में गाँव के संसाधन बढाने का काम करना है – इसलिए, उसके बजट का उपयोग भी इसमें हो सकता है| जंगल कटाई का जो पैसा वन सुरक्षा समीति के खाते में आता है , उसका उपयोग हम कर सकते है | वन सुरक्षा समीति के संकल्प पत्र, 11.1 (3) में जो वन सुरक्षा समीति के जो अधिकार दिए है, उसके अनुसार समीति के ईलाके में जंगल में लकड़ी कटाई से होने वाली शुद्ध कमाई का दसवां हिस्सा और बांस कटाई पांचवा हिस्सा समीति के खाते में आना है| पिछले 13 सालों में हर साल लाखों रुपए की राशी समीति के खाते में आती है, इसकी 50% राशी को गाँव और जंगल के विकास में लगाया जाना है – इस राशी से गाँव में नर्सरी बनाई जा सकती है|
1994 में बैतूल जिले में इस संगठन की शुरुवात हुई, तब यहाँ की नदियों में बारह माह पानी रहता था| आज, यह पानी नवंबर माह में ही खत्म हो जाता है – सूखा और पानी का संकट बढ़ रहा है| दूसरी तरफ, आदिवासी पर भुखमरी के संकट के चलते वो काम की तलाश में मद्रास , मुंबई आदि स्थानों पर पलायन करने को मजबूर हो गए है| जैसा कि अमेरिका के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ‘शूमाकर’ ने 70 के दशक में अपनी प्रसिद्ध किताब ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ में कहा था- भारत की गरीबी का असली ईलाज पेड़-पौधे लगाने में है| ऐसे में, संगठन ने सोचा कि कोई ऐसी योजना लाई जाए जिसमें दोनों समस्याओं का हल निकले, और ऐसे में फलदार पोधे लगाने का अभियान एक रामबाण ईलाज के रूप में सामने आया|
इन आदिवासीयों के बीच काम कर रहे श्रमिक आदिवासी संगठन ने 8 साल पहले बरसात के जुलाई माह में आने वाले आदिवासीयों के सबसे बड़े त्यौहार – बड़ी जिरोती, पर हरियाली यात्रा आयोजित कर इस अभियान की शुरुवात की थी| इस अभियान से जुड़े कई गाँव के आदिवासीयों ने अपनी मेहनत और पैसे से नर्सरी बनाई है, इस नर्सरी में – आम, जाम, जामुन, आंवले, बेर, काजू, नीम सहित 15 तरह के फलदार पौधे तैयार किए है| पौधे 4 से 6 माह के होने के बाद उन्हें जंगल में खाली पडी जमीन पर लगाया जता है; और बारिश बाद उसकी सुरक्षा और पानी देने का काम किया जाता है – बैतूल जिले के मरकाढाना गाँव में दस हजार पोधे और उमरडोह में दो हजार पोधे सरकार के तमाम के विरोध जीवित है |
सरकार व्यवसायिक पौधे लगाती है, जो ना तो पर्यावरण को ही बढ़ावा देते है , और ना ही किसी के कोई काम आते है| इसलिए, इनके प्रति स्थानीय लोगों की कोई स्वभाविक रुची नहीं होने के कारण यह अभियान हर बार सिर्फ अफसरों और नेताओं की जेब भरने तक सीमित रह जाता है|
वर्तमान में वन-भूमि पर इस तरह के पेड़ लगाने की मनाही के नाम पर इस अभियान के प्रति शासन और प्रशासन का रवैया सख्त है – आदिवासीयों पर कई दर्जन केस भी बने है और उनके इन पौधों को वन विभाग ने जलाया और उखाड़ा भी है; ऐसी एक घटना 19 दिसम्बर 2015 को बैतूल जिले में हुई थी|
अगर केंद्र सरकार के वन अधिकार कानून, 2006 के प्रावधानों के तहत सरकार ग्रामसभाओं को उनके जंगल अपर अधिकार सौप दे और मनरेगा के तहत हर गाँव में फलदार पौधों की एक नर्सरी तैयार करने में मदद दे-दे, तो इस देश की ‘गरीबी, पर्यावरण और सूखे’ का स्थाई हल निकला जा सकता है| देखना यह कि क्या सरकार यह राजनैतिक इच्छा शक्ति दिखाएंगी या अपना विरोध का स्वर जारी रखेगी| आदिवासी तो तमाम तकलीफों के बाद भी इस मुहीम में लगे है|