प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस अमेरिका-यात्रा को हम सब बहुत सफल और सार्थक मानकर चल रहे थे लेकिन यह क्या हुआ? जिसे हम इस यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि मानकर चल रहे थे याने भारत-अमेरिका सैन्य सहभागिता, उसी पर पानी फिर गया।
भारत-अमेरिका संयुक्त-वक्तव्य में इस सैन्य-सहभागिता को सर्वोच्च स्थान दिया गया था लेकिन इस मुद्दे पर सीनेटर जॉन मेककेन ने जब सीनेट की मुहर लगवानी चाही तो सीनेट ने उसे रद्द कर दिया।
अमेरिका की अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली भारत-जैसी नहीं है कि जो राष्ट्रपति या सरकार ने कह दिया, वह कानून बन गया या संसद उस पर ठप्पा लगा ही देगी। वहां शक्तियों का पृथक्करण है। ओबामा और मोदी ने सैन्य-सहभागिता की घोषणा कर दी लेकिन सीनेट की सहमति के बिना वह लागू नहीं हो सकती। यह वैसा ही हुआ, जैसा कि 1920 में हुआ था। राष्ट्रपति वूडरो विल्सन ने ‘लीग आफ नेशन्स’ की जमकर वकालत की लेकिन सीनेट ने उसे रद्द कर दिया।
अब हमारा विदेश मंत्रालय काफी अटपटी लीपापोती कर रहा है। वे घुमा-फिराकर कह रहा है कि इस साल नहीं तो अगले साल सैन्य-सहभागिता पर ठप्पा लग जाएगा लेकिन यहां सवाल यह है कि वाशिंगटन में हमारा राजदूतावास क्या करता रहा? उसने सीनेटरों पर निगाह क्यों नहीं रखी? जैसे 2008 में हुआ परमाणु-सौदा अभी तक हवा में लटका हुआ है, वैसे ही मोदी की इस यात्रा में जितने लंबे-चौड़े किले बांधे गए थे, वे कहीं हवाई किले ही सिद्ध न हो जाएं।
यदि ऐसा हुआ तो इससे अमेरिका का नुकसान ही ज्यादा होगा, क्योंकि उसे अपना अरबों-खरबों का माल भारत को टिकाना है। न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भी अमेरिका इसलिए भारत का समर्थन कर रहा है कि अपनी कुछ ताजा और ज्यादा घिसी-पिटी तकनालाजी वह भारत के गले मढ़ना चाहता है।
आश्चर्य है कि सीनेट ने भारत-अमेरिका सैन्य सहभागिता का प्रस्ताव रद्द क्यों किया? शायद कुछ सीनेटर जरुरत से ज्यादा ईमानदार हैं। वे जानते हैं कि भारत, भारत है, वह पाकिस्तान, द.कोरिया या ताइवान नहीं है। भारत का कोई नादान नेता चाहे अमेरिकी चिकनाई पर फिसल जाए लेकिन भारतीय नौकरशाही धोखा नहीं खाएगी।
लेखक:- @वेद प्रताप वैदिक