नई दिल्ली [ TNN ] आइस बकट हो या राइस बकट. सोशल मीडिया की दुनिया में इन दिनों दान की होड़ लगी हुई है. लेकिन क्या फंड जुटाने और दान करने की इन कवायदों का वास्तविक समाज की सच्चाइयों से कोई रिश्ता बन पाता है?
बर्फीले पानी से भरी बाल्टी अपने ऊपर उड़ेलने की यह चुनौती सोशल मीडिया खासकर फेसबुक में इसी साल अमेरिका से सामने आई है. स्नायु-तंत्र की एक गंभीर बीमारी (एएलएस) के बारे में जागरूकता और उसके इलाज से जुड़े शोध कार्यों में आर्थिक मदद के लिए संबंधित संगठनों ने इसका खूब प्रचार किया है और अपने फेसबुकी अभियानों में कई नामीगिरामी लोगों को जोड़ा है. हाल के दिनों में अमेरिका से लेकर भारत तक कई नामी हस्तियां एक नहीं कई कई बाल्टी पानी से सराबोर होकर अपना योगदान कर चुकी हैं. बताते हैं कि संगठनों के पास दान का काफी पैसा जमा होता जा रहा है. जो पानी बहा उसका कोई हिसाब नहीं है.
इस तरह पूरी मुहिम पर पानी फेरने का काम किया है इसी के अति उत्साह ने. सदाशयता के साथ शुरू हुई आइस बकट मुहिम अब प्रसिद्ध लोगों की अपनी कुछ देर की नुमायश, कुछ देर की वीरता, कुछ देर का पब्लिक रिलेशन इवेंट बन कर रह गया है. पानी उड़ेलो, जयजयकार कराओ, दस या सौ डॉलर दो, चार और लोगों को नॉमीनेट करो और भलाई की मीठी गुदगुदी के साथ घर जाकर सो जाओ. बेशक सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म व्यर्थ नहीं हैं. वहां ऐसा नहीं है कि जेनुइन सरोकारी काम नहीं किये जा सकते हैं. उसका बेशक एक जनकेंद्रित इस्तेमाल हो सकता है. वो कोई मसालेदार सिनेमा नहीं है कि वहां कुछ देर अंधेरे में बैठेंगे, अपने कष्ट भूल जाएंगें. सोशल मीडिया को कुछ लोग ऐसा ही बने रहना देना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि ये बस मस्ती के नाम रहे, यहां बाकी मुश्किलें न लाई जाएं.
लेकिन आप ही बताइये, क्या आज के दौर में यह संभव है कि मुसीबतों को बोरे में बंद कर हम तफरीह करने निकल जाएं. हमें उनसे लड़ना भी तो सीखना ही होगा, वरना तो उनका घेरा बढ़ता जाएगा, जो कि दिखता ही है. इसीलिए आइस बकट जैसे चौलेंज ’’हैशटैग एक्टीविज्म’’ कहे जाते हैं. ये एक किस्म का ’’क्लिकटीविज्म’’ है. और तो और बताते हैं कि ब्रिटेन में एएलएस बीमारी से जुड़े संगठनों के बीच दान की रकम को लेकर वर्चुअल वॉर छिड़ी है.
भारत में आइस बकट का एक निराला तोड़ निकाला गया है. पानी की जगह चावल की बाल्टी आगे कर दी गई है. इसे भरिए, नहीं भर सकते तो कुछ दान दीजिए. इधर भारत मे यह चौलेंज फेसबुक पर लोकप्रिय हो चला है और चावल की बाल्टियां कुछ जरूरतमंदो को मिल पाई हैं लेकिन अब इसमें कुछ एनजीओ भी कूद रहे हैं. उनके जरिए चावल गरीबों को मिलेगा.
एक नजर में लगता है कितना सही है सब कुछ. कितने उदार और दानदाता हैं लोग. लेकिन जरा रुककर देखेंगे कि कहीं कुछ नहीं बदलता है. ढाक के वही तीन पात हैं. सोशल मीडिया की तस्वीरों में चावल के चमकते दानों से भरी बाल्टियां आ जा रही हैं. लेकिन यह एक्सरसाइज लोकप्रियता के शिखर पर जाकर जब थम जाएगी तो भूखे पेटों तक चावल कौन और कैसे पहुंचाएगा.
देखने वाली बात यह भी है कि क्या इससे हम देश और जनता की हिफाजत का बीड़ा उठाने की शपथ खाने वाली सरकारों को और सुस्त नहीं कर देते? उनका अनाज तो गोदामों में सड़ जाता है, भूखे यूं ही मारे जाते हैं, अकाल सूखा आते-जाते हैं. खेत में अपने उगाए अन्न को लेकर एक किसान निकलता है तो एक दुष्चक्र उस पर मंडराना शुरू कर देता है जो गोदाम, साहूकार, बिचौलियों, थोक, फुटकर, कॉरपोरेट, सरकार न जाने कहां से कहां तक घिरा ही रहता है. क्या सोशल मीडिया की नई रोचकताएं या फेसबुक की ये भावुकताएं इस दुष्चक्र को तोड़ने में मदद कर पाती हैं?
दान करना बुरा नहीं है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि ऐसा कर हम किसी के आत्मसम्मान को सुला तो नहीं रहे हैं. ये क्षणिक दयाएं क्या उसका जीवनभर का गुजारा कर देंगी? तो क्यों न ऐसा अभियान, ऐसा चौलेंज, ऐसी लड़ाई छेड़ी जाए कि वंचित का हक उसे वापस मिल सके. वो खुद पर दया न करे. उसी की कुठार से अन्न निकालकर सोशल मीडिया में उसी अन्न को एक बाल्टी में भर कर उसे सौंप देना, यह बात गले नहीं उतरती.