वैसे तो विरोध प्रदर्शनों के वीडियो या फोटो हमेशा से चर्चा मेंरहते हैं मगर इन दिनों अमेरिका में हो रहे अश्वेत लोगों के प्रदर्शन में सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला वीडियो सिर्फ पंद्रह सेकेंड का है जिसमें सात साल की दुबली पतली लडकी विंटाअमोर रोजर अपने दुबले पतले हाथ और तीखी नजरों सेप्रदर्शनकारियों के नारों को दोहराती हुयी चलती है और कहती है नो जस्टिस नो पीस, नो जस्टिस नो पीस। अमेरिका के मेरिक शहर में चार जून को अश्वेतों के विरोध मार्च के कवरेज को गयेपत्रकार स्काट ब्रिन्टन ने जैसे ही इस वीडियो को रिकार्ड करटिवटर पर डाला देखते ही देखते ये वाइरल हो गया और अब येवीडियो 22 मिलियन लोगों ने देख लिया है। कोई इसे भविप्य कह रहा है तो कोई इसे आग कह रहा है। मगर सच तो ये है किये छोटा सा वीडियो अमेरिका में अश्वेतों के आंदोलन का प्रतीकबन गया है।
मिनियापोलिस शहर के अश्वेत नागरिक जार्ज फलायड कीपुलिस के हाथों मौत ने पूरे अमेरिका में कई दिनों से आग लगारखी है। फलायड के हाथों में हथकडी लगाकर उसे उलटागिराकर उसकी गर्दन पर नौ मिनिट तक अपना घुटना रखकरदबाने वाले सार्जेंट डेरेक चाउविन का वीडियो सभी ने देखा।
जार्ज चीखता रहा कि मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं मगर सार्जेंट नहीं पिघला और आस पास के जिन लोगों ने उसकी और बढेतो वहां मौजूद तीन और पुलिस अफसरों ने उनको धमकायाऔर देखते ही देखते जार्ज ने दम तोड दिया। पुलिस की दरिंदगीके इस वीडियो ने यूनाइटेड स्टेट में रहने वाली पूरी अश्वेत आबादी को भडका दिया। ऐसे में विरोध प्रदर्शन पहले लूट फिर हिंसा आगजनी और अब नये नये तरीके से किये जाने वालेप्रदर्शनों में बदल गये है।
ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन में शामिल विंटा अमोर देखते ही देखते अश्वेतों की आवाज का प्रतीक बनगयी। मगर इन विरोध प्रदर्शनों से हमारा क्या ताल्लुक मगरताल्लुक है वास्ता है। दरअसल भारत और अमेरिका दुनिया कीदो सबसे बडी लोकतां़ित्रक ताकतें हैं। अमेरिकी लोकतंत्रपुराना और हमारा नया है। यही वजह है कि तकरीबन सवा दोसौ साल पुराने परिपक्व लोकतंत्र में जो कुछ दिख रहा है वोहमारे नये नवेले और राप्टवाद की बेल चढे लोकतंत्र में सिरे सेगायब है।
जार्ज फलायड की मौत के बाद अमेरिकी पुलिसपश्चाताप की मुद्रा में हैं। कहीं पर प्रदर्शनकारियों के आगे घुटनोंके बल बैठ कर उनका गुस्सा शांत कर रही है तो कहीं उनकेपुलिस प्रमुख अमेरिकी राप्टपति को भी सरे आम टीवी इंटरव्यूमें अपना मुंह बंद रख कर इस आग को नहीं भडकाने की सलाह देते दिखते हैं।
हिंसा रोकने के लिये सडकों पर उतरी सेनालाठीचार्ज नहीं कर रही बल्कि प्रदर्शनकारियों के आगे नाच करउनका गुस्सा शांत करती दिखती है। पश्चाताप की हालत ये हैकि जार्ज के ताबूत पर आकर मिनियापोलिस शहर के मेयर नेआंसू बहाये, एक जस्टिस ने घुटनों के बल बैठकरप्रदर्शनकारियों की हक की आवाज उठायी और तो औरअमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी भी अश्वेतों के समर्थन में आवाजउठा रही है।
This little girl is among the #BlackLivesMattter protesters in #Merrick. More at #LIHerald tonight. pic.twitter.com/5E1rmD3KqJ
— Scott Brinton (@ScottBrinton1) June 3, 2020
ये सारी बातें यहां इसलिये कि हमारे देश में भी लोकतंत्र है औरहमारे यहाँ भी अनेक धर्म और नस्लों के लोग रहते हैं। हमारेसंविधान में समानता की भावना की वकालत की गयी है मगरअसल जिंदगी में समानता कितनी है हम जानते हैं। अमेरिका में रंगभेद की समस्या है जो हमारे यहाँ सदियों से वर्ण भेदकी परेशानी है। वहंा रंग के आधार पर भेद किया जाता रहा हैतो हमारे देश भी बडी मुश्किल से वर्ण या जाति भेद से उबर रहाहै। दलितों और शोषित समाज के पक्ष में बने तमाम कानूनों केबाद भी साल में कई बार दलित उत्पीडन और भेदभाव की खबरेंआती ही रहती हैं।
मगर कभी हमारे यहाँ जनता दलितों केपक्ष में ऐसे खडी नहीं दिखी। कभी उनके पक्ष में ऐसे आंदोलननहीं दिखे यदि दिखे भी तो उसके पीछे की राजनीति की रोटियांसेंकने का मकसद साफ दिख जाता है।
लोकतंत्र की परिपक्वता तभी है जब किसी एक नागरिक का शोषण देश केसभी लोगों को अपना शोषण लगे। अमेरिका में ऐसा दिख रहाहै। अश्वेतों के पक्ष में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में बराबर कीसंख्या श्वेतों की भी दिखती है। अश्वेतों को जब पुलिस पीछेधकेलती है तो उनके आगे श्वेत खडे हो जाते हैं और ऐसीकार्रवाई का पुलिस की आंखों में आंखें डालकर विरोध करतेहै।
हमारे देश के तेहत्तर साल पुराने लोकतंत्र में जाति और वर्ण केभेदभाव से हम अच्छे से उबर नहीं पाये और हाल के दिनो में धर्मभेद भी बहुत बढ गया है। सरकारी नीतियों के विरोध में उठ रहेहर आंदोलन और आवाज को धर्म के आधार पर खारिज करने का सरकारी रवैया बढ गया है। राजनीतिक दल सरकार में आतेही भूल जाते हैं कि विरोध करना ही लोकतंत्र की ताकत औररवायत है। विरोध करने वालों को जगह मिलनी चाहिये फिर वोविरोध विपक्षी दल का हो या प्रेस का।
अमेरिकी और भारतीय लोकतंत्र में एक बडी समानता ये भी हैकि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने 1863 मेंबहुसंख्यकों के विरोध के बाद भी एक दस्तखत कर पैंतीसलाख अश्वेत गुलामों को मुक्ति दे दी। लिंकन का ये फैसलाउनके लिये जानलेवा साबित हुआ मगर मरकर भी उन्होंने उसअमेरिका को सालों तक चलने वाले गृहयुद्वों से बचा लिया औरअश्वेतों को अमेरिका का नागरिक बना दिया।
अब्राहिम लिंकनद अननोन में डेल कार्नेगी लिखते हैं कि लिंकन हमेशा कहते थेकि अगर दासता गलत नहीं तो कुछ भी गलत नहीं। यही काममहात्मा गांधी ने भारत में किया। गांधी ने जाति प्रथा केखिलाफ काम तो किया ही धर्म के आधार पर जब बंटवारा हुआतो उसका भ्ज्ञी खुलकर विरोध किया और जान गंवायी।
लोकतंत्र की इमारत जनता के खून पसीने से खडी होती है।जाति और धर्म के आधार पर जब भी भेदभाव होगा सारी जनताइसके विरोध में खडी हो यही सच्चा लोकतंत्र है जो हमें विंटाअमोर रोजर की बंधी मुटठी और उबलती आंखों में दिखता है।
नो जस्टिस नो पीस, नो जस्टिस नो पीस नो जस्टिस नो पीस…
ब्रजेश राजपूत जी के facebook से
video, Photo Credit: Twitter