ज्योतिष शास्त्र भविष्य दर्शन की आध्यात्मिक विद्या है। भारतवर्ष में चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का ज्योतिष से बहुत गहरा संबंध है। जन्मकुण्डली व्यक्ति के जन्म के समय ब्रण्ड में स्थित ग्रह नक्षत्रों का मानचित्र होती है, जिसका अध्ययन कर जन्म के समय ही यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति को उसके जीवन में कौन-कौन से रोग होंगे।
चिकित्सा शास्त्र व्यक्ति को रोग होने के पश्चात रोग के प्रकार का आभास देता है। आयुर्वेद शास्त्र में अनिष्ट ग्रहों का विचार कर रोग का उपचार विभिन्न रत्नों का उपयोग और रत्नों की भस्म का प्रयोग कर किया जाता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोगों की उत्पत्ति अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्वजन्म के अवांछित संचित कर्मो के प्रभाव से बताई गई है। अनिष्ट ग्रहों के निवारण के लिए पूजा, पाठ, मंत्र जाप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के दान एवं रत्न धारण आदि साधन ज्योतिष शासत्र में उल्लेखित है।
जन्मकुण्डली में छठा भाव बीमारी और अष्टम भाव मृत्यु और उसके कारणों पर प्रकाश डालते हैं। बीमारी पर उपचारार्थ व्यय भी करना होता है, उसका विचार जन्मकुण्डली के द्वादश भाव से किया जाता है। इन भावों में स्थित ग्रह और इन भावों पर दृष्टि डालने वाले ग्रह व्यक्ति को अपनी महादशा, अंतर्दशा और गोचर में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। अनुभव पर आधारित जन्मकुण्डली में स्थित ग्रहों से उत्पन्न होने वाले रोगों का वर्णन किया जा रहा है। कालसर्प दोष शांति के लिए आसान उपाय
क्तचाप (ब्लड प्रेशर) – चिकित्सा विज्ञान में रक्तचाप होने के अनेकों कारण बताए गए हैं। चिंता, अधिक मोटापा, क्षमता से अधिक श्रम, डायबिटीज आदि। जन्मकुण्डली में शनि और मंगल की युति हों अथवा एक-दूसरे की परस्पर दृष्टि हो तथा छठे, आठवें और बारहवें भाव में चन्द्र का स्थित होकर पापग्रहों से दृष्ट होना रक्तचाप के योग देता है। चिंता और श्रम के कारण होने पर सफेद मोती, डायबिटीज और मोटापे के कारण होने पर पुखराज एवं शनि की साढ़े साती में रक्तचाप प्रारम्भ होने के कारण काला अकीक रत्न अंगूठी में धारण करने से लाभ होता है।
ह्वदय रोग – जन्मकुण्डली के चतुर्थ, पंचम और छठे भावों में पापग्रह स्थित हों और उन पर शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हो तो ह्वदय शूल की शिकायत होती है। कुम्भ राशि स्थित सूर्य पंचम भाव में और छठे भाव में अथवा इन भावों में केतु स्थित हो और चन्द्रमा पापग्रहों से देखा जाता हो तो ह्वदय संबंधी रोग होते हैं। सूर्य यदि कारण बनें तो माणिक, चन्द्र का कारण हो तो मोती और अन्य ग्रह कारक हों तो उनसे संबंधित रत्न धारण करना चाहिए।
अस्थमा (श्वांस रोग) – जन्मकुण्डली में बुध ग्रह मंगल के साथ स्थित हो या मंगल से दृष्ट हो, चन्द्रमा शनि के साथ बहुत कम दूरी पर स्थित हो अथवा अष्टम स्थान में वृश्चिक-मेष राशि का या नवांश का राहु स्थित हो तो व्यक्ति में एलर्जी के कारण अस्थमा की शिकायत होती है। ?सी स्थिति में पन्ना रत्न, सफेद मूंगा अथवा गोमेद रत्न धारण करने से लाभ होता है। घर में बरकत के आसान उपाय , होगी मां लक्ष्मी की कृपा
स्त्री रोग – महिलाओं की जन्मकुण्डली में चन्द्रमा जब भी पापग्रहों के साथ अर्थात शनि, राहु, केतु एवं मंगल के साथ स्थित होगा तो मानसिक अशांति के साथ मासिक धर्म की अनियमितता पैदा करता है। ?सी स्थिति में चन्द्रमा के साथ जो ग्रह स्थित हो उसका रत्न धारण करने से स्वास्थ्य लाभ होता है। शनि-चन्द्र एक साथ हों तो काला अकीक दाएं हाथ में धारण करने से लाभ होगा। अष्टम स्थान में मेष या वृश्चिक राशि का राहु स्थित हों और नवांश स्थिति भी उनकी अच्छी न हो तो रक्त स्त्राव अधिक होता है। गोमेद धारण करना ?सी स्थिति में बहुत लाभकारी होगा।प्यार करने पर लगाया 50 हजार रुपये जुर्माना
दुर्घटना योग – अष्टम भाव में मंगल, राहु, केतु, शनि शत्रु राशि के स्थित हों और नवांश में भी उनकी स्थिति अच्छी नहीं हो और किसी शुभग्रहों की दृष्टि उन पर नहीं हो तो दुर्घटनाएं गम्भीर होती है। अत: अष्टम भाव स्थित पापग्रह से संबंधित रत्न धारण किया जावें तो अवश्य लाभ होता है।
अन्य रोगों में रत्न उपयोग – अष्टम भाव पीठ दर्द और कमर दर्द का कारण भी दशार्ता है। छठे भाव और अष्टम भाव में स्थित पापग्रह नेत्र की बीमारियां दशार्ता है। द्वितीय और द्वादश भाव में स्थित ग्रह भी अनेक प्रकार के रोगों का संकेत देते हैं। अत: सम्पूर्ण रूप से रोग का विचार करते समय जन्मकुण्डली में छठे, आठवें एवं द्वादश भाव के साथ-साथ द्वितीय भाव की विवेचना करना चाहिए।
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इसके अतिरिक्त यदि व्यक्ति रोगी हो और जिस अंग पर रोग हो तो कुण्डली में उसी अंग का प्रतिनिधित्व करने वाले भाव का अध्ययन अच्छी तरह करना चाहिए। तत्पश्चात रोग जिस ग्रह के प्रभाव स्वरूप हुआ है, उससे संबंधित रत्न धारण करना चाहिए, अवश्य लाभ होगा।
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